HINDI ADIKAAL


आदिकाल : परिचय


आदिकाल सन 1000 से 1325 तक हिंदी साहित्य के इस युग को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने वीर-गाथा काल नाम दिया है। इसका चारण-काल, सिद्ध-सामंत काल और अन्य नाम से भी उल्लेख किया जाता है। इस समय का साहित्य मुख्यतः चार रूपों में मिलता है :
  • सिध्द-साहित्य,
  • नाथ-साहित्य,
  • जैन साहित्य,
  • चारणी-साहित्य,
  • प्रकीर्णक साहित्य।

सिद्ध और नाथ साहित्य

यह साहित्य उस समय लिखा गया जब हिंदी अपभ्रंश से आधुनिक हिंदी की ओर विकसित हो रही थी। सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी उस समय सिद्ध कहलाते थे। इनकी संख्या चौरासी मानी गई है। सरहपा (सरोजपाद अथवा सरोजभद्र) प्रथम सिद्ध माने गए हैं। इसके अतिरिक्त शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा, कुक्कुरिपा आदि सिद्ध सहित्य के प्रमुख् कवि है|ये कवि अपनी वाणी का प्रचार जन भाषा मे करते थे| उनकी सहजिया प्रवृत्ति मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति को केंद्र में रखकर निर्धारित हुई थी। इस प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय शुरू हुआ। नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए हैं। नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे। आपकी कई रचनाएं प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। इस समय की रचनाएं साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है। परवर्ती संत-साहित्य पर सिध्दों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है।

 जैन साहित्य

अपभ्रंश की जैन-साहित्य परंपरा हिंदी में भी विकसित हुई है। बड़े-बड़े प्रबंधकाव्यों के उपरांत लघु खंड-काव्य तथा मुक्तक रचनाएं भी जैन-साहित्य के अंतर्गत आती हैं। स्वयंभू का पउम-चरिउ वास्तव में राम-कथा ही है। स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल आदि उस समय के प्रख्यात कवि हैं। गुजरात के प्रसिध्द जैनाचार्य हेमचंद्र भी लगभग इसी समय के हैं। जैनों का संबंध राजस्थान तथा गुजरात से विशेष रहा है, इसीलिए अनेक जैन कवियों की भाषा प्राचीन राजस्थानी रही है, जिससे अर्वाचीन राजस्थानी एवं गुजराती का विकास हुआ है। सूरियों के लिखे राम-ग्रंथ भी इसी भाषा में उपलब्ध हैं।

 चारणी-साहित्य

इसके अंतर्गत चारण के उपरांत ब्रह्मभट्ट और अन्य बंदीजन कवि भी आते हैं। सौराष्ट्र, गुजरात और पश्चिमी राजस्थान में चारणों का, तथा ब्रज-प्रदेश, दिल्ली तथा पूर्वी राजस्थान में भट्टों का प्राधान्य रहा था। चारणों की भाषा साधारणतः राजस्थानी रही है और भट्टों की ब्रज। इन भाषाओं को डिंगल और पिंगल नाम भी मिले हैं। ये कवि प्रायः राजाओं के दरबारों में रहकर उनकी प्रशस्ति किया करते थे। अपने आश्रयदाता राजाओं की अतिरंजित प्रशंसा करते थे। श्रृंगार और वीर उनके मुख्य रस थे। इस समय की प्रख्यात रचनाओं में चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो, दलपति कृत खुमाण-रासो, नरपति-नाल्ह कृत बीसलदेव रासो, जगनिक कृत आल्ह खंड वगैरह मुख्य हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण पृथ्वीराज रासो है। इन सब ग्रंथों के बारे में आज यह सिद्ध हुआ है कि उनके कई अंश क्षेपक हैं।

 प्रकीर्णक साहित्य

खड़ी बोली का आदि-कवि अमीर खुसरो इसी समय हो गया है। खुसरो की पहेलियां और मुकरियां प्रख्यात हैं। मैथिल-कोकिल विद्यापति भी इसी समय के अंतर्गत हुए हैं। आपके मधुर पदों के कारण आपको ‘अभिनव जयदेव’ भी कहा जाता है। मैथिली और अवहट्ट में आपकी रचनाएं मिलती हैं। आपकी पदावली का मुख्य रस श्रृंगार माना गया है। अब्दुल रहमान कृत ‘संदेश रासक’ भी इसी समय की एक सुंदर रचना है। इस छोटे से प्रेम-संदेश-काव्य की भाषा अपभ्रंश से अत्यधिक प्रभावित होने से कुछ विद्वान इसको हिंदी की रचना न मानकर अपभ्रंश की रचना मानते हैं।
आश्रयदाताओं की अतिरंजित प्रशंसाएं, युध्दों का सुंदर वर्णन, श्रृंगार-मिश्रित वीररस का आलेखन वगैरह इस साहित्य की प्रमुख विशेषताएं हैं। इस्लाम का भारत में प्रवेश हो चुका था। देशी रजवाड़े परस्पर कलह में व्यस्त थे। सब एक साथ मिलकर मुसलमानों के साथ लड़ने के लिए तैयार नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि अलग-अलग सबको हराकर मुसलमान यहीं स्थिर हो गए। दिल्ली की गद्दी उन्होंने प्राप्त कर ली और क्रमशः उनके राज्य का विस्तार बढ़ने लगा। तत्कालीन कविता पर इस स्थिति का प्रभाव देखा जा सकता है।

आदिकाल के नामकरण की समस्या


साहित्य के इतिहास के प्रथम काल का नामकरण विद्वानों ने इस प्रकार किया है-
1. डॉ.ग्रियर्सन – चारणकाल,
2. मिश्रबंधुओं – प्रारंभिककाल,
3. आचार्य रामचंद्र शुक्ल- वीरगाथा काल,
4. राहुल संकृत्यायन – सिद्ध सामंत युग,
5. महावीर प्रसाद द्विवेदी – बीजवपन काल,
6. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – वीरकाल,
7. हजारी प्रसाद द्विवेदी – आदिकाल,
8. रामकुमार वर्मा – चारण काल
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल का नाम वीरगाथा काल रखा है। इस नामकरण का आधार स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं- …आदिकाल की इस दीर्घ परंपरा के बीच प्रथम डेढ़-सौ वर्ष के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता-धर्म, नीति, श्रृंगार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति के उपरांत जब से मुसलमानों की चढाइयों का आरंभ होता है तब से हम हिंदी साहित्य की प्रवृत्ति एक विशेष रूप में बंधती हुई पाते हैं। राजाश्रित कवि अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रमपूर्ण चरितों या गाथाओं का वर्णन करते थे। यही प्रबंध परंपरा रासो के नाम से पायी जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने वीरगाथा काल कहा है। इसके संदर्भ में वे तीन कारण बताते हैं-
1.इस काल की प्रधान प्रवृत्ति वीरता की थी अर्थात् इस काल में वीरगाथात्मक ग्रंथों की प्रधानता रही है।
2.अन्य जो ग्रंथ प्राप्त होते हैं वे जैन धर्म से संबंध रखते हैं, इसलिए नाम मात्र हैं और
3. इस काल के फुटकर दोहे प्राप्त होते हैं, जो साहित्यिक हैं तथा विभिन्न विषयों से संबंधित हैं, किन्तु उसके आधार पर भी इस काल की कोई विशेष प्रवृत्ति निर्धारित नहीं होती है। शुक्ल जी वे इस काल की बारह रचनाओं का उल्लेख किया है-
1. विजयपाल रासो (नल्लसिंह कृत-सं.1355), 2.हम्मीर रासो (शांगधर कृत-सं.1357), 3. कीर्तिलता (विद्यापति-सं.1460), 4.कीर्तिपताका (विद्यापति-सं.1460), 5. खुमाण रासो (दलपतिविजय-सं.1180), 6.बीसलदेव रासो (नरपति नाल्ह-सं.1212), 7. पृथ्वीराज रासो (चंद बरदाई-सं.1225-1249), 8.जयचंद्र प्रकाश (भट्ट केदार-सं. 1225), 9. जयमयंक जस चंद्रिका (मधुकर कवि-सं.1240), 10.परमाल रासो (जगनिक कवि-सं.1230), 11. खुसरो की पहेलियाँ (अमीर खुसरो-सं.1350), 12.विद्यापति की पदावली (विद्यापति-सं.1460)
शुक्ल जी द्वारा किये गये वीरगाथाकाल नामकरण के संबंध में कई विद्वानों ने अपना विरोध व्यक्त किया है। इनमें श्री मोतीलाल मैनारिया, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि मुख्य हैं। आचार्य द्विवेदी का कहना है कि वीरगाथा काल की महत्वपूर्ण रचना पृथ्वीराज रासो की रचना उस काल में नहीं हुई थी और यह एक अर्ध-प्रामाणिक रचना है। यही नहीं शुक्ल ने जिन गंथों के आधार पर इस काल का नामकरण किया है, उनमें से कई रचनाओं का वीरता से कोई संबंध नहीं है। बीसलदेव रासो गीति रचना है। जयचंद्र प्रकाश तथा जयमयंक जस चंद्रिका -इन दोनों का वीरता से कोई संबंध नहीं है। ये ग्रंथ केवल सूचना मात्र हैं। अमीर खुसरो की पहेलियों का भी वीरत्व से कोई संबंध नहीं है। विजयपाल रासो का समय मिश्रबंधुओं ने सं.1355 माना है अतः इसका भी वीरता से कोई संबंध नहीं है। परमाल रासो पृथ्वीराज रासो की तरह अर्ध प्रामाणिक रचना है तथा इस ग्रंथ का मूल रूप प्राप्य नहीं है। कीर्तिलता और कीर्तिपताका- इन दोनों ग्रंथों की रचना विद्यापति ने अपने आश्रयदाता राजा कीर्तिसिंह की कीर्ति के गुणगान के लिए लिखे थे। उनका वीररस से कोई संबंध नहीं है। विद्यापति की पदावली का विषय राधा तथा अन्य गोपियों से कृष्ण की प्रेम-लीला है। इस प्रकार शुक्ल जी ने जिन आधार पर इस काल का नामकरण वीरगाथा काल किया है, वह योग्य नहीं है।
डॉ.ग्रियर्सन का मत
डॉ.ग्रियर्सन ने हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल को चारणकाल नाम दिया है। पर इस नाम के पक्ष में वे कोई ठोस तर्क नहीं दे पाये हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास का प्रारंभ 643 ई. से मानी है किन्तु उस समय की किसी चारण रचना या प्रवृत्ति का उल्लेख उन्होंने नहीं किया है। वस्तुतः इस प्रकार की रचनाएँ 1000 ई.स. तक मिलती ही नहीं हैं। इस लिए डॉ.ग्रियर्सन द्वारा दिया गया नाम योग्य नहीं है।
*  मिश्रबंधुओं का मत
मिश्रबंधुओं ने ई.स. 643 से 1387 तक के काल को प्रारंभिक काल कहा है। यह एक सामान्य नाम है और इसमें किसी प्रवृत्ति को आधार नहीं बनाया गया है। यह नाम भी विद्वानों को स्वीकार्य वहीं है।
*  डॉ.रामकुमार वर्मा का मत
डॉ.रामकुमार वर्मा- इन्होंने हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को चारणकाल नाम दिया है। इस नामकरण के बारे में उनका कहना है कि इस काल के सभी कवि चारण थे, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। क्योंकि सभी कवि राजाओं के दरबार-आश्रय में रहनेवाले, उनके यशोगान करनेवाले थे। उनके द्वारा रचा गया साहित्य चारणी कहलाता है। किन्तु विद्वानों का मानना है कि जिन रचनाओं का उल्लेख वर्मा जी ने किया है उनमें अनेक रचनाएँ संदिग्ध हैं। कुछ तो आधुनिक काल की भी हैं। इस कारण डॉ.वर्मा द्वारा दिया गया चारणकाल नाम विद्वानों को मान्य नहीं है।
डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिंदी साहित्य के आदिकाल की कालाविधि सं ७५० से १३७५ तक मानकर इसे दो भागों मिह बांटा है.
१. संधिकाल (७५० से १००० वि.) तथा
२. चरण काल (१००० से १३७५ वि. तक)
उन्होंने संधिकाल में जैन, सिद्ध तथा नाथ साहित्य को व चारनकाल में वीरगाथात्मक रचनाओं को समाविष्ट किया है. संधिकाल दो भाषाओं एवं दो धर्मों का संधियुग है, जो वस्तुतः अपभ्रंश साहित्य ही है. चारनकाल तथा वीरगाथा काल की भांति ही दोषपूर्ण है क्योंकि इस सन्दर्भ में गिनाई गयी चारणों की रचनायें अप्रमाणिक एवं परवर्ती है.
कुछ आलोचकों का ये कहना है की वीरगाथा काव्यों के रचयिता चारण न होकर भाट थे.
*  राहुल संकृत्यायन का मत
राहुल संकृत्यायन- उन्होंने 8वीं से 13 वीं शताब्दी तक के काल को सिद्ध-सांमत युग की रचनाएँ माना है। उनके मतानुसार उस समय के काव्य में दो प्रवृत्तियों की प्रमुखता मिलती है- 1.सिद्धों की वाणी- इसके अंतर्गत बौद्ध तथा नाथ-सिद्धों की तथा जैनमुनियों की उपदेशमुलक तथा हठयोग की क्रिया का विस्तार से प्रचार करनेवाली रहस्यमूलक रचनाएँ आती हैं। 2.सामंतों की स्तृति- इसके अंतर्गत चारण कवियों के चरित काव्य (रासो ग्रंथ) आते हैं, जिनमें कवियों ने अपने आश्रय दाता राजा एवम् सामंतों की स्तृति के लिए युद्ध, विवाह आदि के प्रसंगों का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है। इन ग्रंथों में वीरत्व का नवीन स्वर मुखरित हुआ है। राहुल जी का यह मत भी विद्वानों द्वारा मान्य नहीं है। क्योंकि इस नामकरण से लौकिक रस का उल्लेख करनेवाली किसी विशेष रचना का प्रमाण नहीं मिलता। नाथपंथी तथा हठयोगी कवियों तथा खुसरो आदि की काव्य-प्रवृत्तियों का इस नाम में समावेश नहीं होता है।
*  आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का मत
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी- उन्होंने हिंदी साहित्य के प्रथम काल का नाम बीज-बपन काल रखा। उनका यह नाम योग्य नहीं है क्योंकि साहित्यिक प्रवृत्तियों की दृष्टि से यह काल आदिकाल नहीं है। यह काल तो पूर्ववर्ती परिनिष्ठित अपभ्रंश की साहित्यिक प्रवृत्तियों का विकास है।
*  आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी- इन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक काल को आदिकाल नाम दिया है। विद्वान भी इस नाम को अधिक उपयुक्त मानते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है- वस्तुतः हिंदी का आदि काल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम, मनोभावापन्न, परंपराविनिर्मुक्त, काव्य-रूढि़यों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक वहीं है। यह काल बहुत अधिक परंपरा-प्रेमी, रूढि़ग्रस्त, सजग और सचेत कवियों का काल है। आदिकाल नाम ही अधिक योग्य है क्योंकि साहित्य की दृष्टि से यह काल अपभ्रंश काल का विकास ही है, पर भाषा की दृष्टि से यह परिनिष्ठित अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई भाषा की सूचना देता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के आदिकाल के लक्षण-निरूपण के लिए निम्नलिखित पुस्तकें आधारभूत बतायी हैं-
1.पृथ्वीराज रासो, 2.परमाल रासो, 3.विद्यापति की पदावली, 4.कीर्तिलता, 5.कीर्तिपताका, 6.संदेशरासक (अब्दुल रेहमान), 7.पउमचरिउ (स्वयंभू कृत रामायण), 8.भविषयत्कहा (धनपाल), 9.परमात्म-प्रकाश (जोइन्दु), 10.बौद्ध गान और दोहा (संपादक पं.हरप्रसाद शास्त्री), 11.स्वयंभू छंद और 12.प्राकृत पैंगलम्।
*  नाम निर्णय
इस प्रकार हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल के नामकरण के रूप में आदिकाल नाम ही योग्य व सार्थक है, क्योंकि इस नाम से उस व्यापक पुष्ठभूमि का बोध होता है, जिस पर परवर्ती साहित्य खड़ा है। भाषा की दृष्टि से इस काल के साहित्य में हिंदी के प्रारंभिक रूप का पता चलता है तो भाव की दृष्टि से भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों के आदिम बीज इसमें खोजे जा सकते हैं। इस काल की रचना-शैलियों के मुख्य रूप इसके बाद के कालों में मिलते हैं। आदिकाल की आध्यात्मिक, श्रृंगारिक तथा वीरता की प्रवृत्तियों का ही विकसित रूप परवर्ती साहित्य में मिलता है। इस कारण आदिकाल नाम ही अधिक उपयुक्त तथा व्यापक नाम है।

सिद्ध साहित्य


सिद्ध साहित्य के इतिहास में चौरासी सिद्धों का उल्लेख मिलता है। सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिये, जो साहित्य जनभाषा मे लिखा, वह हिन्दी के सिद्ध साहित्य की सीमा मे आता है
सिद्ध सरहपा (सरहपाद, सरोजवज्र, राहुल भ्रद्र) से सिद्ध सम्प्रदाय की शुरुआत मानी जाती है। यह पहले सिद्ध योगी थे। जाति से यह ब्राह्मण थे। राहुल सांकृत्यायन ने इनका जन्मकाल 769 ई. का माना, जिससे सभी विद्वान सहमत हैं। इनके द्वारा रचित बत्तीस ग्रंथ बताए जाते हैं जिनमे से ‘दोहाकोश’ हिन्दी की रचनाओं मे  प्रसिद्ध है। इन्होने पाखण्ड और आडम्बर का विरोध किया तथा गुरू सेवा को महत्व दिया।
इनके बाद इनकी परम्परा को आगे बढ़ाने वाले प्रमुख सिद्ध हुए हैं क्रमश: इस प्रकार हैं :-
शबरपा : इनका जन्म 780 ई. में हुआ। यह क्षत्रिय थे। सरहपा से इन्होंने ज्ञान प्राप्त किया। ‘चर्यापद’ इनकी प्रसिद्ध पुस्तक है। इनकी कविता का उदाहरण देखिये-
                                हेरि ये मेरि तइला बाड़ी खसमे समतुला
                                षुकड़ये सेरे कपासु फ़ुटिला।
                                तइला वाड़िर पासेर जोहणा वाड़ि ताएला
                                फ़िटेली अंधारि रे आकासु फ़ुलिआ॥
लुइपा : ये राजा धर्मपाल के राज्यकाल में कायस्थ परिवार में जन्मे थे। शबरपा ने इन्हें अपना शिष्य माना था। चौरासी सिद्धों में इनका सबसे ऊँचा स्थान माना जाता है। उड़ीसा के तत्कालीन राजा और मंत्री इनके शिष्य हो गए थे।
डोम्भिया : मगध के क्षत्रिय वंश में जन्मे डोम्भिया ने विरूपा से दीक्षा ग्रहण की थी। इनका जन्मकाल 840 ई. रहा। इनके द्वारा इक्कीस ग्रंथों की रचना की गई, जिनमें ‘डोम्बि-गीतिका’,   ‘योगाचर्या’  और ‘अक्षरद्विकोपदेश’  प्रमुख हैं।
कण्हपा : इनका जन्म ब्राह्मण वंश में 820 ई. में हुआ था। यह कर्नाटक के थे, लेकिन बिहार के सोमपुरी स्थान पर रहते थे। जालंधरपा को इन्होंने अपना गुरु बनाया था। इनके लिखे चौहत्तर ग्रंथ बताए जाते हैं। यह पौराणिक रूढि़यों और उनमें फैले भ्रमों के खिलाफ थे।
कुक्कुरिपा : कपिलवस्तु के ब्राह्मण कुल में इनका जन्म हुआ। चर्पटीया इनके गुरु थे। इनके द्वारा रचित 16 ग्रंथ माने गए हैं।

नाथ साहित्य


सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय शुरू हुआ। नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए हैं। नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे। आपकी कई रचनाएं प्राप्त होती हैं।  इसके अतिरिक्त चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। इस समय की रचनाएं साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है। परवर्ती संत-साहित्य पर सिध्दों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है।
गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।
गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।
गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या ४० बताई जाती है किन्तु डा. बड़्थ्याल ने केवल १४ रचनाएं ही उनके द्वारा रचित मानी है जिसका संकलन ‘गोरखबानी’ मे किया गया है।
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि ‘यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।’
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे।
नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।

तुरासो काव्य : वीरगाथायें


परमाल रासो – इस ग्रन्थ की मूल प्रति कहीं नहीं मिलती। इसके रचयिता के बारे में भी विवाद है। पर इसका रचयिता “”महोबा खण्ड” को सं. १९७६ वि. में डॉ. श्यामसुन्दर दास ने “”परमाल रासो” के नाम से संपादित किया था। डॉ. माता प्रसाद गुप्त के अनुसार यह रचना सोलहवीं शती विक्रमी की हो सकती है। इस रचना के सम्बन्ध में काफी मतभेद है। श्री रामचरण हयारण “”मित्र” ने अपनी कृति “”बुन्देलखण्ड की संस्कृति और साहित्य” मैं “परमाल रासो” को चन्द की स्वतन्त्र रचना माना है। किन्तु भाषा शैली एवं छन्द में -महोवा खण्ड” से यह काफी भिन्न है। उन्होंने टीकामगढ़ राज्य के वयोवृद्ध दरवारी कवि श्री “”अम्बिकेश” से इस रचना के कंठस्थ छन्द लेकर अपनी कृति में उदाहरण स्वरुप दिए हैं। रचना के एक छन्द में समय की सूचना दी गई है जिसके अनुसार इसे १११५ वि. की रचना बताया गया है जो पृथ्वीराज एवं चन्द के समय की तिथियों से मेल नहीं खाती। इस आधार पर इसे चन्द की रचना कैसे माना जा सकता है। यह इसे परमाल चन्देल के दरवारी कवि जगानिक की रचना माने तो जगनिक का रासो कही भी उपलब्ध नहीं होता है।
स्वर्गीय महेन्द्रपाल सिंह ने अपेन एक लेख में लिखा है कि जगनिक का असली रासो अनुपलब्ध है। इसके कुछ हिस्से दतिया, समथर एवं चरखारी राज्यों में वर्तमान थे, जो अब नष्ट हो चुके हैं।
पृथ्वीराज रासो – यह कवि चन्द की रचना है। इसमें दिल्लीश्वर पृथ्वीराज के जीवन की घटनाओं का विशद वर्णन है। यह एक विशाल महाकाव्य है। यह तेरहवीं शदी की रचना है। डा. माताप्रसाद गुप्त इसे १४०० वि. के लगभग की रचना मानते हैं। पृथ्वीराज रासो की एतिहासिकता विवादग्रस्त है।
वीसलदेव रासो – यह रचना पश्चिमी राजस्थान की है। रचना तिथि सं. १४०० वि. के आसपास की है। इसके रचयिता नरपति नाल्ह हैं। रचना वीर गीतों के रुप में उपलब्ध है। इसमें वीसलदेव के जीवन के १२ वर्षों के कालखण्ड का वर्णन किया गया है।
हम्मीर रासो – इस रचना की कोई मूल प्रति नहीं मिलती है। इसका रचयिता शाङ्र्गधर माना जाता है। प्राकृत पैगलम में इसके कुछ छन्द उदाहरण के रुप में दिए गये है। ग्रन्थ की भाषा हम्मीर के समय के कुछ बाद की लगती है। अतः भाषा के आधार पर इसे हम्मीर के कुछ बाद का माना जा सकता है।
बुत्रद्ध रासो इसका रचयिता जल्ह है जिसे पृथ्वीराज रासो का पूरक कवि भी माना गया है। कवि ने रचना में समय नहीं दिया है। इसे पृथ्वीराज रासो के बाद की रचना माना जाता है।
मुंज रास – यह अपभ्रंश की रचना है। इसमें लेखक का नाम कहीं नहीं दिया गया। रचना काल के विषय में कोई निश्चित मत नहीं मिलता। हेमचन्द्र की यह व्याकरण रचना सं. ११९० की है। मुंज का शासन काल १००० -१०५४ वि. माना जाता है। इसलिए यह रचना १०५४-११९० वि. के बीच कभी लिखी गई होगी। इसमें मुंज के जीवन की एक प्रणय कथा का चित्रण है। कर्नाटक के राजा तैलप के यहाँ बन्दी के रुप में मुंज का प्रेम तैलप की विधवा पुत्री मृणालवती से ही जाता है। मुंज उसको लेकर बन्दीगृह से भागने का प्रस्ताव करता है किन्त मृणालवती अपने प्रेमी को वहीं रखकर अपना प्रणय सम्बन्ध निभाना चाहती थी इसलिए उसने तैलप को भेद दे दिया जिसके परिणामस्वरुप क्रोधी तैलप ने मृणालवती के सामने ही उसके प्रेमी मुंज को हाथी से कुचलवाकर मार डाला। कथा सूत्र को देखते हुए रचना छोटी प्रतीत नहीं होती।
खम्माण रासो – इसकी रचना कवि दलपति विजय ने की है। इसे खुमाण के समकालीन अर्थातद्य सं. ७९० सं. ८९० वि. माना गया है किन्तु इसकी प्रतियों में राणा संग्राम सिंह द्वितीय के समय १७६०-१७९० के पूर्व की नहीं होनी चाहिए। डॉ. उदयनारायण तिवारी ने श्री अगरचन्द नाहटा के एक लेख के अनुसार इसे सं. १७३०-१७६० के मध्य लिखा बताया गया है। जबकि श्री रामचन्द्र शुक्ल इसे सं. ९६९-सं. ८९९ के बीच की रचना मानते हैं। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इसे सं. १७३०-७९० के मध्य लिखा माना जा सकता है।
हम्मीर रासो इसके रचयिता महेश कवि है। यह रचना जोधराज कृत्त हम्मीर रासो के पहले की है। छन्द संख्या लगभग ३०० है इसमें रणथंभौर के राणा हम्मीर का चरित्र वर्णन है।
विजय पाल रासो – नल्ह सिह भाट कृत इस रचना के केवल ४२ छन्द उपलब्ध है। विजयपाल, विजयगढ़ करौली के यादव राजा थे। इसके आश्रित कवि के रुप में नल्ह सिह का नाम आता है। रचना की भाषा से यह १७ वीं शताब्दी से पूर्व की नहीं हो सकती है।
 सन्देश रासक – यह अपभ्रंश की रचना है। रचियिता अब्दुल रहमान हैं। यह रचना मूल स्थान या मुल्तान के क्षेत्र से सम्बन्धित है। कुल छन्द संख्या २२३ है। यह रचना विप्रलम्भ श्रृंगार की है। इसमें विजय नगर की कोई वियोगिनी अपने पति को संदेश भेजने के लिए व्याकुल है तभ कोई पथिक आ जाता है और वह विरहिणी उसे अपने विरह जनित कष्टों को सुनाते लगती है। जब पथिक उससे पूछता है कि उसका पति कि ॠतु में गया है तो वह उत्तर में ग्रीष्म ॠतु से प्रारम्भ कर विभिन्न ॠतुओं के विरह जनित कष्टों का वर्णन करने लगती है। यह सब सुनकर जब पथिक चलने लगता है, तभी उसका प्रवासी पति आ जाता है। यह रचना सं ११०० वि. के पश्चातद्य की है।
राणा रासो – दयाल दास द्वारा विरचित इस ग्रन्थ में शीशौदिया वंश के राजाओं के युद्धें एवं जीवन की घटनाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन १३७५-१३८१ के मध्य का हो सकता है। इसमें रतलाम के राजा रतनसिंह का वृत्त वर्णित किया गया है।
कायम रासो – यह रासो “”न्यामत खाँ जान” द्वारा रचा गया है। इसका रचना काल सं. १६९१ है किन्तु इसमें १७१० वि. की घअना वाला कुछ अंश प्रक्षिप्त है क्योंकि यदि कवि इस समय तक जीवित था तो उसने पूर्व तिथि सूचक क्यों बदला। यह वैसा का वैसा ही लिखा है इसमें राजस्थान के कायमखानी वंश का इतिहास वर्णित है।
शत्रु साल रासो रचयिता डूंगरसी कवि। इसका रचना काल सं. १७१० माना गया है। छंद संख्या लगभग ५०० है। इसमें बूंदी के राव शत्रुसाल का वृत्त वर्णित किया गया है। 
आंकण रासो – यह एक प्रकार का हास्य रासो है। इसमें खटमल के जीवन चरित्र का वर्णन किया गया है। इसका रचयिता कीर्तिसुन्दर है। रचना सं. १७५७ वि. की है। इसकी कुल छन्द संख ३९ है।
सागत सिंह रासो यह गिरधर चारण द्वारा लिखा गया है। इसमें शक्तिसिंह एवं उनके वंशजों का वृत्त वर्णन किया गया है। श्री अगरचन्द्र श्री अगरचन्द नाहटा इसका रचना काल सं. १७५५ के पश्चात का मानते हैं। इसकी छन्द संख्या ९४३ है।
राउजैतसी रासो – इस रचना में कवि का नाम नहीं दिया गया है और न रचना तिथि का ही संकेत है। इसमें बीकानेर के शासक राउ जैतसी तथा हुमायूं के भाई कामरांन में हुए एक युद्ध का वर्णन हैं जैतसी का शासन काल सं. १५०३-१५१८ के आसपास रहा है। अत-यह रचना इसके कुछ पश्चात की ही रही होगी। इसकी कुल छन्द संख्या ९० है। इसे नरोत्तम स्वामी ने राजस्थान भारतीय में प्रकाशित कराया है।
रासा भगवन्तसिंह – सदानन्द द्वारा विरचित है। इसमें भगवन्तसिंह खीची के १७९७ वि. के एक युद्ध का वर्णन है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त के अनुसार यह रचना सं. १७९७ के पश्चात की है। इसमें कुल १०० छन्द है।
करहिया की रायसौ – यह सं. १९३४ की रचना है। इसके रचयिता कवि गुलाब हैं, जिनके श्वंशज माथुर चतुर्वेदी चतुर्भुज वैद्य आंतरी जिला ग्वालियर में निवास करते थे। श्री चतुर्भुज जी के वंशज श्री रघुनन्दन चतुर्वेदी आज भी आन्तरी ग्वालिया में ही निवास करते हैं, जिनके पास इस ग्ररन्थ की एक प्रति वर्तमान है। इसमें करहिया के पमारों एवं भरतपुराधीश जवाहरसिंह के बीच हुए एक युद्ध का वर्णन है।
रासो भइया बहादुरसिंह – इस ग्रन्थ की रचना तिथि अनिश्चित है, परन्तु इसमें वर्णित घटना सं. १८५३ के एक युत्र की है, इसी के आधार पर विद्वानों ने इसका रचना काल सं. १८५३ के आसपास बतलाया है। इसके रचयिता शिवनाथ है।
रायचसा – यह भी शिवनाथ की रचना है। इसमें भी रचना काल नहीं दिया है। उपर्युक्त “”रासा भइया बहादुर सिंह” के आधार पर ही इसे भी सं. १८५३ के आसपास का ही माना जा सकता है, इसमें धारा के जसवंतसिंह और रीवां के अजीतसिंह के मध्य हुए एक युद्ध का वर्णन है।
कलियंग रासो – इसमें कलियुगका वर्णन है। यह अलि रासिक गोविन्द की रचना हैं। इसकी रचना तिथि सं. १८३५ तथा छन्द संख्या ७० है।
वलपतिराव रायसा – इसके रचयिता कवि जोगींदास भाण्डेरी हैं। इसमें महाराज दलपतिराव के जीवन काल के विभिन्न युद्धों की घटनाओं का वर्णन किया गया है। कवि ने दलपति राव के अन्तिम युद्ध जाजऊ सं. १७६४ वि. में उसकी वीरगति के पश्चात् रायसा लिखने का संकेत दिया है। इसलिये यह रचना सं. १४६४ की ही मानी जानी चाहिए। रासो के अध्ययन से ऐसा लगता है कि कवि महाराजा दलपतिराव का समकालीन था। इस ग्रन्थ में दलपतिराव के पिता शुभकर्ण का भी वृत्त वर्णित है। अतः यह दो रायसों का सम्मिलित संस्करण है। इसकी कुल छन्द संख्या ३१३ हैं। इसका सम्पादन श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव ने किया है, तथा “कन्हैयालाल मुन्शी, हिन्दी विद्यापीठ, आगरा नसे भारतीय साहित्य के मुन्शी अभिनन्दन अंक में इसे प्रकाशित किया गया है।
शत्रु जीत रायसा – बुन्देली भाषा के इस दूसरे रायसे के रचयिता किशुनेश भाट है। इसकी छन्द संख्या ४२६ है। इस रचना के छन्द ४२५ वें के अनुसार इसका रचना काल सं. १८५८ वि. ठहरता है। दतिया नरेश शत्रु जीत का समय सं. १८१९ सं. १९४८ वि. तदनुसार सनद्य १७६२ से १८०१ तक रहा है। यह रचना महाराजा शत्रुजीत सिंह के जीवन की एक अन्तिम घटना से सम्बन्धित है। इसमें ग्वालियर के वसन्धिया महाराजा दौलतराय के फ्रान्सीसी सेनापति पीरु और शत्रुजीत सिंह के मध्य सेवढ़ा के निकट हुए एक युद्ध का सविस्तार वर्णन है। इसका संपादन श्री हरि मोहनलाल श्रीवास्तव ने किया, तथा इसे “”भारतीय साहित्य” में कन्हैयालालमुन्शी हिदी विद्यापीठ आगरा द्वारा प्रकाशित किया गया है।
गढ़ पथैना रासो रचयिता कवि चतुरानन। इसमें १८३३ वि. के एक युद्ध का वर्णन किया गया है। छन्द संख्या
३१९ है। इसमें वर्णित युद्ध आधुनिक भरतपुर नगर से ३२ मील पूर्व पथैना ग्राम में वहां के वीरों और सहादत अली के मध्य लड़ा गया था। भरतपुर के राजा सुजारनसिंह के अंगरक्षक शार्दूलसिंह के पूत्रों के अदम्य उत्साह एवं वीरता का वर्णन किया गया है। बाबू वृन्दावनदास अभिनन्दन ग्रन्थ में सन् १९७५ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद द्वारा इसका विवरण प्रकाशित किया गया।
पारीछत रायसा – इसके रचयिता श्रीधर कवि है। रायसो में दतिया के वयोवृद्ध नरेश पारीछत की सेना एवं टीकामगढ़ के राजा विक्रमाजीतसिंह के बाघाट स्थित दीवान गन्धर्वसिंह के मध्य हुए युद्ध का वर्णन है। युद्ध की तिथि सं. १८७३ दी गई है। अतएव यह रचना सं. १८७३ के पश्चात् की ही रही होगी। इसका सम्पादन श्री हरिमोहन लाल श्रीवासतव के द्वारा किया गया तथा भारतीय साहित्य सनद्य १९५९ में कन्हैयालाल मुन्शी, हिन्दी विद्यापीठ आगरा द्वारा इसे प्रकाशित किया गया।
बाघाट रासो – इसके रचयिता प्रधान आनन्दसिंह कुड़रा है। इसमें ओरछा एवं दतिया राज्यों के सीमा सम्बन्धी तनाव के कारण हुए एक छोटे से युद्ध का वर्णन किया गया है। इस रचना में पद्य के साथ बुन्देली गद्य की भी सुन्दर बानगी मिलती है। बाघाट रासो में बुन्देली बोली का प्रचलित रुप पाया जाता है। कवि द्वारा दिया गया समय बैसाख सुदि १५ संवत् १८७३ विक्रमी अमल संवत १८७२ दिया गया है। इसे श्री हरिमोहनलाल श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित किया गया तथा यह भारतीय साहित्य में मुद्रित है। इसे “”बाघाइट कौ राइसो” के नाम से “”विंध्य शिक्षा” नाम की पत्रिका में भी प्रकाशित किया गया है।
झाँसी की रायसी – इसके रचनाकार प्रधान कल्याणिंसह कुड़रा है। इसकी छन्द संख्या लगभग २०० है। उपलब्ध पुस्तक में छन्द गणना के लिए छन्दों पर क्रमांक नहीं डाले गये हैं। इसमें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई तथा टेहरी ओरछा वाली रानी लिड़ई सरकार के दीवान नत्थे खां के साथ हुए युद्ध का विस्तृत वर्णन किया गया है। झांसी की रानी तथा अंग्रेजों के मध्य हुए झांसी कालपी, कौंच तथा ग्वालियर के युद्धों का भी वर्णन संक्षिप्त रुप में इसमें पाया जाता है। इसका रचना काल सं. १९२६ तदनुसार १९६९ ई. है। अर्थातद्य सन् १९५७ के जन-आन्दोलन के कुल १२ वर्ष की समयावधि के पश्चात् की रचना है। इसे श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव दतिया ने “”वीरांगना लक्ष्मीबाई” रासो और कहानी नाम से सम्पादित कर
सहयोगी प्रकाशन मन्दिर लि. दतिया से प्रकाशित कराया है।
लक्ष्मीबाई रासो – इसके रचयिता पं. मदन मोहन द्विवेदी “”मदनेश” है। कवि की जन्मभूमि झांसी है। इस रचना का संपादन डॉ. भगवानदास माहौर ने किया है। यह रचना प्रयाग साहित्य सम्मेलन की “”साहित्य-महोपाध्याय” की उपाधि के लिए भी सवीकृत हो चुकी है। इस कृति का रचनाकाल डॉ. भगवानदास माहौर ने सं. १९६१ के पूर्व का माना है। इसके एक भाग की समाप्ति पुष्पिका में रचना तिथि सं. १९६१ दी गई है। रचना खण्डित उपलब्ध हुई है, जिसे ज्यों का त्यों प्रकाशित किया गया है। विचित्रता यह है कि इसमें कल्याणसिंह कुड़रा कृत “”झांसी कौ रायसो” के कुछ छन्द ज्यों के त्यों कवि ने रख दिये हैं। कुल उपलब्ध छन्द संख्या ३४९ हैं। आठवें भाग में समाप्ति पुष्पिका नहीं दी गई है, जिससे स्पष्ट है कि रचना अभी पूर्ण नहीं है। इसका शेष हिस्सा उपलब्ध नहीं हो सका है। कल्याण सिंह कुड़रा कृत रासो और इस रासो की कथा लगभग एक सी ही है, पर मदनेश कृत रासो में रानी लक्ष्मीवाई के ऐतिहासिक एवं सामाजिक जीवन का विशद चित्रण मिलता है।
छछूंदर रायसा – बुन्देली बोली में लिखी गई यह एक छोटी रचना है। छछूंदर रायसे की प्रेरणा का स्रोत एक लोकोक्ति को माना जा सकता है- “”भई गति सांप छछूंदर केरी।” इस रचना में हास्य के नाम पर जातीय द्वेषभाव की झलक देखने को मिलती है। दतिया राजकीय पुस्तकालय में मिली खण्डित प्रति से न तो सही छन्द संख्या ज्ञात हो सकी और न कवि के सम्बन्ध में ही कुछ जानकारी उपलब्ध हो सकीफ रचना की भाषा मंजी हुई बुन्देली है। अवश्य ही ऐसी रचनाएं दरबारी कवियों द्वारा अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने अथवा कायर क्षत्रियत्व पर व्यंग्य के लिये लिखी गई होगी।

जैन साहित्य की रास परक रचनायें


भारत के पश्चिमीभाग मे जैन साधुओ ने अपने मत का प्रचार हिन्दी कविता के माध्यम से किया । इन्होंनेरास” को एक प्रभाव्शाली रचनाशैली का रूप दिया । जैन तीर्थंकरो के जीवन चरित तथावैष्णव अवतारों की कथायें जैन-आदर्शो के आवरण मे रासनाम से पद्यबद्ध की गयी ।अतः जैन साहित्य का सबसे प्रभावशाली रूप रासग्रंथ बन गये । वीरगाथाओं मे रास कोही रासो कहा गया किन्तु उनकी विषय भूमि जैन ग्रंथो से भिन्न हो गई । आदिकाल मे रचितप्रमुख हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है–
·     1. उपदेशरसायन रास- यह अपभ्रंश की रचना है एवं गुर्जर प्रदेश में लिखी गई हैं।इसके रचयिता श्री जिनदत्त सूरि हैं। कवि की एक और कृत्ति “कालस्वरुपकुलक१२०० वि.के आसपासकी रही होंगी। यह “अपभ्रंश काव्य त्रयीमेंप्रकाशित है और दूसरा डॉ.दशरथ ओझाऔर डॉ. दशरथ शर्मा के सम्पादन में रास और रासान्वयी काव्य में प्रकाशितकिया गया है।
·     2. भरतेश्वरबाहुबलि रास- शालिभद्र सूरि द्वारा लिखित इस रचना के दो संस्करणमिलते हैं। पहला प्राच्य विद्या मन्दिर बड़ौदा से प्रकाशित किया गया हैतथा दूसरारासऔर रासान्वयीकाव्यमें प्रकाशित हुआ है। कृति में रचनाकाल सं. १२३१वि.दिया हुआ है। इसकी छन्द संख्या २०३ है। इसमें जैन तीर्थकरॠषभदेव के पुत्रोंभरतेश्वर औरबाहुबलि में राजगद्दी के लिए हुए संघर्ष का वण्रनहै।
·     3. बुद्धिरासयह सं. १२४१ के आसपास की रचना है। इसके रचयित शालिभद्रसूरिहैं। कुछ छन्द संख्या ६३ है। यह उपदेश परक रचना है। यह भीरास और रासान्वयी काव्यमेंप्रकाशित है।
·     4. जीवदयारास-यह रचना जालोर पश्चिमी राजस्थान की है। “रास और रासान्वयी काव्यमें संकलित है। इसके रचयिता कवि आसगु हैं। सं. १२५७ वि. में रचित इसरचना में कुल५३ छन्दहैं।
·     5. चन्दरवाला रास-जीवदया रास के रचनाकार आसगु की यह दूसरी रचना है। यह भी १२५७वि. के आसपास की रचना है। यह श्री अगर चन्द नाहटा द्वारा सम्पादितराजस्थानभारतीमें प्रकाशितहै।
·     6. रेवंतगिरि रासयह सोरठप्रदेश की रचना है। रचनाकार श्री विजय सेन सूरि हैं।यह सं.१२८८ वि. के आसपास की रचना मानी जाती है। यह “प्राचीन गुर्जर काव्यमेंप्रकाशितहै।
·     7. नेतिजिणद रास या आबू रास- यह गुर्जर प्रदेश की रचना है। रचनाकार पाल्हण एवंरचना काल सं. १२०९ वि. है।
·     8. नेमिनाथरास- इसके रचयिता सुमति गण माने जाते हैं। कवि की एक अन्य कृति गणधरसार्ध शतक वृत्ति सं. १२९५ की है। अतः यह रचना इस तिथि के आसपास कीरहीहोगी।
·     9. गयसुकमाल रास- यह रचना दो संस्करणों में मिली है। जिनके आधर पर अनुमानतःइसकी रचना तिथि लगभग सं. १३०० वि. मानी गई है। इसके रचनाकार देल्हणिहै। श्रीअगरचन्द नाहटाद्वारा सम्पादित “राजस्थान भारतीपत्रिकामें प्रकाशित है तथादूसरा
संस्करण “रास और रासान्वयीकाव्यमें है।
·     10. सप्तक्षेत्रिसु रास- यह रचना गुर्जर प्रदेश की है। तथा इसका रचना काल सं.१३२७ वि. माना जाता है।
·     11. पेथड़रास- यह गुर्जर प्रदेश की रचना है। रचना मंडलीकहैं।
·     12. कच्छूलिरास- यह रचना भी गुर्जर प्रदेश के अन्तर्गत है। रचना की तिथि सं.१३६३ वि. मानी जाती है।
·     13. समरा रासयह अम्बदेव सूरि की रचना है। इसमें सं. १३६१ तक की घटनाओं काउल्लेख होने से इसका रचनाकाल सं. १३७१ के बाद माना गया है। यह पाटणगुजरात की रचनाहै।
·     14. पं पडवरास- शालिभद्र सूरि द्वारा रचित यह कृति सं. १४१० की रचना है। यह भीगुर्जर की रचना है। इसमें विभिन्न छन्दों की ७९५ पंक्तियाहैं।
·     15. गौतमस्वामी रास- यह सं. १४१२ की रचना है। इसके रचनाकार विनय प्रभुउपाध्यायहै।
·     16. कुमारपाल रास- यह गुर्जर प्रदेश की रचना है। रचनाकाल सं. १४३५ के लगभग काहै। इसके रचनाकार देवप्रभ हैं।
·     17. कलिकालरास- इसके रचयिता राजस्थान निवासी हीरानन्द सूरि हैं। यह सं. १४८६की रचना है।
·    १८ श्रावकाचार- देवसेन नामकप्रसिद्ध जैन आचार्य ने ९३३ ई. मे इस काव्य की रचना की । इसके २५० दोहो मे श्रावकधर्म का प्रतिपादन किया है।

विद्यापति


विद्यापति भारतीय साहित्य की भक्ति परंपरा के प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरुप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव और शैव भक्ति के सेतु के रुप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला के लोगों को ‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा’ का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महती प्रयास किया है।
मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किये जानेवाले गीतों में आज भी विद्यापति की श्रृंगार और भक्ति रस में पगी रचनायें जीवित हैं। ‘पदावली’ और ‘कीर्तिलता’ इनकी अमर रचनायें हैं।

 प्रमुख रचनायें

महाकवि विद्यापति संस्कृत, अबहट्ठ, मैथिली आदि अनेक भाषाओं के प्रकाण्ड पंडित थे। शास्र और लोक दोनों ही संसार में उनका असाधारण अधिकार था। कर्मकाण्ड हो या धर्म, दर्शन हो या न्याय, सौन्दर्य शास्र हो या भक्ति रचना, विरह व्यथा हो या अभिसार, राजा का कृतित्व गान हो या सामान्य जनता के लिए गया में पिण्डदान, सभी क्षेत्रों में विद्यापति अपनी कालजयी रचनाओं के बदौलत जाने जाते हैं। महाकवि ओईनवार राजवंश के अनेक राजाओं के शासनकाल में विराजमान रहकर अपने वैदुश्य एवं दूरदर्शिता सो उनका मार्गदर्शन करते रहे। जिन राजाओं ने महाकवि को अपने यहाँ सम्मान के साथ रखा उनमें प्रमुख है:
(क) देवसिंह (ख) कीर्तिसिंह (ग) शिवसिंह (घ) पद्मसिंह (च) नरसिंह (छ) धीरसिंह (ज) भैरवसिंह और (झ) चन्द्रसिंह।
इसके अलावे महाकवि को इसी राजवंश की तीन रानियों का भी सलाहकार रहने का सौभाग्य प्राप्त था। ये रानियाँ है:
(क) लखिमादेवी (देई) (ख) विश्वासदेवी और (ग) धीरमतिदेवी।
मैथिल कवि कोकिल, रसासिद्ध कवि विद्यापति, तुलसी, सूर, कबूर, मीरा सभी से पहले के कवि हैं। अमीर खुसरो यद्यपि इनसे पहले हुए थे। इनका संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश एवं मातृ भाषा मैथिली पर समान अधिकार था। विद्यापति की रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट, एवं मैथिली तीनों में मिलती हैं।
देसिल वयना अर्थात् मैथिली में लिखे चंद पदावली कवि को अमरच्व प्रदान करने के लिए काफी है। मैथिली साहित्य में मध्यकाल के तोरणद्वार पर जिसका नाम स्वर्णाक्षर में अंकित है, वे हैं चौदहवीं शताब्दी के संघर्षपूर्ण वातावरण में उत्पन्न अपने युग का प्रतिनिधि मैथिली साहित्य-सागर का वाल्मीकि-कवि कोकिल विद्यापति ठाकुर। बहुमुखी प्रतिमा-सम्पन्न इस महाकवि के व्यक्तित्व में एक साथ चिन्तक, शास्रकार तथा साहित्य रसिक का अद्भुत समन्वय था। संस्कृत में रचित इनकी पुरुष परीक्षा, भू-परिक्रमा, लिखनावली, शैवसर्वश्वसार, शैवसर्वश्वसार प्रमाणभूत पुराण-संग्रह, गंगावाक्यावली, विभागसार, दानवाक्यावली, दुर्गाभक्तितरंगिणी, गयापतालक एवं वर्षकृत्य आदि ग्रन्थ जहाँ एक ओर इनके गहन पाण्डित्य के साथ इनके युगद्रष्टा एवं युगस्रष्टा स्वरुप का साक्षी है तो दूसरी तरफ कीर्तिलता, एवं कीर्तिपताका महाकवि के अवह भाषा पर सम्यक ज्ञान के सूचक होने के साथ-साथ ऐतिहासिक साहित्यिक एवं भाषा सम्बन्धी महत्व रखनेवाला आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का अनुपम ग्रन्थ है। परन्तु विद्यापति के अक्षम कीर्ति का आधार, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, है मैथिली पदावली जिसमें राधा एवं कृष्ण का प्रेम प्रसंग सर्वप्रथम उत्तरभारत में गेय पद के रुप में प्रकाशित है। इनकी पदावली मिथिला के कवियों का आदर्श तो है ही, नेपाल का शासक, सामंत, कवि एवं नाटककार भी आदर्श बन उनसे मैथिली में रचना करवाने लगे बाद में बंगाल, असम तथा उड़ीसा के वैष्णभक्तों में भी नवीन प्रेरणा एवं नव भावधारा अपने मन में संचालित कर विद्यापति के अंदाज में ही पदावलियों का रचना करते रहे और विद्यापति के पदावलियों को मौखिक परम्परा से एक से दूसरे लोगों में प्रवाहित करते रहे।
कवि कोकिल की कोमलकान्त पदावली वैयक्तिकता, भावात्मकता, संश्रिप्तता, भावाभिव्यक्तिगत स्वाभाविकता, संगीतात्मकता तथा भाषा की सुकुमारता एवं सरलता का अद्भुत निर्देशन प्रस्तुत करती है। वर्ण्य विषय के दृष्टि से इनकी पदावली अगर एक तरफ से इनको रससिद्ध, शिष्ट एवं मर्यादित श्रृंगारी कवि के रुप में प्रेमोपासक, सौन्दर्य पारसी तथा पाठक के हृदय को आनन्द विभोर कर देने वाला माधुर्य का स्रष्टा, सिद्धहस्त कलाकार सिद्ध करती है तो दूसरी ओर इन्हें भक्त कवि के रुप में शास्रीय मार्ग एवं लोकमार्ग दोनों में सामंजस्य उपस्थित करने वाला धर्म एवं इष्टदेव के प्रति कवि का समन्वयात्मक दृष्टिकोण का परिचय देने वाला एक विशिष्ट भक्त हृदय का चित्र उपस्थित करती है साथ ही साथ लोकाचार से सम्बद्ध व्यावहारिक पद प्रणेता के रुप में इनको मिथिला की सांस्कृतिक जीवन का कुशल अध्येता प्रमाणित करती है। इतना ही नहीं, यह पदावली इनके जीवन्त व्यक्तित्व का भोगा हुआ अनुभूति का साक्षी बन समाज की तात्कालीन कुरीति, आर्थिक वैषम्य, लौकिक अन्धविश्वास, भूत-प्रेत, जादू-टोना, आदि का उद्घाटक भी है। इसके अलावे इस पदावली की भाषा-सौष्ठव, सुललित पदविन्यास, हृदयग्राही रसात्मकता, प्रभावशाली अलंकार, योजना, सुकुमार भाव व्यंजना एवं सुमधुर संगीत आदि विशेषता इसको एक उत्तमोत्तम काव्यकृति के रुप में भी प्रतिष्ठित किया है। हालांकि यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि महाकवि विद्यापत् अपनी अमर पदावली के रचना के लिए अपने पूर्ववर्ती संस्कृत कवियों खासकर भारवि, कालिदास, जयदेव, हर्ष अमरुक, गोवर्द्धनाचार्य आदि से कम ॠणि नहीं हैं। क्योंकि जिस विषयों को महाकवि ने अपनी पदावली में प्रस्तुत किया वे विषय पूर्व से ही संस्कृत के कवियों की रचनाओं में प्रस्तुत हो चुका था । विद्यापति की मौलिकता इसमें निहित है कि इन्होने उन रचनाओं की विषय उपमा अलंकार परिवेश आदि का अन्धानुकरण न कर उसमें अपने दीर्ध जीवन का महत्वपूर्ण एवं मार्मिक नानाविध अनुभव एवं आस्था को अनुस्यूत कर अप्रतिम माधुर्य एवं असीम प्राणवत्ता से युक्त मातृभाषा में यो प्रस्तुत किया कि वह इनके हृदय से न:सृक वल्कु लबजही मानव के हृदय में प्रवेश कर जाता है। यही कारण है कि महाकवि की काव्य प्रतिमा की गुञ्ज मात्र मिथिलांचल तक नहीं अपितु समस्त पूर्वांचल में, पूर्वांचल में भी क्यों समस्त भारतवर्ष में, समस्त भारतवर्ष में ही क्यों अखिल विश्व में व्याप्त है। राजमहल से लेकर पर्णकुटी तक में गुंजायमान विद्यापति का कोमलकान्त पदावली वस्तुत: भारतीय साहित्य की अनुपम वैभव है।
विद्यापति के प्रसंग में स्वर्गीय डॉ. शैलेन्द्र मोहन झा की उक्ति वस्तुत: शतप्रतिशत यथार्थ हैष वे लिखते हैं:
“नेपालक पार्वत्य नीड़ रटओ अथवा कामरुपक वनवीचिका, बंगालक शस्य श्यामला भूमि रहओ अथवा उतकलक नारिकेर निकुंज, विद्यापतिक स्वर सर्वत्र समान रुप सँ गुंजित होइत रहैत छनि। हिनक ई अमर पदावली जहिना ललनाक लज्जावृत कंठ सँ, तहिना संगीतज्ञक साधित स्वरसँ, राजनर्तकीक हाव-भाव विलासमय दृष्टि निक्षेपसँ, भक्त मंडलीक कीर्तन नर्तन सँ, वैष्णव-वैश्णवीक एकताराक झंकारसँ नि:सृत होइत युग-युगसँ श्रोतागणकें रस तृप्त करैत रहल अछि एवं करत। मिथिला मैथिलक जातीय एवं सांस्कृतिक गरिमाक मान-बिन्दु एवं साहित्यिक जागरणक प्रतीक चिन्हक रुप में आराध्य एवं आराधित महाकवि विद्यापतिक रचना जरिना मध्यकालीन मैथिली साहित्यिक अनुपम निधि आछि तहिना मध्यकाल में रचित समस्त मैथिली साहित्य सेहो हिनके प्रभावक एकान्त प्रतिफल अछि।”
महाकवि विद्यापति का जन्म वर्तमान मधुबनी जनपद के बिसपू नामक गाँव में एक सभ्रान्त मैथिल ब्राह्मण गणपति ठाकुर (इनके पिता का नाम) के घर हुआ था। बाद में यसस्वी राजा शिवसिंह ने यह गाँव विद्यापति को दानस्वरुप दे दिया था। इस दानपत्र कि प्रतिलिपि आज भी विद्यापति के वंशजों के पास है जो आजकल सौराठ नामक गाँव में रहते हैं। उपलब्ध दस्तावेजों एवं पंजी-प्रबन्ध की सूचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाकवि अभिनव जयदेव विद्यापति का जन्म ऐसे यशस्वी मैथिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था, जिस पर विद्या की देवी सरस्वती के साथ लक्ष्मी की भी असीम कृपा थी। इस विख्यात वंश में (विषयवार विसपी) एक-से-एक विद्धान्, शास्रज्ञ, धर्मशास्री एवं राजनीतिज्ञ हुए। महाकवि के वृहृप्रपितामह देवादिव्य कर्णाटवंशीय राजाओं के सन्धि, विग्रहिक थे तथा देवादिव्य के सात पुत्रों में से धीरेश्वर, गणेश्वर, वीरेश्वर
आदि महराज हरिसिंहदेव की मन्त्रिपरिषद् में थे। इनके पितामह जयदत्त ठाकुर एवं पिता गणपति ठाकुर राजपण्डित थे। इस तरह पाण्डिल्य एवं शास्रज्ञान कवि विद्यापति को सहज उत्तराधिकार में मिला था। अनेक शास्रीय विषयों पर कालजयी रचना का निर्माण करके विद्यापति ने अपने पूर्वजों की परम्परा को ही आगे बढ़ाया।
ऐसे किसी भी लिखित प्रमाण का अभाव है जिससे यह पता लगाया जा सके कि महाकवि कोकिल विद्यापति ठाकुर का जन्म कब हुआ था। यद्यपि महाकवि के एक पद से स्पष्ट होता है कि लक्ष्मण-संवत् २९३, शाके १३२४ अर्थात् मन् १४०२ ई. में देवसिंह की मृत्यु हुई और राजा शिवसिंह मिथिला नरेश बने। मिथिला में प्रचलित किंवदन्तियों के अनुसार उस समय राजा शिवसिंह की आयु ५० वर्ष की थी और कवि विद्यापति उनसे दो वर्ष बड़े, यानी ५२ वर्ष के थे। इस प्रकार १४०२-५२उ१३५० ई. में विद्यापति की जन्मतिथि मानी जा सकती है। लक्ष्मण-संवत् की प्रवर्त्तन तिथि के सम्बन्ध में विवाद है। कुछ लोगों ने सन् ११०९ ई. से, तो कुथ ने १११९ ई. से इसका प्रारंभ माना है। स्व. नगेन्द्रनाथ गुप्त ने लक्ष्मण-संवत् २९३ को १४१२ ई. मानकर विद्यापत् की जन्मतिथि १३६० ई. में मानी है। ग्रिपर्सन और महामहोपाध्याय उमेश मिश्र की भी यही मान्यता है। परन्तु श्रीब्रजनन्दन सहाय “ब्रजवल्लभ”, श्रीराम वृक्ष बेनीपुरी, डॉ. सुभद्र झा आदि सन् १३५० ई. को उनका जन्मतिथि का वर्ष मानते हैं। डॉ. शिवप्रसाद के अनुसार “विद्यापति का जन्म सन् १३७४ ई. के आसपास संभव मालूम होता है।” अपने ग्रन्थ विद्यापति की भूमिका में एक ओर डॉ. विमानविहारी मजुमदार लिखते है कि “यह निश्चिततापूर्वक नहीं जाना जाता है कि विद्यापति का जन्म कब हुआ था और वे कितने दिन जीते रहे” (पृ। ४३) और दूसरी ओर अनुमान से सन् १३८० ई. के आस पास उनकी जन्मतिथि मानते हैं।
हालांकि जनश्रुति यह भी है कि विद्यापति राजा शिवसेंह से बहुत छोटे थे। एक किंवदन्ती के अनुसार बालक विद्यापति बचपन से तीव्र और कवि स्वभाव के थे। एक दिन जब ये आठ वर्ष के थे तब अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ शिवसेंह के राजदरबार में पहुँचे। राजा शिवसिंह के कहने पर इन्होने निम्नलिखित दे पंक्तियों का निर्माण किया:
पोखरि रजोखरि अरु सब पोखरा।
राजा शिवसिंह अरु सब छोकरा।।
यद्यपि महाकवि की बाल्यावस्था के बारे में विशेष जानकारी नहीं है। विद्यापति ने प्रसिद्ध हरिमिश्र से विद्या ग्रहण की थी। विख्यात नैयायिक जयदेव मिश्र उर्फ पक्षधर मिश्र इनके सहपाठी थे। जनश्रुतियों से ऐसा ज्ञात होता है।
लोगों की धारणा यह है कि महाकवि अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ बचपन से ही राजदरबार में जाया करते थे। किन्तु चौदहवीं सदी का शेषार्ध मिथिला के लिए अशान्ति और कलह का काल था। राजा गणेश्वर की हत्या असलान नामक यवन-सरदार ने कर दी थी। कवि के समवयस्क एवं राजा गणेश्वर के पुत्र कीर्तिसिंह अपने खोये राज्य की प्राप्ति तथा पिता की हत्या का बदला लेने के लिए प्रयत्नशील थे। संभवत: इसी समय महाकवि ने नसरतशाह और गियासुद्दीन आश्रमशाह जैसे महपुरुषों के लिए कुछ पदों की रचना की। राजा शिवसिंह विद्यापति के बालसखा और मित्र थे, अत: उनके शासन-काल के लगभग चार वर्ष का काल महाकवि के जीवन का सबसे सुखद समय था। राजा शिवसिंह ने उन्हें यथेष्ठ सम्मान दिया। बिसपी गाँव उन्हें दान में पारितोषिक के रुप में दिया तथा ‘अभिनवजयदेव’ की उपाधि से नवाजा। कृतज्ञ महाकवि ने भी अपने गीतों द्वारा अपने अभिन्न मित्र एवं आश्रयदाता राजा शिवसिंह एवं उनकी सुल पत्नी रानी लखिमा देवी (ललिमादेई) को अमर कर दिया। सबसे अधिक लगभग २५० गीतों में शिवसिंह की भणिता मिलती है।
किन्तु थोड़े ही समय में ही पुन: मिथिला पर दुर्दैव का भयानक कोप हुआ। यवनों के आसन्न आक्रमण का आभाष पाकर राजा शिवसिंह ने विद्यापति के संरक्षण में अपने परिजनों को नेपाल-तराई-स्थित द्रोणवार के अधिपति पुरादित्य के आश्रम में रजाबनौली भेज दिया। युद्ध क्षेत्र में सम्भवत: शिवसिंह मारे गये। विद्यापति लगभग १२ वर्ष तक पुरादित्य के आश्रम में रहे। वहीं इन्होने लिखनावली की रचना की उस समय के एक पद से ज्ञात होता है कि उनके लिए यह समय बड़ा दु:खदायी था। शिवसिंह के छोटे भाई पद्मसिंह को राज्याधिकार मिलने पर औइनवार-वंशीय राजाओं का आश्रय पुन: महाकवि को प्राप्त हुआ और वे मिथिला वापस लौट आए। पद्मसिंह के केवल एक वर्ष के शासन के बाद उनकी धर्मपत्नी विश्वासदेवी मिथिला के राजसिंहासन पर बैठी, जिनके आदेश से उन्होने दो महत्वपूर्ण ग्रन्थः शैवसर्वस्वसार तथा गंगावाक्यावली लिखे। विश्वासदेवी के बाद राजा नरसिंहदेव ‘दपंनारायण’, महारानी धीरमती, महाराज धीरसिंह ‘हृदयनारायण’, महाराज भैरवसिंह ‘हरिनारायण’ तथा चन्द्रसिंह ‘रुपनारायण’ के शासनकाल में महाकवि को लगातार राज्याश्रय प्राप्त होता रहा था।
जन्मतिथि की तरह महाकवि विद्यापति ठाकुर की मृत्यु के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है। इतना स्पष्ट है और जनश्रुतियाँ बताती है कि आधुनिक बेगूसराय जिला के मउबाजिदपुर (विद्यापतिनगर) के पास गंगातट पर महाकवि ने प्राण त्याग किया था। उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में यह पद जनसाधारण में आज भी प्रचलित है:
‘विद्यापतिक आयु अवसान
कातिक धवल त्रयोदसि जान।’
यहाँ एक बात स्पषट करना अनिवार्य है। विद्यापति शिव एवं शक्ति दोनों के प्रबल भक्त थे। शक्ति के रुप में उन्होंने दुर्गा, काली, भैरवि, गंगा, गौरी आदि का वर्णन अपनी रचनाओं में यथेष्ठ किया है। मिथिला के लोगों में यह बात आज भी व्याप्त है कि जब महाकवि
विद्यापति काफी उम्र के होकर रुग्न हो गए तो अपने पुत्रों और परिजनों को बुलाकर यह आदेश दिया:
“अब मैं इस शरीर का त्याग करना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं गंगा के किनारे गंगाजल को स्पर्श करता हुआ अपने दीर्ध जीवन का अन्तिम सांस लूं। अत: आप लोग मुझे गंगालाभ कराने की तैयारी में लग जाएं। कहरिया को बुलाकर उस पर बैठाकर आज ही हमें सिमरिया घाट (गंगातट) ले चलें।”
अब परिवार के लोगों ने महाकवि का आज्ञा का पालन करते हुए चार कहरियों को बुलाकर महाकवि के जीर्ण शरीर को पालकी में सुलाकर सिमरिया घाट गंगालाभ कराने के लिए चल पड़े – आगे-आगे कहरिया पालकी लेकर और पीछे-पीछे उनके सगे-सम्बन्धी। रात-भर चलते-चलते जब सूर्योदय हुआ तो विद्यापति ने पूछा: “भाई, मुझे यह तो बताओं कि गंगा और कितनी दूर है?”
“ठाकुरजी, करीब पौने दो कोस।” कहरियों ने जवाब दिया। इस पर आत्मविश्वास से भरे महाकवि यकाएक बोल उठे: “मेरी पालकी को यहीं रोक दो। गंगा यहीं आएंगी।”
“ठाकुरजी, ऐसा संभव नहीं है। गंगा यहाँ से पौने दो कोस की दूरी पर बह रही है। वह भला यहाँ कैसे आऐगी? आप थोड़ी धैर्य रक्खें। एक घंटे के अन्दर हम लोग सिमरिया घाट पहुँच जाएंगे।”
“नहीं-नहीं, पालकी रोके” महाकवि कहने लगे, “हमें और आगे जाने की जरुरत नहीं। गंगा यहीं आएगी। आगर एक बेटा जीवन के अन्तिम क्षण में अपनी माँ के दर्शन के लिए जीर्ण शरीर को लेकर इतने दूर से आ रहा है तो क्या गंगा माँ पौने दो कोस भी अपने बेटे से मिलने नहीं आ सकती? गंगा आएगी और जरुर आएगी।”
इतना कहकर महाकवि ध्यानमुद्रा में बैठ गए। पन्द्रह-बीस मिनट के अन्दर गंगा अपनी उफनती धारा के प्रवाह के साथ वहाँ पहुँच गयी। सभी लोग आश्चर्य में थे। महाकवि ने सर्वप्रथम गंगा को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया, फिर जल में प्रवेश कर निम्नलिखित गीत की रचना की:
बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे।।
करनोरि बिलमओ बिमल तरंगे।
पुनि दरसन होए पुनमति गंगे।।
एक अपराध घमब मोर जानी।
परमल माए पाए तुम पानी।।
कि करब जप-तप जोग-धेआने।
जनम कृतारथ एकहि सनाने।।
भनई विद्यापति समदजों तोही।
अन्तकाल जनु बिसरह मोही।।
इस गंगा स्तुति का अर्थ कुछ इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है:
“हे माँ पतित पावनि गंगे, तुम्हारे तट पर बैठकर मैंने संसार का अपूर्व सुख प्राप्त किया। तुम्हारा सामीप्य छोड़ते हुए अब आँखों से आँसू बह रहे हैं। निर्मल तरंगोवानी पूज्यमती गंगे! मैं कर जोड़ कर तुम्हारी विनती करता हूँ कि पुन: तुम्हारे दर्शन हों।”
ठमेरे एक अपराध को जानकर भी समा कर देना कि हे माँ! मैंने तुम्हें अपने पैरों से स्पर्श कर दिया। अब जप-तप, योग-ध्यान की क्या आवश्यकता? एक ही स्नान में मेरा जन्म कृतार्थ हो गया। विद्यापति तुमसे (बार-बार) निवेदन करते है कि मृत्यु के समय मुझे मत भूलना।”
इतना ही नहीं, कवि विद्यापति ने अपनी पुत्री दुल्लहि को सम्बोधित करते हुए गंगा नदी के तट पर एक और महत्वपूर्ण गीत का निर्माण किया। यह गीत कुछ इस प्रकार है:
दुल्लहि तोर कतय छथि माय।
कहुँन ओ आबथु एखन नहाय।।
वृथा बुझथु संसार-विलास।
पल-पल नाना भौतिक त्रास।।
माए-बाप जजों सद्गति पाब।
सन्नति काँ अनुपम सुख आब।।
विद्यापतिक आयु अवसान।
कार्तिक धबल त्रयोदसि जान।।
इसका सारांश यह है कि महाकवि वयोवद्ध हो चुके हैं। अपने जीवन का अंत नजदीक देखकर इस नश्वर शरीर का त्याग करने के पवित्र तट पर अपने सखा-सम्बन्धियों के साथ पहुँच गये हैं। पूज्यशलीला माँ गंगा अपने इस महान यशस्वी पुत्र को अंक में समेट लेने के लिए प्रस्तुत हो गई हैं। इसी क्षण महाकवि विद्यापति अपनी एकलौती पुत्री को सम्बोधित करते हुए कहते हैं, अही दुलारि, तुम्हारी माँ कहाँ है.? कहो न कि अब जल्दी से स्नान करके चली आएं। भाई, देरी करने से भला क्या होगा? इस संसार के भोग-विलास आदि को व्यर्थ समझें। यहाँ पल-पल नाना प्रकार का भय, कष्ट आदि का आगमन होता रहता है। अगर माता-पिता को सद्गति मिल जाये तो उसके कुल और परिवार के लोगों को अनुपम सुख मिलना चाहिए। क्या तुम्हारी माँ नहीं जानती हैं जो आज जति पवित्र कार्तिक युक्त त्रयोदशी तिथि है। अब मेरे जीवन का अन्त निश्चित है।” इस तरह से गंगा के प्रति महाकवि ने अपनी अटूट श्रद्धा दिखाया। और इसके बाद ही उन्होंने जीवन का अन्तिम सांस इच्छानुसार गंगा के किनारे लिया।
नगेन्द्रनाथ गुप्त सन् १४४० ई. को महाकवि की मृत्यु तिथि का वर्ष मानते हैं। म.म. उमेश मिश्र के अनुसार सन् १४६६ ई. के बाद तक भी विद्यापति जीवित थे। डॉ. सुभद्र झा का मानना है कि “विश्वस्त अभिलेखों के आधार पर हम यह कहने की स्थिति में है कि हमारे कवि का मसय १३५२ ई. और १४४८ ई. के मध्य का है। सन् १४४८ ई. के बाद के व्यक्तियों के साथ जो विद्यापति की समसामयिकता को जोड़ दिया जाता है वह सर्वथा भ्रामक हैं।” डॉ. विमानबिहारी मजुमदार सन् १४६० ई. के बाद ही महाकवि का विरोधाकाल मानते हैं। डॉ. शिवप्रसाद सिंह विद्यापति का मृत्युकाल १४४७ मानते है।
महाकवि विद्यापति ठाकुर के पारिवारिक जीवन का कोई स्वलिखित प्रमाण नहीं है, किन्तु मिथिला के उतेढ़पोथी से ज्ञात होता है कि इनके दो विवाह हुए थे। प्रथम पत्नी से नरपति और हरपति नामक दो पुत्र हुए थे और दूसरी पत्नी से एक पुत्र वाचस्पति ठाकुर तथा एक पुत्री का जन्म हुआ था। संभवत: महाकवि की यही पुत्री ‘दुल्लहि’ नाम की थी जिसे मृत्युकाल में रचित एक गीत में महाकवि अमर कर गये हैं।
कालान्तर में विद्यापति के वंशज किसी कारणवश (शायद यादवों एवं मुसलमानों के उपद्रव से तंग आकर) विसपी को त्यागकर सदा के लिए सौराठ गाँव (मधुबनी जिला में स्थित समागाछी के लिए प्रसिद्ध गाँ) आकर बस गए। आज महाकवि के सभी वंशज इसी गाँव में निवास करते हैं।
काव्य और साहित्य के क्षेत्र में महाकवि ने निम्नलिखित ग्रन्थों की रचना की-
(क) पुरुषपरीक्षा
(
ख) भूपरिक्रमा
(
ग) कीर्तिलता
(
घ) कीर्तिपताका
(
च) गोरक्षविजयांटक तथा
(
छ) मणिमंजरीनाटिका।
इन ग्रन्थों के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है:
(क) पुरुषपरीक्षा
महाकवि विद्यापति ठाकुर ने पुरुष परीक्षा की रचना महाराजा शिवसिंह के निर्देशन पर किया था। यह ग्रन्थ पश्चिम के समाजशास्रियों के इस भ्रान्त कि “भारत में concept of man in Indian Tradition नामक विषय पर पटना विश्वविद्यालय के महान समाजशास्री प्रो. हेतुकर झा ने एक उत्तम कोटि की ग्रन्थ की रचना की है। यह ग्रन्थ समाजशास्रियों, इतिहासकारों, मानव वैज्ञानिको, राजनीतिशास्रियों के साथ-साथ दर्शन एवं साहित्य के लोगों के लिए भी एक अपूर्व कृति है। पुरुषपरीक्षा की कथा दी गयी है। वीरकथा, सुबुद्धिकथा, सुविद्यकथा और पुरुषार्थकथा- इन चार वर्गों पञ्चतन्त्र की परम्परा में शिक्षाप्रद कथाएँ प्रस्तुत की गयी हैं।
(ख) भूपरिक्रमा
भूपरिक्रमा नामक एक अत्यन्त प्रभावकारी ग्रन्थ की रचना महाकवि विद्यापति ठाकुर ने महाराज देवसिंह की आज्ञा से की थी। इस ग्रन्थ में बलदेवजी द्वारा की गयी भूपरिक्रमा का वर्णन है और नैमिषारण्य से मिथिला तक के सभी तीर्थ स्थलों का वर्णन है। भूपरिक्रमा को महाकवि का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। कारण, औइनवारवंशीय जिन राजा या रानियों के आदेश से कविश्रेष्ठ विद्यापति ठाकुर ने ग्रन्थ रचना की, उनमें सबसे वयोवृद्ध देवसिंह ही थे। भाषा और शैली की दृष्टि से भी मालूम होता है कि यह कवि की प्रथम रचना है।
(ग) कीर्तिलता
परवर्ती अपभ्रंश को ही संभवत: महाकवि ने अवहट्ठ नाम दिया है। ज्ञातव्य है कि महाकवि के पूर्व अद्दहयाण (अब्दुल रहमान) ने भी ‘सन्देशरासक’ की भाषा को अबहट्ठ ही कहा था। कीर्तिलता की रचना महाकवि विद्यापति ठाकुर ने अवहट्ठ में की है और इसमें महाराजा कीर्तिसिंह का कीर्तिकीर्तन किया है। ग्रन्थ के आरम्भ में ही महाकवि लिखते है:
… श्रोतुर्ज्ञातुर्वदान्यस्य कीर्तिसिंह महीपते:।
करोतु कवितु: काव्यं भव्यं विद्यापति: कवि:।।
अर्थात् महाराज कीर्तिसिंह काव्य सुननेवाले, दान देनेवाले, उदार तथा कविता करनेवाले हैं। इनके लिए सुन्दर, मनोहर काव्य की रचना कवि विद्यापति करते हैं। यह ग्रन्थ प्राचीन काव्यरुढियों के अनुरुप शुक-शुकी-संवाद के रुप में लिखा गया है।
कीर्तिसिंह के पिता राम गणेश्वर की हत्या असलान नामक पवन सरदार ने छल से करके मिथिला पर अधिकार कर लिया था। पिता की हत्या का बदला लेने तथा राज्य की पुनर्प्राप्ति के लिए कीर्तिसिंह अपने भाई वीरसिंह के साथा जौनापुर (जौनपुर) गये और वहाँ के सुलतान की सहायता से असलान को युद्ध में परास्त कर मिथिला पर पुन: अधिकार किया। जौनपुर की यात्रा, वहाँ के हाट-बाजार का वर्णन तथा महाराज कीर्तिसिंह की वीरता का उल्लेख कीर्तिलता में है। इसके वर्णनों में यर्थाध के साथ शास्राय पद्धति का प्रभाव भी है। वर्णन के ब्यौरे पर ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर की स्पष्ट धाप है। तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति के अध्ययन के लिए कीर्तिलता से बहुत सहायता ली जा सकती है। इस ग्रन्थ की रचना तक महाकवि विद्यापति ठाकुर का काव्यकला प्रौढ़ हो चुकी थी। इसी कारण इन्होंने आत्मगौरवपरक पंक्तियाँ लिखी:
बालचन्द विज्जावड़ भासा, दुहु नहिं लग्गइ दुज्जन हासा।
ओ परमेसर हर सिर सोहइ, ई णिच्चई नाअर मन मोहइ।।
चतुर्थ पल्लव के अन्त में महाकवि लिखते हैं:
“…माधुर्य प्रसवस्थली गुरुयशोविस्तार शिक्षासखी।
यावद्धिश्चमिदञ्च खेलतु कवेर्विद्यापतेर्भारती।।”
म.म. हरप्रसाद शास्री ने भ्रमवश ‘खेलतु कवे:’ के स्थान पर ‘खेलनकवे:’ पढ़ लिया और तब से डॉ. बाबूराम सक्सेना, विमानविहारी मजुमदार, डॉ. जयकान्त मिश्र, डॉ. शिवप्रसाद सिंह प्रभृति विद्धानों ने विद्यापति का उपनाम ‘खेलन कवि’ मान लिया। यह अनवमान कर लिया गया कि चूँकि कवि अपने को ‘खेलन कवि’ कहता है, अर्थात् उसके खेलने की ही उम्र है, इसलिए कीर्तिलता महाकवि विद्यापति ठाकुर की प्रथम रचना है। अब इस भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं है और कीर्तिलता में कवि की विकसित काव्य-प्रतिमा के दर्शन होते हैं।
(घ) कीर्तिपताका
महाकवि विद्यापति ठाकुर ने बड़े ही चतुरता से महाराजा शिवसिंह का यशोवर्णन किया है। इस ग्रन्थ की रचना दोहा और छन्द में की गयी है। कहीं-कहीं पर संस्कृत के श्लोकों का भी प्रयोग किया गया है। कीर्तिपताका ग्रन्थ की खण्डित प्रति ही उपलब्ध है, जिसके बीच में ९ से २९ तक के २१ पृष्ठ अप्राप्त हैं। ग्रन्थ के प्रारंभ में अर्द्धनारीश्वर, चन्द्रचूड़ शिव और गणेश की वन्दना है। कीर्तिपताका ग्रन्थ के ३० वें पृष्ठ से अन्त तक शिवसिंह के युद्ध पराक्रम का वर्णन है। इसलिए डॉ. वीरेन्द्र श्रीवास्तव अपना वक्तव्य कुछ इस तरह लिखते हैं कि “अत: निर्विवाद रुप से पिछले अंश को विद्यापति-विरचित कीर्तिपताका कहा जा सकता है, जो वीरगाथा के अनुरुप वीररस की औजस्विता से पूर्ण है” (विद्यापति-अनुशीलन एवं मूल्यांकन खण्ड-१, पृ.३०)।
(च) गोरक्षविजय
गोरक्षविजय के रुप में विद्यापति ने एक नूतन प्रयोग किया है। यह एक एकांकी नाटक है। इसके कथनोपकथन में संस्कृत और प्राकृत भाषा का प्रयोग है। गीत कवि की मातृभाषा मैथिली में है। गोरक्षनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ की प्रसिद्ध कथा पर यह नाटक आधारित है। कहते हैं कि महाकवि ने इस नाटक की रचना महाराजा शिवसिंह की आज्ञा से किया था।
(छ) मणिमंजरा नाटिका
यह एक लघु नाटिका है। इस नाटिका में राजा चन्द्रसेन और मणिमंजरी के प्रेम का वर्णन है।

अमीर खुसरो


अमीर खुसरो    जन्म: 1253 निधन: 1325
कुछ प्रमुख कृतियाँ-  ‘तुहफ़ा-तुस-सिगर’, ‘बाक़िया नाक़िया’, ‘तुग़लकनामा’, ‘नुह-सिफ़िर’ ‘मुकरिया’
जे हाले मिसकी मकुल तगाफुल दुराये नैना बनाय बतियां ॥
कि ताबे गिजां न दारम, ऐजां न लेहू काहे लगाए छतियां ॥
शबाने हिजां दाज यूं व रोजे वसतल चू इम्र कोतह ।
सखी, पिया तो जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अन्धेरी रतियां ॥
                   
छाप-तिलक तज दीन्हीं रे तोसे नैना मिला के ।
प्रेम बटी का मदवा पिला के, मतबारी कर दीन्हीं रे मोंसे नैना मिला के ।
खुसरो निज़ाम पै बलि-बलि जइए मोहे सुहागन कीन्हीं रे मोसे नैना मिला के ।                               
काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे
भैया को दियो बाबुल महले दो-महला
हमको दियो परदेस अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ
जित हाँके हँक जैहें अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगे हैं जैहें अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
कोठे तले से पलकिया जो निकली
बीरन में छाए पछाड़ अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
हम तो बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ
भोर भये उड़ जैहें अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
तारों भरी मैनें गुड़िया जो छोडी़
छूटा सहेली का साथ अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
डोली का पर्दा उठा के जो देखा
आया पिया का देस अरे, लखिय बाबुल मोरे
काहे को ब्याहे बिदेस
काहे को ब्याहे बिदेस अरे, लखिय बाबुल मोरे
दोहे –
        खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
        तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग।।
        खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार।
        जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।।
        खीर पकायी जतन से, चरखा दिया जला।
        आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा।।
        गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
        चल खुसरो घर आपने, सांझ भयी चहु देस।।
कह मुकरनी –
        लिपट-लिपट के वाके सोई, छाती से छाती लगाके रोई।
        दांत से दांत बजे तो ताड़ा, ऐ सखी साजन ? ना सखी जाड़ा।
        वो आये तब शादी होवे, उस बिन दूजा और ना कोय।
        मीठे लागें वाके बोल, ऐ सखी साजन ? ना सखी ढोल।
        सगरी रैन छतियन पर राखा, रूप रंग सब वाका चाखा।
        भोर भई जब दिया उतार, ऐ सखी साजन ? ना सखी हार।
दोसुखने –
        राजा प्यासा क्यूं ? गधा उदास क्यूं ? लोटा न था।
        दीवार क्यूं टूटी ? राह क्यूं लुटा ? राज न था।
        अनार क्यूं न चखा ? वज़ीर क्यूं न रखा ? दाना न था।
        दही क्यूं न जमा ? नौकर क्यूं न रखा ? ज़ामिन न था।
        घर क्यूं अंधियारा ? फकीर क्यूं बड़बड़ाया ? दिया न था।
        गोश्त क्यूं न खाया ? डोम क्यूं न गाया ? गला न था।
        समोसा क्यूं न खाया ? जूता क्यूं न पहना ? तला न था।
        सितार क्यूं न बजा ? औरत क्यूं न नहाई ? परदा न था।
        पंडित क्यूं न नहाया ? धोबन क्यूं न मारी गयी ? धोती न थी।
        खिचड़ी क्यूं न पकायी ? कबूतरी क्यूं न उड़ायी ? छड़ी न थी।
पहेलियाँ –
        एक गुनी ने ये गुन कीना, हरियल पिंजरे में दे दीना।
        देखो जादूगर का कमाल, डारे हरा निकाले लाल।।                    (पान)
        एक परख है सुंदर मूरत, जो देखे वो उसी की सूरत।
        फिक्र पहेली पायी ना, बोझन लागा आयी ना।।                      (आईना)
        बाला था जब सबको भाया, बड़ा हुआ कुछ काम न आया।
        खुसरो कह दिया उसका नाँव, अर्थ कहो नहीं छाड़ो गाँव।।      (दिया)
 १.
खा गया पी गया दे गया बुत्ता
ऐ सखि साजन? ना सखि कुत्ता! २.
लिपट लिपट के वा के सोई
छाती से छाती लगा के रोई
दांत से दांत बजे तो ताड़ा
ऐ सखि साजन? ना सखि जाड़ा! ३.
रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठि जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
ऐ सखि साजन? ना सखि तारा! ४.
नंगे पाँव फिरन नहिं देत
पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत
पाँव का चूमा लेत निपूता
ऐ सखि साजन? ना सखि जूता! ५.
ऊंची अटारी पलंग बिछायो
मैं सोई मेरे सिर पर आयो
खुल गई अंखियां भयी आनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि चांद! ६.
जब माँगू तब जल भरि लावे
मेरे मन की तपन बुझावे
मन का भारी तन का छोटा
ऐ सखि साजन? ना सखि लोटा! ७.
वो आवै तो शादी होय
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागें वा के बोल
ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल! ८.
बेर-बेर सोवतहिं जगावे
ना जागूँ तो काटे खावे
व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की
ऐ सखि साजन? ना सखि मक्खी! ९.
अति सुरंग है रंग रंगीले
है गुणवंत बहुत चटकीलो
राम भजन बिन कभी न सोता
ऐ सखि साजन? ना सखि तोता! १०.
आप हिले और मोहे हिलाए
वा का हिलना मोए मन भाए
हिल हिल के वो हुआ निसंखा
ऐ सखि साजन? ना सखि पंखा! ११.
अर्ध निशा वह आया भौन
सुंदरता बरने कवि कौन
निरखत ही मन भयो अनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि चंद! १२.
शोभा सदा बढ़ावन हारा
आँखिन से छिन होत न न्यारा
आठ पहर मेरो मनरंजन
ऐ सखि साजन? ना सखि अंजन! १३.
जीवन सब जग जासों कहै
वा बिनु नेक न धीरज रहै
हरै छिनक में हिय की पीर
ऐ सखि साजन? ना सखि नीर! १४.
बिन आये सबहीं सुख भूले
आये ते अँग-अँग सब फूले
सीरी भई लगावत छाती
ऐ सखि साजन? ना सखि पाती! १५.
सगरी रैन छतियां पर राख
रूप रंग सब वा का चाख
भोर भई जब दिया उतार
ऐ सखी साजन? ना सखि हार!
   
जीवन-परिचय
वंश
अमीर ख़ुसरो के पूर्वज हज़ारा तुर्क थे, और उनके मूल क़बीले का नाम ‘लाचीन’ या ‘हज़ारये लाचीन’ था। ‘हज़ारा’ मूलतः कोई वंश था। तुर्की शब्द ‘लाचीन’ का अर्थ है ‘ग़ुलाम’। इससे अनुमान लगता है कि हज़ारा वंश की किसी ग़ुलाम शाखा से इसका सम्बन्ध था। इनके क़बीले का मूल स्थान तुर्किस्तान का ‘कश’ नामक स्थान था, जो अब ‘कुबत्तुल ख़जरा’ कहलाता है। कुछ लोग इसे ‘माये मुर्ग़’ के पास का एक दूसरा स्थान भी मानते हैं। ‘कश’ से इनके पूर्वज बलख़ आ गये थे। वहीं से इनके पिता भारत आए थे।
जन्म-स्थान
अमीर ख़ुसरो का जन्म-स्थान काफ़ी विवादास्पद है। भारत में सबसे अधिक प्रसिद्ध यह है कि वे उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के ‘पटियाली’ नाम के स्थान पर पैदा हुए थे। कुछ लोगों ने गलती से ‘पटियाली’ को ‘पटियाला’ भी कर दिया है, यद्यपि पटियाला से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था, हाँ, पटियाली से अवश्य था। पटियाली के दूसरे नाम मोमिनपुर तथा मोमिनाबाद भी मिलते हैं। पटियाली में इनके जन्म की बात हुमायूँ के काल के हामिद बिन फ़जलुल्लाह जमाली ने अपने ‘तज़किरा’ सैरुल आरफ़ीन’ में सबसे पहले कही। उसी के आधार पर बाद में लोग उनका जन्म पटियाली होने की बात लिखते और करते रहे। हिन्दी, उर्दू तथा अंग्रेजी की प्रायः सभी किताबों में उनका जन्म पटियाली में ही माना गया है। ए.जी.आर्बरी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘क्लासिकल मर्शियन लिट्रेचर’ तथा ‘एनासाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ जैसे प्रामाणिक ग्रन्थों में भी यही मान्यता है।
कुछ लोगों ने अमीर ख़ुसरो का जन्म भारत के बाहर भी होने की बात कही है। उदाहरण के लिए मुहम्मद शफ़ी मोअल्लिफ़ ‘मयख़ाना’ ने ‘मखज़न अख़बार’ के हवाले से अफ़गानिस्तान में काबुल से पाँच मील दूर ‘ग़ोरबंद’ नाम के क़स्बे में इनका जन्म माना है। उनका कहना है कि अमीर ख़ुसरो के पिता अपने भाइयों से लड़कर काबुल चले गये थे, किंतु फिर जब चंगेज़ ख़ाँ उधर आया तो वे भागकर फिर भारत आ गये। ऐसे ही कुछ लोगों ने बुख़ारा में भी उनके पैदा होने की बात की है। दाग़िस्तानी ने लिखा है कि इनका जन्म भारत के बाहर हुआ और ये अपने माँ-बाप के साथ बलख़ से हिन्दुस्तान आए। एक मत यह भी है कि इनकी माँ जब बलख़ से आयीं तो वे गर्भवती थीं तथा इनका जन्म भारत में ही हुआ।
इस सदी के सातवें दशक में 1976 में पाकिस्तानी लेखक मुमताज हुसैन की अमीर ख़ुसरो पर एक पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने विस्तार से अमीर ख़ुसरो की जन्मभूमि पर विचार करते हुए, उपर्युक्त सभी मतों का खण्डन किया तथा यह सिद्ध किया कि ख़ुसरो का जन्म दिल्ली में हुआ। इसीलिए उन्होंने अपनी पुस्तक का नाम रखा ‘अमीर ख़ुसरो देहलवी : हयात और शायरी’। छः वर्ष बाद 1982 में यह पुस्तक भारत में छपी।
वस्तुतः लगता है कि ख़ुसरो दिल्ली में ही पैदा हुए थे, पटियाली या काबुल आदि में नहीं। इसके पक्ष में काफी बातें कही जा सकती है। यों उपर्युक्त मतों में, पटि्याली या दिल्ली में जन्म-स्थान ही अधिकांश विद्वानों को मान्य रहे हैं। इन दोनों में भी पक्ष-विपक्ष में विचार करने पर संभावना यही लगती है कि वे दिल्ली में ही पैदा हुए थे। इस प्रसंग में निम्नांकित बातें देखी जा सकती हैं-
(1)    इतिहास बतलाता है कि 1253 में जब अमीर ख़ुसरो पैदा हुए, पटियाली में प्रायः जंगल था। वहाँ न तो बादशाही क़िला था, और न बस्ती। आस-पास के बाग़ी राजपूतों को दबाने के लिए क़िला बाद में बना और तभी बस्ती भी बसी। ऐसी स्थिति में वहाँ अमीर ख़ुसरो के पैदा होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
(2)    उस काल की प्रसिद्ध इतिहास-पुस्तक ‘तबकात-ए-नासिर’ (मेहनाज सराज़-लिखित) में ख़ुसरो के विषय में काफ़ी कुछ है, किन्तु इनके पटियाली में जनमने की बात नहीं है।
(3)    ख़ुसरो अपने काल में अपनी फ़ारसी शायरी के लिए फ़ारस (ईरान) में भी प्रसिद्ध हो गए थे। वहाँ के प्रसिद्ध साहित्यिक इतिहासों में उनका नाम आता है, जिसमें उनकी पैदाइश दिल्ली लिखी गयी है। वहाँ के प्रसिद्ध कवियों में शैख़ सादी से लेकर अब्बास इक़बाल तक सभी ने उन्हें ‘ख़ुसरो देहलवी’ कहा है। उनके नाम के साथ ‘देहलवी’ का जोड़ा जाना, स्पष्ट ही इसी मान्यता पर आधारित है कि वे देहली में पैदा हुए थे।
(4)    ख़ुसरो के नाना दिल्ली में रहते थे तथा वे एक नवमुस्लिम (नये-नये बने मुसलमान) राजपूत थे जिनका नाम रावल अमादुलमुल्क था। उन्होंने धर्म तो इस्लाम अपनाया था, किन्तु उनके घर के रीति-रिवाज पूरी तरह हिन्दुओं के ही थे, जिनमें प्रायः पहला बच्चा स्त्री के मायके में ही होता है। ख़ुसरो के पिता लाचीन क़बीले के थे। लाचीन लोगों में भी यह परम्परा थी। इस तरह अधिक संभव यही है कि वे अपने माँ के सबसे बड़े बेटे होने के कारण अपने नाना के घर अर्थात् दिल्ली में ही पैदा हुए थे।
(5)    यह बात कई जगह आई है कि पैदाइश के बाद अमीर ख़ुसरो के पिता उन्हें बुर्के में लपेटकर किसी सूफ़ी संत के पास ले गये थे तथा उस संत ने शिशु ख़ुसरो को देखकर कहा कि यह एक ख़ाकानी (ईरान के अत्यन्त प्रसिद्ध कवि) से भी बड़ा होगा और क़यामत तक इसका नाम रहेग़ा। लोगों का अनुमान है कि ये सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया थे, जो दिल्ली में रहते थे। इस बात से भी उनकी पैदाइश दिल्ली में ही होने की बात सिद्ध होती है।
(6)    प्रायः व्यक्ति का अपने जन्म-स्थान से विशेष लगाव होता है। ख़ुसरो का इस तरह का लगाव दिल्ली से ख़ूब था। उनके साहित्य में स्थान-स्थान पर इस बात के संकेत हैं। वे जब भी दिल्ली छोड़कर अयोध्या, पटियाली, लखनौती, मुल्तान या कहीं और गए, जल्द-से-जल्द लौट आये तथा जब भी बाहर रहे, दिल्ली उन्हें बार-बार याद आती रही। दिल्ली से उनका लगाव इतना ज़्यादा था कि उन्होंने ‘मसनवी कुरान्स्सादैन’ नाम की एक मनसवी दिल्ली की विशेषताओं से विशेष रूप से संबंध लिखी, जिसे इसी कारण ‘मसनवी दर सिफ़त-ए-देहली’ भी कहते हैं। इसमें दिल्ली के लिए ‘अदन की जन्नत’, ‘दिल की रानी’, ‘आँख का नशा’, ‘फिरदोस-ए-पाक’, ‘बाग़-ए-अरम’, ‘जन्नत की हरियाली’ तथा ‘चाँद की कमंद’ जैसी अभिव्यक्तियों का प्रयोग है। अपने जीवन के परवर्ती भाग में क़िला बन जाने के बाद उन्हें पटियाली भी जाना पड़ता था, किन्तु यह जगह उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं थी। इसीलिए उन्होंने एक ओर जहाँ दिल्ली की ख़ूबियों को लेकर एक मसनवी लिखी तो दूसरी मसनवी ‘शिकायतनामा मोमिनपुर पटियाली’ लिखी जिसमें पटियाली की शिकायतें हैं। यों इसमें अफ़गानों की ज़्यादतियों का वर्णन है तथा इसमें भी उन्होंने बार-बार दिल्ली को बड़ी ललक से याद किया है।
(7)    उनके पिता का संबंध भी कभी पटियाली से नहीं रहा, अतः यदि वे अपने नाना के यहाँ नहीं भी पैदा हुए हों तो पटियाली में तो पैद नहीं ही हुए थे। उनके पिता भी बाहर से आकर ही दल्ली में बसे थे। प्रसिद्ध इतिहासकार दौलतशाह समरकंदी ने अमीर ख़ुसरो के पिता को ‘दिल्लीवाला’ कहा है।
(8)    ख़ुसरो के जो हिंदी छन्द आज मिलते हैं, उनकी भाषा या तो दिल्ली की खड़ी बोली है या अवधी। दिल्ली में वे पैदा हुए, बड़े हुए, पढ़े-लिखे तथा रहे भी। इस तरह यहाँ कि भाषा उनकी मातृभाषा है, अतः काफ़ी कुछ इसीमें से लिखा है। इसके अतिरिक्त अवध में भी। अयोध्या तथा लखतौनी में वे रहते रहे अतः अवधी में भी लिखा है। मगर पटियाली वे जाते तो रहे, किन्तु वह जगह उन्हें न रुची, न वहाँ की बोली ही वे अपना सके। कहना न होगा कि पटियाली में ब्रज बोली जाती है।
इसीलिए उनकी रचनाओं में से कोई भी ब्रज भाषा नहीं है।
(9)    अमीर ख़ुसरो पर पुस्तक लिखने वाले एक लेखक1 ने यह भी लिखा है कि स्वयं अमीर ख़ुसरो ने यह लिखा है कि दिल्ली उनका ‘वतन-ए-अस्ल’ है, किंतु इस बात का उन्होंने संदर्भ नहीं दिया कि ख़ुसरो ने किस पुस्तक में और कहाँ यह बात कही है। संभव है कि कहीं उन्होंने ऐसा कहा हो। हालाँकि यदि कहीं स्वयं ख़ुसरो ने यह बात कही होती तो उस अन्तःसाक्ष्य के आधार पर बहुत पहले से उनकी पैदाइश भारत में भी लोग, दिल्ली में ही मानते होते, क्योंकि उनकी रचनाओं को लोग काफ़ी पहले से पढ़ते रहे हैं। यों यदि सचमुच उन्होंने ऐसा लिखा है तब तो दिल्ली में पैदा होने की बात संभावना न होकर एक सच्चाई मानी जा सकती है। दिल्ली में उनका जन्म-स्थान मानने वाले यह भी कहते रहे हैं कि ख़ुसरो का पैतृक घर दिल्ली दरवाज़े के पास ‘नमक सराय’ में था।
जन्म-तिथि
विभिन्न पुस्तकों में ख़ुसरो का जन्म 1252, 1253, 1254, या 1255 ई. दिया गया है। वस्तुतः उनका जन्म हिज्री में हुआ था जो ईसवी सन् में 1253-54 पड़ता है।
नाम
ख़ुसरो का यथार्थ नाम ‘ख़ुसरो’ न था। इनके पिता ने इनका नाम ‘अबुल हसन’ रखा था। ‘ख़ुसरो नाम इनका तख़ल्लुस या उपनाम था। किन्तु आगे चलकर इनका यह उपनाम ही इतना प्रसिद्ध हुआ कि लोग इनका यथार्थ नाम भूल गये।
‘अमीर खुसरो’ में ‘अमीर’ शब्द का भी अपना अलग इतिहास है। यह भी इनके नाम का मूल अंश नहीं है। जलालुद्दीन ख़िलजी ने इनकी कविता से प्रसन्न हो इन्हें ‘अमीर’ का ख़िताब दिया और तब से ये ‘मलिक्कुशोअरा अमीर ख़ुसरो ‘ कहे जाने लगे।
माता-पिता और भाई
ख़ुसरो की माँ एक ऐसे परिवार की थीं जो मूलतः हिन्दू था तथा इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। इनकी मातृभाषा हिंदी थी। इनके नाना का नाम रावल एमादुलमुल्क था। ये बाद में नवाब एमादुलमुल्क के नाम से प्रसिद्ध हुए तथा बलबन के युद्धमंत्री बने। ये ही मुसलमान बने थे। यों मुलमान बनने के बावजूद इनके घर में सारे-रस्मो-रिवाज हिन्दुओं के थे। ये दिल्ली में ही रहते थे। ख़ुसरो के पिता सफ़ुद्दीन महमूद तुर्किस्तान के लाचीन क़बीले के एक सरदार थे। मुगलों के अत्याचार से तंग आकर ये 13वीं सदी में भारत आये। भारत में आकर ये कहाँ बसे, इस संबंध में मतभेद है। कुछ लोग जो, ख़ुसरो की जन्मभूमि पटियाली में मानते हैं, यह भी मानते हैं कि ख़ुसरो के पिता भारत में आकर पटि्याली में बसे। किंतु यह बात बहुत तर्कसंगत नहीं कि बीच में लाहौर, दिल्ली जैसे स्थानों को छोड़कर पटियाली जा बसे जहाँ उस समय जंगल था तथा बस्ती भी नहीं थी ऐसी स्थिति में यह ठीक बात लगती है कि वे दिल्ली में आकर बसे। (पीछे इस बात पर कुछ विस्तार से विचार किया जा चुका है।) ये एक वीर योद्धा थे तथा अल्तुतमश ने अपने दरबार में इन्हें ऊँचे पद पर नियुक्त किया था। इनका वार्षिक वेतन बारह सौ तनका (चाँदी का एक पुराना सिक्का) था।
कुछ लोगों के अनुसार ये कुल तीन भाई थे। सबसे बड़े इज़्ज़ुदीन आलीशाह जो अरबी-फ़ारसी के विद्वान थे, दूसरे हिसामुद्दीन जो अपने पिता की तरह योद्धा थे और तीसरे अबुल हसन जो कवि थे तथा आगे चलकर जो ‘अमीर ख़ुसरो’ नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ लोग ख़ुसरो को छोटा न मानकर बीच का भाई भी मानते हैं तथा हिसामुद्दीन को छोटा भाई। अधिक प्रामाणिक मत यह है कि ये दो भाई ही थे तथा अमीर ख़ुसरो ही बड़े थे। इनके भाई जिन्हें कुछ लोगों ने इज़्ज़ुदीन अलीशाह तथा कुछ लोगों ने अजीज़ अलाउद्दीन शाह कहा है वस्तुतः इनके मित्र थे और उस काल के प्रसिद्ध कातिब थे। ख़ुसरो उन्हें बड़ा भाई जैसा मानते थे। कुछ लोगों के अनुसार इनका नाम अलाउद्दीन ऐशा था। इनके छोटे भाई हिसामुद्दीन (कुछ लोगों के अनुसार क़तलग़ हिसामुद्दीन) थे।
ख़ुसरो के पिता का नाम कुछ लोगों ने ‘लाचीन’ कहा है, किंतु वस्तुतः यह उनके क़बीले या वंश का नाम था, उनका नाम नहीं। उनके पिता का नाम जैसा कि हम पीछे देख चुके हैं, सैफ़ुद्दीन महमूद था। ऐसे ही उनके पिता को ‘अमीर बलख़’, ‘अमीर गज़नी’ तथा ‘अमीर हज़ारा लाचीन’ आदि भी कहा गया है।
विद्या और गुरु
‘गुर्रतल कमाल’ की भूमिका में ख़ुसरो ने अपने पिता को ‘उम्मी’ अर्थात् ‘अनपढ़’ कहा है, किन्तु ऐसा अनुमान लगता है कि अनपढ़ बाप ने अपने बेटे के पढ़ने-लिखने का अच्छा प्रबन्ध किया था। वे बचपन से ही मदरसे जाने लगे थे। उन दिनों सुन्दर लेखन पर काफ़ी बल दिया जाता था। अमीर ख़ुसरो को सुलेख का अभ्यास मौलाना सादुद्दीन ने कराया था। यों सुलेख आदि में उनका मन लगता नहीं था, और बहुत कम उम्र से ही वे काव्य में रुचि लेने लगे थे। 10 वर्ष की उम्र में उन्होंने काव्य रचना प्रारम्भ कर दी थी।
ख़ुसरो ने सच्चे अर्थों में किसी को अपना काव्य-गुरु कदाचित् नहीं बनाया। दीबाचतुसिग्र में उन्होंने स्वयं संकेत किया है कि किसी अच्छे कवि को वे अपना उस्ताद न बना सके जो ठीक से उन्हें शायरी का रास्ता बताए तथा काव्य-दोषों के प्रति सावधान करे। किन्तु किसी स्तर पर किसी शहाबुद्दीन नामक व्यक्ति से जो कदाचित् कवि तो बड़े न थे, किन्तु विद्वान थे, उन्होंने अपनी ‘हश्त बिहिस्त’ नामक कृति का संशोधन कराया था। उस पुस्तक के अन्त में इस बात का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि शहाबुद्दीन ने एक दुश्मन की तरह उनकी ग़लतियों को देखा और एक दोस्त की भांति ख़ुसरो की सराहना की। ‘ग़ुर्रत्तुल कमाल’ में भी उनका उल्लेख है। ये शहाबुद्दीन कौन थे, इस सम्बन्ध में विवाद है और सनिश्चय कहना कुछ कठिन है। एक शहाबुद्दीन का पता तत्कालीन साहित्य से चलता है किन्तु वे कदाचित् ख़ुसरो के समकालीन न होकर उनके कुछ पहले हुए थे।
ख़ुसरो ने काव्य के क्षेत्र में शिक्षा किसी व्यक्ति से न लेकर सादी, सनाई, ख़ाकानी, अनवरी तथा कमाल आदि के काव्य-ग्रन्थों से ली। विशेषतः ख़ाकानी, सनाई और अनवरी का तो उनकी कई रचनाओं तथा कृतियों पर स्पष्ट प्रभाव है।
धर्म के क्षेत्र में, जैसा कि प्रसिद्ध है, उनके गुरु हज़रत निजामुद्दीन औलिया थे आठ वर्ष की उम्र में ही अपने पिता के साथ ख़ुसरो उनके पास गये थे तथा उनके शिष्य हो गये थे।
ज्ञान
ख़ुसरो की हिन्दी फारसी, तुर्की, अरबी तथा संस्कृत आदि कई भाषाओं में गति थी, साथ ही दर्शन, धर्मशास्त्र, इतिहास, युद्ध-विद्या व्याकरण, ज्योतिष संगीत आदि का भी उन्होंने अध्ययन किया था। इतने अधिक विषयों में ज्ञानार्जन का श्रेय ख़ुसरो कि विद्या-व्यसनी प्रकृति एवं प्रवृत्ति को तो है ही, साथ ही पिता की मृत्यु के बाद नाना एमादुलमुल्क के संरक्षण को भी है, जिनकी सभा में कवि, विद्वान एवं संगीतज्ञ आदि प्रायः आया करते थे, जिनमें ख़ुसरो को सहज ही सत्संग-लाभ का अवसर मिला करता था।
विवाह तथा सन्तान
ख़ुसरो के विवाह के सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु यह निश्चित है कि उनका विवाह हुआ था। उनकी पुस्तक ‘लैला मजनू’ से पता चलता है कि उनके एक पुत्री थी, जिसका तत्कालीन सामाजिक प्रवृत्ति के अनुसार उन्हें दुःख था। उन्होंने उक्त ग्रन्थ में अपनी पुत्री को सम्बोधित करके कहा है कि या तो तुम पैदा न होतीं या पैदा होतीं भी तो पुत्र रूप में। एक पुत्री के अतिरिक्त, उनके तीन पुत्र भी थे, जिनमें एक का नाम मलिक अहमद था। यह कवि था और सुल्तान फ़ीरोजशाह के दरबार से इसका सम्बन्ध था।
मृत्यु
ख़ुसरो को अपने गुरु हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के प्रति बहुत ही श्रद्धा-भाव और स्नेह था। जिन दिनों वे अपने अन्तिम आश्रयदाता गयासुद्दीन तुग़लक के साथ बंगाल आक्रमण पर गये हुए थे, हज़रत निज़ामुद्दीन का देहान्त हो गया। ख़ुसरो को जब समाचार मिला तो वह बेहद दुखी हुए और तुरन्त दिल्ली लौटे। कहा जाता है आते ही काले कपड़े पहन वे अपने गुरु की समाधि पर गए और यह छन्द-
गोरी सेवे सेज पर डारे केस।
चल ख़ुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस।
कहकर बेहोश हो गए। गुरु की मृत्यु का ख़ुसरो को इतना दुःख हुआ कि वे इस सदमें को बर्दाश्त न कर सके और छः महीने के भीतर ही उनकी इहलीला समाप्त हो गयी। उनकी मृत्यु-सन 725 हिज़री माना जाता है, जो ईसवी सन् में 1324-25 है।
देश-प्रेम
ख़ुसरो में देश-प्रेम कूट-कूट कर भरा था। उन्हें अपनी मात्रभूमि भारत पर गर्व था। ‘नुह सिपहर’ में भारतीय पक्षियों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि यहाँ की मैना के समान अरब और ईरान में कोई पक्षी नहीं है। इसी प्रकार भारतीय मोर की भी उन्होंने बहुत प्रशंसा की है। उनकी रचनाओं में कई स्थानों पर भारतीय ज्ञान, दर्शन, अतिथि-सत्कार, फूलों-वृक्षों, रीति-रिवाजों तथा सौन्दर्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा मिलती है। वे अपने को बड़े गर्व के साथ हिन्दुस्तानी तुर्क कहा करते थे। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है-
तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब
(अर्थात् मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ।)
एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं, ‘मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो, तो हिंदवी में पूछो, मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा।’ इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि फ़ारसी के इतने बड़े कवि होते हुए भी अपनी मातृभाषा ‘हिन्दवी’ का उन्हें कम गर्व न था। ‘नुह सिपहर’ में एक स्थल पर ख़ुसरो ने संस्कृत को फ़ारसी से बढ़कर कहा है :
वींस्त ज़बानी का सिफ़ते दरदरी
कमतरज़ अरबी व बेहतरज़ दरी
जीविका और आश्रय
साहित्यकार प्रायः बहुत व्यवहारिक या सांसारिक दृष्टि से बहुत सफल नहीं होते, किन्तु ख़ुसरो अपवाद थे। जन्मजात कवि होते हुए भी व्यवहारिकता की उनमें कमी नहीं थी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उनके आश्रयदाता की हत्या कर राजसत्ता हथियाने वाले ने उन्हें उसी स्नेह से अपना कृपापात्र बनाया। प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक के मन में ख़ुसरो के प्रति एक शंका रही है और अब भी है। वे बहुत बड़े सूफ़ी माने जाते हैं और कदाचित् थे भी, किन्तु इस बात का क्या समाधान हो सकता है कि कोई सूफ़ी किसी आश्रयदाता की जी खोलकर प्रसंशा करता हो, उसके प्रति स्नेह रखता हो, किन्तु उस आश्रयदाता की हत्या कर राजसत्ता के हथियाने वाले के गद्दी पर बैठते ही उसी स्वर में उस हत्यारे की भी वह प्रसंशा करने लगे। ऐसा कोई तभी कर सकता है, जब उसे अपने सूफ़ीत्व से अधिक अपनी जीविका और आश्रय की चिन्ता हो।
ख़ुसरो नासिरुद्दीन के ज़माने में पैदा हुए थे। लगभग 20 वर्ष की उम्र तक आते-आते कवि रूप में उनकी काफ़ी प्रसिद्धि हो गयी। उस समय के पूर्व इन्हें किसी आश्रय की आवश्यकता नहीं थी। वे अपने नाना के साथ रहते थे। किन्तु उसी समय इनके नाना का देहान्त हो गया, अतः इनके सामने जीविका का प्रश्न आया। उस समय बहादुर ग़यासुद्दीन बलबन था। वह ख़ुसरो तथा उनकी काव्य-प्रतिभा से परिचित तो नहीं था-ख़ुसरो ने बलबन की प्रसंशा में लिखा भी-किन्तु साहित्यानुरागी न होने के कारण, ख़ुसरो की ओर उसने ध्यान नहीं दिया।
ख़ुसरो को पहला आश्रय बादशाह ग़यासुद्दीन के भतीजे अलाउद्दीन किशलू खाँ बारबक ने दिया। यह मलिक छज्जू के नाम से प्रसिद्ध था तथा कड़ा (इलाहाबाद) का हाकिम था। यों मलिक छज्जू के अतिरिक्त बलबन के चचेरे भाई अमीर अली सरजानदार तथा दिल्ली को कोतवाल फ़खरुद्दीन से भी उन्हें सहायता मिली थी।
 मलिक छज्जू के यहाँ ख़ुसरो दो वर्ष तक ही रुके थे, कि एक घटना ने उनको दूसरा आश्रय ढूँढ़ने को मजबूर कर दिया। हुआ यह कि एक दिन मलिक छज्जू के दरबार में बलबन के दूसरे पुत्र नासिरुद्दीन बुग़रा खाँ तथा कई अन्य लोग आये हुए थे। ख़ुसरो की कविता से प्रसन्न हो बुग़रा खाँ ने उन्हें चाँदी के थाल में रुपये भरकर उन्हें पुरस्कार रूप में दिया। ख़ुसरो ने बुग़रा खाँ की प्रसंशा में कसीदा कहा। मलिकत छज्जू इस पर नाराज हो गया। ख़ुसरो ने उसे खुश करने की बहुत कोशिश की किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। बल्कि वह ख़ुसरो को सजा भी देना चाहता था, किन्तु ख़ुसरो स्थिति को भाँप कर भाग निकले और अन्त में बुगरा खाँ को अपना आश्रयदाता बनाया। बुग़रा खाँ ‘सामाना’ में बलबन की छावनी के शासक थे। उन्होंने ख़ुसरो का उचित आदर-सत्कार किया तथा अपना ‘नदीम ख़ास’ (मुख्य साथी या मित्र) बनाकर रखा।
वहाँ ख़ुसरो कुछ ही दिन तक रुक पाये थे कि लखनौती के शासक तुग़रल ने विद्रोह कर दिया। दो बार बलबन की सेना उससे हारकर लौट आयी तो वह स्वयं बुग़रा खाँ को साथ ले चल पड़ा। ख़ुसरो भी साथ गए। बरसात के दिन थे बड़ा कष्ट हुआ। अन्त में तुगरल मारा गया और बुग़रा खाँ लखनौती और बंगाल का शासक बना दिया गया। किन्तु ख़ुसरो का दिल उधर नहीं लगा और वे बलबन के साथ दिल्ली लौट आए।
दिल्ली लौटने पर बलबन ने अपनी जीत के उपलक्ष्य में उत्सव मनाया। उसका बड़ा लड़का सुल्तान मुहम्मद-जो मुल्तान का हाकिम था-भी उत्सव में सम्मिलति हुआ। ख़ुसरो को अब दूसरे आश्रयदाता  की आवश्यकता थी। उन्होंने सुल्तान मुहम्मद को अपनी कविताएँ सुनायीं। उसने इनकी कविताएँ बहुत पसन्द कीं और इन्हें अपने साथ मुल्तान ले गया। वहाँ सूफ़ी साधुओं एवं कवियों का अच्छा जमघट था। ख़ुसरो के नीचे एक प्रसिद्ध कवि सैय्यद हसन सिजज़ी थे जो ख़ुसरो के अच्छे मित्र बन गये थे। कुछ लोग गज़ल में इन्हें ख़ुसरो से भी अच्छा मानते हैं। ख़ुसरो के आश्रयदाताओं में सुल्तान अहमद सर्वाधिक साहित्य-व्यसनी एवं कलानुरागी थे, किन्तु ख़ुसरो का जी वहाँ कभी नहीं लगा। वे वहाँ पाँच वर्षों तक रहे, किन्तु प्रतिवर्ष दिल्ली आते रहे। अन्तिम वर्ष मुगलों ने मुल्तान पर हमला कर दिया। बादशाह के साथ ख़ुसरो भी लड़ाई में सम्मिलित हुए। बादशाह तो मारे गए और ख़ुसरो बन्दी बना लिए गए तथा हिरात और बलख़ से ले जाए गए। दो वर्ष बाद किसी प्रकार अपने कौशल और साहस के बल वे शत्रुओं के पंजे से छूटकर लौट सके। कहा जाता है कि लौटने पर वे ग़यासुद्दीन बलबन के दरबार में गये और सुल्तान मुहम्मद की मृत्यु पर बड़ा कड़ा मर्शिया पढ़ा, जिसे सुन बादशाह इतना रोये कि उन्हें बुखार आ गया, और तीसरे दिन उनका देहान्त हो गया।
इसके बाद ख़ुसरो दो वर्षों तक अवध को सूबेदार अमीर अली सरजाँदार के यहाँ रहे और 1288 ई. में दिल्ली लौट आए। कहा जाता है कि ‘अस्पनामा’ पुस्तक इन्हीं अमीर के लिए ख़ुसरो ने लिखी थी। बुग़रा खाँ के पुत्र मुइजुद्दीन क़ैकूबाद जब गद्दी पर बैठे तो बाप-बेटे में एक बात पर अनबन हो गयी और अन्त में दोनों में युद्ध की नौबत आ गयी। किन्तु अमीर अली सरजाँदार तथा कुछ लोगों के अनुसार ख़ुसरो-जो वहाँ उपस्थित थे-के बीच-बचाव के कारण संघर्ष टल गया और समझौता हो गया। बाप-बेटा मिल गए। क़ैकूबाद ने ख़ुसरो को राज्यसम्मान दिया और उसने बाप-बेटे के मिलन पर एक मसनवी लिखने को कहा। ख़ुसरो ने मनसवी किरानुस्सादैन (=बाप-बेटे का मिलन) इन्हीं के कहने पर लिखनी शुरू की, जो छः महीनों में पूरी हुई।

चंदबरदाई


जन्म – संवत 1205 तदनुसार 1148 ईस्वी में।             
मृत्यु – संवत 1249 तदनुसार 1191 ईस्वी में।
रचनाएँ -” पृथ्वीराज रासो ” – दो भागों में नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित।
चंदबरदाई को हिंदी का पहला कवि और उनकी रचना पृथ्वीराज रासो को हिंदी की पहली रचना होने का सम्मान प्राप्त है। पृथ्वीराज रासो हिंदी का सबसे बड़ा काव्य-ग्रंथ है। इसमें 10,000 से अधिक छंद हैं और तत्कालीन प्रचलित 6 भाषाओं का प्रयोग किया गया है। इस ग्रंथ में उत्तर भारतीय क्षत्रिय समाज व उनकी परंपराओं के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है, इस कारण ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका बहुत महत्व है। वे भारत के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय के मित्र तथा राजकवि थे। पृथ्वीराज ने 1165 से 1192 तक अजमेर व दिल्ली पर राज किया। यही चंदबरदाई का रचनाकाल था।
११६५ से ११९२ के बीच जब पृथ्वीराज चौहान का राज्य अजमेर से दिल्ली तक फैला हुआ था, उसके राज कवि चंद बरदाई ने पृथ्वीराज रासो की रचना की। यह हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना जा सकता है। इस महाकाव्य में पृथ्वीराज चौहान के जीवन और चरित्र का वर्णन किया गया है। चंद बरदाई पृथ्वीराज के बचपन के मित्र थे और उनकी युद्ध यात्राओं के समय वीर रस की कविताओं से सेना को प्रोत्साहित भी करते थे।
पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है जिसमें ६९ समय (सर्ग या अध्याय) हैं। प्राचीन समय में प्रचलित प्रायः सभी छंदों का इसमें व्यवहार हुआ है। मुख्य छन्द हैं – कवित्त (छप्पय), दूहा(दोहा), तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या। जैसे कादंबरी के संबंध में प्रसिद्ध है कि उसका पिछला भाग बाण भट्ट के पुत्र ने पूरा किया है, वैसे ही रासो के पिछले भाग का भी चंद के पुत्र जल्हण द्वारा पूर्ण किया गया है। रासो के अनुसार जब शाहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज को कैद करके ग़ज़नी ले गया, तब कुछ दिनों पीछे चंद भी वहीं गए। जाते समय कवि ने अपने पुत्र जल्हण के हाथ में रासो की पुस्तक देकर उसे पूर्ण करने का संकेत किया। जल्हण के हाथ में रासो को सौंपे जाने और उसके पूरे किए जाने का उल्लेख रासो में है –
                                पुस्तक जल्हण हत्थ दै चलि गज्जन नृपकाज ।
                                रघुनाथनचरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्धरिय जिमि ।
                                पृथिराजसुजस कवि चंद कृत चंदनंद उद्धरिय तिमि ।।
रासो में दिए हुए संवतों का ऐतिहासिक तथ्यों के साथ अनेक स्थानों पर मेल न खाने के कारण अनेक विद्वानों ने पृथ्वीराजरासो के समसामयिक किसी कवि की रचना होने में संदेह करते है और उसे १६वीं शताब्दी में लिखा हुआ ग्रंथ ठहराते हैं। इस रचना की सबसे पुरानी प्रति बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय मे मिली है कुल ३ प्रतिया है। रचना के अन्त मे पॄथ्वीराज द्वारा शब्द भेदी बाण चला कर गौरी को मारने की बात भी की गयी है।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, चन्द वरदाई आदिकाल के श्रेष्ठ कवि थे। उनका जीवन काल बारहवीं शताब्दी में था। एक उत्तम कवि होने के साथ, वह एक कुशल योद्धा और राजनायक भी थे। वह पृथ्वीराज चौहान के अभिन्न मित्र थे। उनका रचित महाकाव्य “पृथ्वीराज रासो” हिन्दी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है। इस महाकाव्य में ६९ खण्ड हैं और इसकी गणना हिन्दी के महान ग्रन्थों में की जाती है। चन्द वरदाई के काव्य की भाषा पिंगल थी जो कालान्तर में बृज भाषा के रूप में विकसित हुई। उनके काव्य में चरित्र चित्रण के साथ वीर रस और श्रृंगार रस का मोहक समन्वय है। किन्तु पृथ्वीराज रासो को पढ़ने से ज्ञात होता है कि महाराजा पृथ्वीराज चौहान ने जितनी भी लड़ाइयाँ लड़ीं, उन सबका प्रमुख उद्देश्य राजकुमारियों के साथ विवाह और अपहरण ही दिखाई पड़ता है। इंछिनी विवाह, पह्मावती समया, संयोगिता विवाह आदि अनेकों प्रमाण पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज की शृंगार एवं विलासप्रियता की ओर भी संकेत करते हैं।  पृथ्वीराज रासो के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं–
पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान।
ता उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥

मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय।
बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥

बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय।
हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥

छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय।
पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ काम-कामिनि रचिय॥

मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास।
पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर नर, मुनियर पास॥

सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान।
जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥

सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास।
कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयो हुलास॥

मन अति भयौ हुलास, बिगसि जनु कोक किरन-रबि।
अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि॥

यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरंप्पि झर।
चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर॥

हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय।
पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय॥

तिहि महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल।
चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढ़ावत फुल्ल॥

कीर कुंवरि तन निरषि दिषि, नष सिष लौं यह रूप।
करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप॥

कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचयित पिक्क सद।
कमल-गंध, वय-संध, हंसगति चलत मंद मंद॥

सेत वस्त्र सोहे सरीर, नष स्वाति बूँद जस।
भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥

नैनन निरषि सुष पाय सुक, यह सुदिन्न मूरति रचिय।
उमा प्रसाद हर हेरियत, मिलहि राज प्रथिराज जिय॥

(चंदबरदाई कॄत पॄथ्वीराजरासो से उद्धॄत)

“क्या पृथ्वीराज चौहान के बारे में हम सिर्फ़ इतना ही जानते है

कि स्वयंवर के दौरान संयोगिता का हरण किया

और शब्द बेधी बाण चलाने में माहिर और जयचंद के साथ बैर।”

जगनिक का आल्हाखण्ड


कालिंजर के राजा परमार के आश्रय मे जगनिक नाम के एक कवि थे, जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल(उदयसिंह)- के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे उत्तरी भारत में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे-हो गया। जगनिक के काव्य का कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषाभाषी प्रांतों के गांव-गांव में सुनाई देते हैं। ये गीत ‘आल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाये जाते हैं। गावों में जाकर देखिये तो मेघगर्जन के बीच किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह हुंकार सुनाई देगी-
बारह बरिस लै कूकर जीऐं ,औ तेरह लौ जिऐं सियार,
बरिस अठारह छत्री जिऐं ,आगे जीवन को धिक्कार।
इस प्रकार साहित्यिक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीरदर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इस दीर्घ कालयात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है। देश और काल के अनुसार भाषा में ही परिवर्तन नहीं हुआ है,वस्तु में भी बहुत अधिक परिवर्तन होता आया है। बहुत से नये अस्त्रों ,(जैसे बंदूक,किरिच), देशों और जातियों (जैसे फिरंगी) के नाम सम्मिलित होते गये हैं और बराबर हो जाते हैं। यदि यह साहित्यिक प्रबंध पद्धति पर लिखा गया होता तो कहीं न कहीं राजकीय पुस्तकालयों में इसकी कोई प्रति रक्षित मिलती। पर यह गाने के लिये ही रचा गया था । इसमें पंडितों और विद्वानों के हाथ इसकी रक्षा के लिये नहीं बढ़े, जनता ही के बीच इसकी गूंज बनी रही-पर यह गूंज मात्र है मूल शब्द नहीं।
आल्हा का प्रचार यों तो सारे उत्तर भारत में है पर बैसवाड़ा इसका केन्द्र माना जाता है,वहाँ इसे गाने वाले बहुत अधिक मिलते हैं। बुंदेलखंड में -विशेषत: महोबा के आसपास भी इसका चलन बहुत है। आल्हा गाने वाले लोग अल्हैत कहलाते हैं।
इन गीतों के समुच्चय को सर्वसाधारण ‘आल्हाखंड’ कहते हैं जिससे अनुमान मिलता है कि आल्हा संबंधी ये वीरगीत जगनिक के रचे उस काव्य के एक खंड के अंतर्गत थे जो चंदेलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया होगा। आल्हा और उदल परमार के सामंत थे और बनाफर शाखा के छत्रिय थे।इन गीतों का एक संग्रह ‘आल्हाखंड’ के नाम से छपा है। फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि.चार्ल्स इलियट ने पहले पहल इनगीतों का संग्रह करके छपवाया था।
आल्हाखंड में तमाम लड़ाइयों का जिक्र है। शुरूआत मांडौ़ की लड़ाई से है। माडौ़ के राजा करिंगा ने आल्हा-उदल के पिता जच्छराज-बच्छराज को मरवा के उनकी खोपड़ियां कोल्हू में पिरवा दी थीं। उदल को जब यह बात पता चली तब उन्होंने अपने पिताकी मौत का बदला लिया तब उनकी उमर मात्र १२ वर्ष थी।
आल्हाखंड में युद्ध में लड़ते हुये मर जाने को लगभग हर लड़ाई में महिमामंडित किया गया है:-
मुर्चन-मुर्चन नचै बेंदुला,उदल कहैं पुकारि-पुकारि,
भागि न जैयो कोऊ मोहरा ते यारों रखियो धर्म हमार।
खटिया परिके जौ मरि जैहौ,बुढ़िहै सात साख को नाम
रन मा मरिके जौ मरि जैहौ,होइहै जुगन-जुगन लौं नाम।
अपने बैरी से बदला लेना सबसे अहम बात माना गया है:-
‘जिनके बैरी सम्मुख बैठे उनके जीवन को धिक्कार।’
इसी का अनुसरण करते हुये तमाम किस्से उत्तर भारत के बीहड़ इलाकों में हुये जिनमें लोगों ने आल्हा गाते हुये नरसंहार किये या अपने दुश्मनों को मौत के घाट उतारा।
पुत्र का महत्व पता चला है जब कहा जाता है:-
जिनके लड़िका समरथ हुइगे उनका कौन पड़ी परवाह!
स्वामी तथा मित्र के लिये कुर्बानी दे देना सहज गुण बताये गये हैं:-
जहां पसीना गिरै तुम्हारा तंह दै देऊं रक्त की धार।
आज्ञाकारिता तथा बड़े भाई का सम्मान करना का कई जगह बखान गया है।इक बार मेले में आल्हा के पुत्र इंदल का अपहरण हो जाता है। इंदल मेले में उदल के साथ गये थे। आल्हा ने गुस्से में उदल की बहुत पिटाई की:-
हरे बांस आल्हा मंगवाये औ उदल को मारन लाग।
ऊदल चुपचाप मार खाते -बिना प्रतिरोध के। तब आल्हा की पत्नी ने आल्हा को रोकते हुये कहा:-
हम तुम रहिबे जौ दुनिया में इंदल फेरि मिलैंगे आय
कोख को भाई तुम मारत हौ ऐसी तुम्हहिं मुनासिब नाय।
यद्यपि आल्हा में वीरता तथा अन्य तमाम बातों का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन है तथापि मौखिक परम्परा के महाकाव्य आल्हाखण्ड का वैशिष्ट्य बुन्देली का अपना है। महोवा १२वीं शती तक कला केन्द्र तो रहा है जिसकी चर्चा इस प्रबन्ध काव्य में है। इसकी प्रामाणिकता के लिए न तो अन्तःसाक्ष्य ही उपादेय और न बर्हिसाक्ष्य। इतिहास में परमार्देदेव की कथा कुछ दूसरे ही रुप में है परन्तु आल्हा खण्ड का राजा परमाल एक वैभवशाली राजा है, आल्हा और ऊदल उसके सामन्त है। यह प्रबन्ध काव्य समस्त कमजोरियों के बावजूद बुन्देलों जन सामान्य की नीति और कर्तव्य का पाठ सिखाता है। बुन्देलखण्ड के प्रत्येक गांवों में घनघोर वर्षा के दिन आल्हा जमता है।
भरी दुपहरी सरवन गाइये, सोरठ गाइये आधी रात।
आल्हा पवाड़ा वादिन गाइये, जा दिन झड़ी लगे दिन रात।।
आल्हा भले ही मौखिक परम्परा से आया है, पर बुन्देली संस्कृति और बोली का प्रथम महाकाव्य है, जगनिक इसके रचयिता है। भाषा काव्य में बुन्देली बोली का उत्तम महाकाव्य स्वीकार किया जाना चाहिए। बुन्देली बोली और उसके साहित्य का समृद्ध इतिहास है और भाषा काव्यकाल में उसकी कोई भी लिखित कृति उपलब्ध नहीं है।

दामोदर पंडित – उक्ति व्यक्ति प्रकरण


बारहवीं सदी में दामोदर पंडित ने “उक्ति व्यक्ति प्रकरण’ की रचना की। इसमें पुरानी अवधी तथा शौरसेनी – ब्रज – के अनेक शब्दों का उल्लेख प्राप्त है। बारहवीं शती के प्रारंभ में बनारस के दामोदर पंडित द्वारा रचित बोलचाल की संस्कृत भाषा सिखाने वाला ग्रंथ “उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण” से हिन्दी की प्राचीन कोशली या अवधी बोली के स्वरूप का कुछ बोध कराने में सहायता प्रदान करती हैं ।
हिन्दी भाषा के क्रमिक विकास एवं इतिहास के विचार से बारहवीं शती के प्रारम्भ में बनारस के दामोदर पंडित द्वारा रचित द्विभाषिक ग्रंथ ‘उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण’ का विशेष महत्त्व है । यह ग्रंथ हिन्दी की पुरानी कोशली या अवधी बोली बोलने वालों के लिए संस्कृत सिखाने वाला एक मैनुअल है, जिसमें पुरानी अवधी के व्याकरणिक रूपों के समानान्तर संस्कृत रूपों के साथ पुरानी कोशली एवं संस्कृत दोनों में उदाहरणात्मक वाक्य दिये गये हैं ।
उदाहरणस्वरूपः-
पुरानी कोशली संस्कृत
को ए ? कोऽयम् ?
काह ए ? किमिदम् ?
काह ए दुइ वस्तु ? के एते द्वे वस्तुनी ?
काह ए सव ? कान्येतानि सर्वाणि ?
तेन्ह मांझं कवण ए ? तयोस्तेषां वा मध्ये कतमोऽयम् ?
अरे जाणसि एन्ह मांझ कवण तोर भाई ? अहो जानास्येषां मध्ये कस्तव भ्राता ?
काह इंहां तूं करसि ? किमत्र त्वं करोषि ?
पअउं । पचामि ।
काह करिहसि ? किं करिष्यसि ?
पढिहउं । पठिष्यामि ।
को ए सोअ ? क एष स्वपिति ?
को ए सोअन्त आच्छ ? क एष स्वपन्नास्ते ?
अंधारी राति चोरु ढूक । अन्धकारितायां रात्रौ चौरो ढौकते ।

ढोला मारू रा दूहा


ढोला मारू रा दूहा  ग्यारहवीं शताब्दी मे रचित एक लोक-भाषा काव्य है। मूलतः दोहो में रचित इस लोक काव्य को सत्रहवीं शताब्दी मे कुशलराय वाचक ने कुछ चौपाईयां जोड़कर विस्तार दिया। इसमे राजकुमार ढोला और राजकुमारी मारू की प्रेमकथा का वर्णन है।
ढोला-मारू का कथानक
इस प्रेम वार्ता का कथानक, सूत्र में इतना ही है कि पूंगल का राजा अपने देश में अकाल पड़ने के कारण मालवा प्रान्त में, परिवार सहित जाता है। उसकी शिशु वय की राजकुमारी (मारवणी) का बाल-विवाह, मालवा के साल्हकुमार (ढोला) से कर दिया जाता है। सुकाल हो जाने से पूंगल का राजा लौट कर घर आ जाता है। साल्हकुमार वयस्क होने पर अपनी पत्नी को लिवाने नहीं जाता है। उसे इस बाल विवाह का ज्ञान भी नहीं होता है। इस बीच साल्हकुमार का विवाह मालवाणी से हो जाता है जो सुन्दर और पति-अनुरक् ता है। मालवणी को मारवणी (सौत) के होने का ज्ञान है और पूंगल का कोई संदेश अपने मालवा में आने नहीं देती है।
                                 कालांतर में मारवणी (मारू) अंकुरित यौवना होती है। उस पर यौवन अपना रंग दिखाता है। इधर स्वप्न में उसे प्रिय का दर्शन भी हो जाता है। पर्यावरण से सभी उपकरण उसे विरह का दारुण दु:ख देते हैं। पपिहा, सारस एवं कुञ्ज पक्षीगण को वह अपनी विरह व्यथा सम्बोधित करती है। पूंगल के राजा के पास एक घोड़ों का सौदागर आता है और मालवा के साल्हकुमार की बात करता है। यह सूचना सुनकर मारवणी और व्यथित हो जाती है। साल्हकुमार को बुलावा ढाढियों (माँगणहार) के द्वारा भेजा जाता है। यह गाने बजाने वाले चतुर ढाढी गन्तव्य स्थान पर पहुँचकर, साल्हकुमार (ढोला) को मारवणी की स्थिति का पूरा ज्ञान करा देते हैं। ढोला पूंगल हेतु प्रस्थान करना चाहता है परन्तु सौत मालवणी उसे बहाने बनाकर रोकती रहती है। मालवणी की ईर्ष्या, चिन्ता, उन्माद, कपट, विरह और असहाय अवस्था का वर्णन दूहों में विस्तार से हुआ है। अन्त में ढोला प्रस्थान कर ही देता है और पूंगल पहुँच जाता है। ढोला और मारवणी का मिलन होता है। सुख विलास में समय व्यतीत होता है।
                                                    फिर पति-पत्नी अपने देश लौटते हैं तो मार्ग में ऊमर-सूमरा के जाल से तो बच जाते हैं परन्तु एक नई विपदा उन्हें घेर लेती है। रात्रि को रेगिस्तान का पीवणा (सर्प) मारवणी को सूंघ जाता है। मारवणी के मृत-प्राय अचेतन शरीर को देखकर स्थिति विषम हो जाती है। विलाप और क्रन्दन से सारा वातावरण भर जाता है। तब शिव-पार्वती प्रकट होकर मारवणी को जीवित करते हैं। (इसी बीच एक योगी-योगिनी ने कहा कि वह मारु को जीवित कर सकते हैं। उन्होंने मारु को पुन: जीवनदान दिया।) दोनों फिर महल को लौटने लगे, तभी डकैतों का सरदार उन्हें मारने आ गया, लेकिन लोक गायकों ने उन्हें बचा लिया। अंतत: वे अपने महल लौट सके, अनेक दुखों के बाद एक सुखांत प्रेम कहानी बन सकी।
 ढोला मारू सकुशल अपने घर पहुंचते हैं। आनन्द से जीवन व्यतीत करते हैं। वहां पर चतुर ढोला, सौतिहा डाह की नोंक झोंक का समाधान भी करता है। मारवणी को अधिक प्यार व स्नेह समर्पित करता है।
इस लोक काव्य का क्या मूल रूप था ? यह खोजना कठिन है। जिस कथा का उत्स काल की पर्तों में खो गया हो, उसका आदि खोजना असम्भव-सा है। परन्तु प्रस्तुत ‘ढोला-मारू रा दूहा’ नामक कृति के जितने राजस्थानी परम्परा के रूपान्तर मिले हैं उनमें एक लाक्ष-णिक तथ्य उजागर होता जान पड़ता है। यदि विचारार्थ यह कह सकते है कि यह तो ‘प्रसंगात्मक गीतों’ का संग्रह है जिसमें प्रसंगों के कथा सूत्र को अथ से इति तक अक्षुण्ण रखने का ध्यान रखा गया है। यह कॄति मूल रूप से दोहो मे मिलती है। ये दोहे श्रॄंगार रस की जो परम्परा आरंभ करते है वही आगे जाकर बिहारी के दोहो मे प्रतिफलित होती है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस काव्य के भाव गाम्भीर्य को परिष्कॄत लोक-रूचि का प्रतीक माना है।

हिंदी मेरी पहचान हैं.






ज्ञान पहेलियां (बाल-साहित्य )





1

रात को नभ मे चमका करता जैसे चाँदी की इक थाली
चोर उच्चके लूट न पावें लौटे हरदम खाली


2


तीन अक्षर का नाम सुहाना काम सदा खिलकर मुस्काना
बीच कटे तो कल कहलाऊँ अत कटे तो कम हो जाऊँ


3


जो जाकर न वापस आये जाता भी वह नज़र न आये
सारे जग में उसकी चर्चा वह तो अति बलवान कहाये


4


राजा के राज्य मे नहीं माली के बाग मे नहीं
फोड़ो तो गुठली भी नहीं खाओ तो स्वाद नहीं


5

धूप लगे पैदा हो जाये छाह लगे मर जाये
करे परिश्रम तो भी उपजे हवा लगे मर जाये




6


एक बाग मे फूल अनेक उन फूलों का राजा एक
बगिया में जब राजा आये बगिया मे चाँदनी छा जाए




7


काली-काली साड़ी पहने मुखड़ा जिसका गोरा
लड़की नहीं न ही गोरी रोज लगाती हूँ मैं फेरा


8

जाड़ो मे जब गिरता हूँ मैं छा जाता है घोर अँधेरा
प्रथम हटे तो हरा कहाऊँ बीच हटे तो समझो कोरा


9

ओर छोर न मेरा कोई प्रथम हटे तो समझो काश
अंत कटे मालिक बन जाऊँ मध्य कटे तो आश


10

सूखी सड़ी पड़ी लकड़ी मे वर्षा जल में जो उग आये
उसको क्या कहते हैं भाई जो अपने सिर छत्र लगाये


11

काला कलूटा मेरा रूप अच्छी लगती कभी न धूप
दिन ढलने पर मैं आ जाता सारे जग पर मैं छा जाता


12


तीन अक्षर का मेरा नाम पानी देना मेरा काम
प्रथम कटे तो दल बन जाऊँ मध्य कटे तो बाल कहाऊँ





उत्तर:

1) चाँद

2) कमल


3) समय

4) ओला


5) पसीना


6) चन्द्रमा


7) रात व चन्द्रमा


8) कोहरा


9) आकाश


10) कुकुरमुत्ता


11) अन्धकार


12) बादल

No comments:

Post a Comment