HINDI BHAKTHI KAAL

भक्ति काल




हिंदी साहित्य का भक्ति काल 1375 वि0 से 1700 वि0 तक माना जाता है। यह युग भक्तिकाल के नाम से प्रख्यात है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं।
दक्षिण में आलवार बंधु नाम से प्रख्यात भक्त हो गए। इनमें से कई तथाकथित नीची जातियों से आए थे। वे बहुत पढे-लिखे नहीं थे परंतु अनुभवी थे। आलवारों के पश्चात दक्षिण में आचार्यों की एक परंपरा चली जिसमें रामानुजाचार्य प्रमुख थे।
रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। आपका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के सबसे बड़े आचार्य थे। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिया। सभी जातियों के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। उस समय का सूत्र हो गयाः जातिपांति पूछे नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।।
रामानंद ने विष्णु के अवतार राम की उपासना पर बल दिया। रामानंद ने और उनकी शिष्य-मंडली ने दक्षिण की भक्तिगंगा का उत्तर में प्रवाह किया। समस्त उत्तर-भारत इस पुण्य-प्रवाह में बहने लगा। भारत भर में उस समय पहुंचे हुए संत और महात्मा भक्तों का आविर्भाव हुआ।
महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टि-मार्ग की स्थापना की और विष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार किया। आपके द्वारा जिस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभावित किया। अष्टछाप के सुप्रसिध्द कवियों ने आपके उपदेशों को मधुर कविता में प्रतिबिंबित किया।
इसके उपरांत माध्व तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जन-समाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। मुसलमान कवियों का सूफीवाद हिंदुओं के विशिष्टाद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है। कुछ भावुक मुसलमान कवियों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्तम रचनाएं लिखी गईं। संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं मिलती हैं : ज्ञानाश्रयी शाखा, [प्रेमाश्रयी शाखा]], कृष्णाश्रयी शाखा और रामाश्रयी शाखा, प्रथम दोनों धाराएं निर्गुण मत के अंतर्गत आती हैं, शेष दोनों सगुण मत के।
ज्ञानाश्रयी शाखा
इस शाखा के भक्त-कवि निर्गुणवादी थे और नाम की उपासना करते थे। गुरु को वे बहुत सम्मान देते थे और जाति-पाति के भेदों को अस्वीकार करते थे। वैयक्तिक साधना पर वे बल देते थे। मिथ्या आडंबरों और रूढियों का वे विरोध करते थे। लगभग सब संत अपढ़ थे परंतु अनुभव की दृष्टि से समृध्द थे। प्रायः सब सत्संगी थे और उनकी भाषा में कई बोलियों का मिश्रण पाया जाता है इसलिए इस भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ कहा गया है। साधारण जनता पर इन संतों की वाणी का ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा है। इन संतों में प्रमुख कबीरदास थे। अन्य मुख्य संत-कवियों के नाम हैं – नानक, रैदास, दादूदयाल, सुंदरदास तथा मलूकदास।
प्रेमाश्रयी शाखा
मुसलमान सूफी कवियों की इस समय की काव्य-धारा को प्रेममार्गी माना गया है क्योंकि प्रेम से ईश्वर प्राप्त होते हैं ऐसी उनकी मान्यता थी। ईश्वर की तरह प्रेम भी सर्वव्यापी तत्व है और ईश्वर का जीव के साथ प्रेम का ही संबंध हो सकता है, यह उनकी रचनाओं का मूल तत्व है। उन्होंने प्रेमगाथाएं लिखी हैं। ये प्रेमगाथाएं फारसी की मसनवियों की शैली पर रची गई हैं। इन गाथाओं की भाषा अवधी है और इनमें दोहा-चौपाई छंदों का प्रयोग हुआ है। मुसलमान होते हुए भी उन्होंने हिंदू-जीवन से संबंधित कथाएं लिखी हैं। खंडन-मंडन में न पड़कर इन फकीर कवियों ने भौतिक प्रेम के माध्यम से ईश्वरीय प्रेम का वर्णन किया है। ईश्वर को माशूक माना गया है और प्रायः प्रत्येक गाथा में कोई राजकुमार किसी राजकुमारी को प्राप्त करने के लिए नानाविध कष्टों का सामना करता है, विविध कसौटियों से पार होता है और तब जाकर माशूक को प्राप्त कर सकता है। इन कवियों में मलिक मुहम्मद जायसी प्रमुख हैं। आपका ‘पद्मावत’ महाकाव्य इस शैली की सर्वश्रेष्ठ रचना है। अन्य कवियों में प्रमुख हैं – मंझन, कुतुबन और उसमान।
कृष्णाश्रयी शाखा
इस गुण की इस शाखा का सर्वाधिक प्रचार हुआ है। विभिन्न संप्रदायों के अंतर्गत उच्च कोटि के कवि हुए हैं। इनमें वल्लभाचार्य के पुष्टि-संप्रदाय के अंतर्गत सूरदास जैसे महान कवि हुए हैं। वात्सल्य एवं श्रृंगार के सर्वोत्तम भक्त-कवि सूरदास के पदों का परवर्ती हिंदी साहित्य पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है। इस शाखा के कवियों ने प्रायः मुक्तक काव्य ही लिखा है। भगवान श्रीकृष्ण का बाल एवं किशोर रूप ही इन कवियों को आकर्षित कर पाया है इसलिए इनके काव्यों में श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य की अपेक्षा माधुर्य का ही प्राधान्य रहा है। प्रायः सब कवि गायक थे इसलिए कविता और संगीत का अद्भुत सुंदर समन्वय इन कवियों की रचनाओं में मिलता है। गीति-काव्य की जो परंपरा जयदेव और विद्यापति द्वारा पल्लवित हुई थी उसका चरम-विकास इन कवियों द्वारा हुआ है। नर-नारी की साधारण प्रेम-लीलाओं को राधा-कृष्ण की अलौकिक प्रेमलीला द्वारा व्यंजित करके उन्होंने जन-मानस को रसाप्लावित कर दिया। आनंद की एक लहर देश भर में दौड ग़ई। इस शाखा के प्रमुख कवि थे सूरदास, नंददास, मीरा बाई, हितहरिवंश, हरिदास, रसखान, नरोत्तमदास वगैरह। रहीम भी इसी समय हुए।
रामाश्रयी शाखा
कृष्णभक्ति शाखा के अंतर्गत लीला-पुरुषोत्तम का गान रहा तो रामभक्ति शाखा के प्रमुख कवि तुलसीदास ने मर्यादा-पुरुषोत्तम का ध्यान करना चाहा। इसलिए आपने रामचंद्र को आराध्य माना और ‘रामचरित मानस’ द्वारा राम-कथा को घर-घर में पहुंचा दिया। तुलसीदास हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। समन्वयवादी तुलसीदास में लोकनायक के सब गुण मौजूद थे। आपकी पावन और मधुर वाणी ने जनता के तमाम स्तरों को राममय कर दिया। उस समय प्रचलित तमाम भाषाओं और छंदों में आपने रामकथा लिख दी। जन-समाज के उत्थान में आपने सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य किया है। इस शाखा में अन्य कोई विशेष उल्लेखनीय कवि नहीं हुआ है।


संत कवि


निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख संत कवियों का परिचय
कबीर, कमाल, रैदास या रविदास, धर्मदास, गुरू नानक, दादूदयाल, सुंदरदास, रज्जब, मलूकदास, अक्षर अनन्य, जंभनाथ, सिंगा जी, हरिदास निरंजनी ।
कबीर
कबीर का जन्म 1397 ई. में माना जाता है. उनके जन्म और माता-पिता को लेकर बहुत विवाद है. लेकिन यह स्पष्ट है कि कबीर जुलाहा थे, क्योंकि उन्होंने अपने को कविता में अनेक बार जुलाहा कहा है. कहा जाता है कि वे विधवा ब्राह्मणी के पत्र थे, जिसे लोकापवाद के भय से जन्म लेते ही काशी के लहरतारा ताल के पास फेंक दिया गया था. अली या नीरू नामक जुलाहा बच्चे को अपने यहाँ उठा लाया. इस प्रकार कबीर ब्राह्मणी के पेट से उत्पन्न हुए थे, लेकिन उनका पालन-पोषण जुलाहे के यहाँ हुआ. बाद में वे जुलाहा ही प्रसिद्ध हुए. कबीर की मृत्यु के बारे में भी कहा जाता है कि हिन्दू उनके शव को जलाना चाहते थे और मुसलमान दफ़नाना. इस पर विवाद हुआ, किन्तु पाया गया कि कबीर का शव अंतर्धान हो गया है. वहाँ कुछ फूल हैं. उनमें कुछ फूलों को हिन्दुओं ने जलाया और कुछ को मुसलमानों ने दफ़नाया.
कबीर की मृत्यु मगहर जिला बस्ती में सन् 1518 ई. में हुई.
कबीर का अपना पंथ या संप्रदाय क्या था, इसके बारे में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता. वे रामानंद के शिष्य के रूप में विख्यात हैं, किन्तु उनके ‘राम’ रामानंद के ‘राम’ नहीं हैं. शेख तकी नाम के सूफी संत को भी कबीर का गुरू कहा जाता है, किन्तु इसकी पुष्टि नहीं होती. संभवत: कबीर ने इन सबसे सत्संग किया होगा और इन सबसे किसी न किसी रूप में प्रभावित भी हुए होंगे.
इससे प्रकट होता है कि कबीर की जाति के विषय में यह दुविधा बराबर बनी रही है. इसका कारण उनके व्यक्तित्व, उनकी साधना और काव्य में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो हिन्दू या मुसलमान कहने-भर से नहीं प्रकट होतीं. उनका व्यक्तित्व दोनों में से किसी एक में नहीं समाता.
उनकी जाति के विषय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘कबीर’ में प्राचीन उल्लेखों, कबीर की रचनाओं, प्रथा, वयनजीवी अथवा बुनकर जातियों के रीति-रिवाजों का विवेचन-विश्लेषण करके दिखाया है.:
आज की वयनजीवी जातियों में से अधिकांश किसी समय ब्राह्मण श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करती थी. जागी नामक आश्रम-भ्रष्ट घरबारियों की एक जाति सारे उत्तर और पूर्वी भारत में फैली थी. ये नाथपंथी थे. कपड़ा बुनकर और सूत कातकर या गोरखनाथ और भरथरी के नाम पर भीख माँग कर जीविका चलाया करते थे. इनमें निराकार भाव की उपासना प्रचलित थी, जाति भेद और ब्राह्मण श्रेष्ठता के प्रति उनकी कोई सहानुभूति नहीं थी और न अवतारवाद में ही कोई आस्था थी. आसपास के वृहत्तर हिन्दू-समाज की दृष्टि में ये नीच और अस्पृश्य थे. मुसलमानों के आने के बाद ये धीरे-धीरे मुसलमान होते रहे. पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में इनकी कई बस्तियों ने सामूहिक रूप से मुसलमानी धर्म ग्रहण किया. कबीर दास इन्हीं नवधर्मांतरित लोगों में पालित हुए थे.
रज्जब
(17वीं शती)
रज्जब दादू के शिष्य थे. ये भी राजस्थान के थे. इनकी कविता में सुंदरदास की शास्त्रीयता का तो अभाव है, किन्तु पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार:
रज्जब दास निश्चय की दादू के शिष्यों में सबसे अधिक कवित्व लेकर उत्पन्न हुए थे. उनकी कविताएँ भावपन्न, साफ और सहज हैं. भाषा पर राजस्थानी प्रभाव अधिक है और इस्लामी साधना के शब्द भी अपेक्षाकृत अधिक हैं.
अक्षर अनन्य
सन् 1653 में इनके वर्तमान रहने का पता लगता है. ये दतिया रियासत के अंतर्गत सेनुहरा के कायस्थ थे और कुछ दिनों तक दतिया के राजा पृथ्वीचंद के दीवान थे. पीछे ये विरक्त होकर पन्ना में रहने लगे. प्रसिद्ध छत्रसाल इनके शिष्य हुए. एक बार ये छत्रसाल से किसी बात पर अप्रसन्न होकर जंगल में चले गए. पता लगने पर जब महाराज छत्रसाल क्षमा प्रार्थना के लिए इनके पास गए तब इन्हें एक झाड़ी के पास खूब पैर फैलाकर लेटे हुए पाया. महाराज ने पूछा- ‘पाँव पसारा कब से?’ चट से उत्तर मिला- ‘हाथ समेटा जब से’.
ये विद्वान थे और वेदांत के अच्छे ज्ञाता थे. इन्होंने योग और वेदांत पर कई ग्रंथ लिखे.
कृतियाँ  — 1. राजयोग 2. विज्ञानयोग 3. ध्यानयोग 4. सिद्धांतबोध 5. विवेकदीपिका 6. ब्रह्मज्ञान 7. अनन्य प्रकाश आदि.
‘दुर्गा सप्तशती’ का भी हिन्दी पद्यों में अनुवाद किया.
मलूकदास
मलूकदास का जन्म लाला सुंदरदास खत्री के घर में वैशाख कृष्ण 5, सन् 1574ई. में कड़ा, जिला इलाहाबाद में हुआ.
इनकी मृत्यु 108 वर्ष की अवस्था में सन् 1682 में हुई. वे औरंगज़ेब के समय में दिल के अंदर खोजने वाले निर्गुण मत के नामी संतों में हुए हैं और उनकी गद्दियाँ कड़ा, जयपुर, गुजरात, मुलतान, पटना, नेपाल और काबुल तक में कायम हुई. इनके संबंध में बहुत से चमत्कार और करामातें प्रसिद्ध हैं. कहते है कि एक बार इन्होंने एक डूबते हुए शाही जहाज को पानी के ऊपर उठाकर बचा लिया था और रूपयों का तोड़ा गंगाजी में तैरा कर कड़े से इलाहबाद भेजा था.
आलसियों का यह मूल मंत्र :
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम I
दास मलूका कहि गए, सबको दाता राम II
इन्हीं का है. हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों को उपदेश में प्रवृत्त होने के कारण दूसरे निर्गुणमार्गी संतों के समान इनकी भाषा में भी फ़ारसी और अरबी शब्दों का प्रयोग है. इसी दृष्टि से बोलचाल की खड़ीबोली का पुट इस सब संतों की बानी में एक सा पाया जाता है. इन सब लक्षणों के होते हुए भी इनकी भाषा सुव्यवस्थित और सुंदर है. कहीं-कहीं अच्छे कवियों का सा पदविन्यास और कवित्त आदि छंद भी पाए जाते हैं. कुछ पद बिल्कुल खड़ीबोली में हैं. आत्मबोध, वैराग्य, प्रेम आदि पर इनकी बानी बड़ी मनोहर है.
कृतियाँ  —  1. रत्नखान  2. ज्ञानबोध
सुंदरदास
(1596 ई.- 1689ई.)
सुंदरदास 6 वर्ष की आयु में दादू के शिष्य हो गए थे. उनका जन्म 1596ई. में जयपुर के निकट द्यौसा नामक स्थान पर हुआ था. इनके पिता का नाम परमानंद और माता का नाम सती था. दादू की मृत्यु के बाद एक संत जगजीवन के साथ वे 10 वर्ष की आयु में काशी चले आए. वहाँ 30 वर्ष की आयु तक उन्होंने जमकर अध्ययन किया. काशी से लौटकर वे राजस्थान में शेखावटी के निकट फतहपुर नामक स्थान पर गए. वे फ़ारसी भी बहुत अच्छी जानते थे.
उनका देहांत सांगामेर में 1689 ई. में हुआ.
निर्गुण संत कवियों में सुंदरदास सर्वाधिक शास्त्रज्ञ एवं सुशिक्षित थे. कहते हैं कि वे अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुंदर थे. सुशिक्षित होने के कारण उनकी कविता कलात्मकता से युक्त और भाषा परिमार्जित है. निर्गुण संतों ने गेय पद और दोहे ही लिखे हैं. सुंदरदास ने कवित्त और सवैये भी रचे हैं. उनकी काव्यभाषा में अलंकारों का प्रयोग खूब है. उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सुंदरविलास’ है.
काव्यकला में शिक्षित होने के कारण उनकी रचनाएँ निर्गुण साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती हैं. निर्गुण साधना और भक्ति के अतिरिक्त उन्होंने सामाजिक व्यवहार, लोकनीति और भिन्न क्षेत्रों के आचार-व्यवहार पर भी उक्तियाँ कही हैं. लोकधर्म और लोक मर्यादा की उन्होंने अपने काव्य में उपेक्षा नहीं की है.
व्यर्थ की तुकबंदी और ऊटपटाँग बानी इनको रूचिकर न थी. इसका पता इनके इस कवित्त से लगता है:
बोलिए तौ तब जब बोलिबे की बुद्धि होय,
ना तौ मुख मौन गहि चुप होय रहिए I
जोरिए तौ तब जब जोरिबै को रीति जानै,
तुक छंद अरथ अनूप जामे लहिए II
गाइए तौ तब जब गाइबे को कंठ होय,
श्रवन के सुनतहीं मनै जाय गहिए I
तुकभंग, छंदभंग, अरथ मिलै न कछु,
सुंदर कहत ऐसी बानी नहिं कहिए II
कृतियाँ–1. सुंदरविलास
दादूदयाल
(1544ई. – 1603ई.)
कबीर की भाँति दादू के जन्म और उनकी जाति के विषय में विवाद और अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है. कुछ लोग उन्हें गुजराती ब्राह्मण मानते हैं, कुछ लोग मोची या धुनिया. प्रो. चंद्रिकाप्रसाद त्रिपाठी और क्षितिमोहन सेन के अनुसार दादू मुसलमान थे और उनका नाम दाऊद था. कहते हैं दादू बालक रूप में साबरमती नदी में बहते हुए लोदीराम नामक नागर ब्राह्मण को मिले थे. दादू के गुरू का भी निश्चित रूप से पता नहीं लगता. कुछ लोग मानते हैं कि वे कबीर के पुत्र कमाल के शिष्य थे. पं. रामचंद्र शुक्ल का विचार है कि उनकी बानी में कबीर का नाम बहुत जगह आया है और इसमें कोई संदेह नहीं कि वे उन्हीं के मतानुयायी थे. वे आमेर, मारवाड़, बीकानेर आदि स्थानों में घूमते हुए जयपुर आए. वहीं के भराने नामक स्थान पर 1603 ई. में शरीर छोड़ा. वह स्थान दादू पंथियों का केन्द्र है. दादू की रचनाओं का संग्रह उनके दो शिष्यों संतदास और जगनदास ने ‘हरडेवानी’ नाम से किया था. कालांतर में रज्जब ने इसका सम्पादन ‘अंगवधू’ नाम से किया.
दादू की कविता जन सामान्य को ध्यान में रखकर लिखी गई है, अतएव सरल एवं सहज है. दादू भी कबीर के समान अनुभव को ही प्रमाण मानते थे. दादू की रचनाओं में भगवान के प्रति प्रेम और व्याकुलता का भाव है. कबीर की भाँति उन्होंने भी निर्गुण निराकार भगवान को वैयक्तिक भावनाओं का विषय बनाया है. उनकी रचनाओं में इस्लामी साधना के शब्दों का प्रयोग खुलकर हुआ है. उनकी भाषा पश्चिमी राजस्थानी से प्रभावित हिन्दी है. इसमें अरबी-फ़ारसी के काफ़ी शब्द आए हैं, फिर भी वह सहज और सुगम है.
कृतियाँ  — 1. हरडेवानी 2. अंगवधू
गुरू नानक
गुरू नानक का जन्म 1469 ईसवी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन तलवंडी ग्राम, जिला लाहौर में हुआ था.
इनकी मृत्यु 1531 ईसवी में हुई.
इनके पिता का नाम कालूचंद खत्री और माँ का नाम तृप्ता था. इनकी पत्नी का नाम सुलक्षणी था. कहते हैं कि इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाने का बहुत उद्यम किया, किन्तु इनका मन भक्ति की ओर अधिकाधिक झुकता गया. इन्होंने हिन्दू-मुसलमान दोनों की समान धार्मिक उपासना पर बल दिया. वर्णाश्रम व्यवस्था और कर्मकांड का विरोध करके निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का प्रचार किया. गुरू नानक ने व्यापक देशाटन किया और मक्का-मदीना तक की यात्रा की. कहते हैं मुग़ल सम्राट बाबर से भी इनकी भेंट हुई थी. यात्रा के दौरान इनके साथी शिष्य रागी नामक मुस्लिम रहते थे जो इनके द्वारा रचित पदों को गाते थे.
गुरू नानक ने सिख धर्म का प्रवर्त्तन किया. गुरू नानक ने पंजाबी के साथ हिन्दी में भी कविताएँ की. इनकी हिन्दी में ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों का मेल है. भक्ति और विनय के पद बहुत मार्मिक हैं. गुरू नानक ने उलटबाँसी शैली नहीं अपनाई है. इनके दोहों में जीवन के अनुभव उसी प्रकार गुँथे हैं जैसे कबीर की रचनाओं में. ‘आदिगुरू ग्रंथ साहब’ के अंतर्गत ‘महला’ नामक प्रकरण में इनकी बानी संकलित है. उसमें सबद, सलोक मिलते हैं.
गुरू नानक की ही परम्परा में उनके उत्तराधिकारी गुरू कवि हुए. इनमें है–
गुरू अंगद (जन्म 1504 ई.)
गुरू अमरदास (जन्म 1479 ई.)
गुरू रामदास (जन्म 1514 ई.)
गुरू अर्जुन (जन्म 1563ई.)
गुरू तेगबहादुर (जन्म 1622ई.) और
गुरू गोविन्द सिंह (जन्म 1664ई.).
गुरू नानक की रचनाएँ  — 1. जपुजी 2. आसादीवार 3. रहिरास 4. सोहिला
धर्मदास
ये बांधवगढ़ के रहनेवाले और जाति के बनिए थे. बाल्यावस्था में ही इनके हृदय में भक्ति का अंकुर था और ये साधुओं का सत्संग, दर्शन, पूजा, तीर्थाटन आदि किया करते थे. मथुरा से लौटते समय कबीरदास के साथ इनका साक्षात्कार हुआ. उन दिनों संत समाज में कबीर पूरी प्रसिद्धि हो चुकी थी. कबीर के मुख से मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, देवार्चन आदि का खंडन सुनकर इनका झुकाव ‘निर्गुण’ संतमत की ओर हुआ. अंत में ये कबीर से सत्य नाम की दीक्षा लेकर उनके प्रधान शिष्यों में हो गए और सन् 1518 में कबीरदास के परलोकवास पर उनकी गद्दी इन्हीं को मिली. कबीरदास के शिष्य होने पर इन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति, जो बहुत अधिक थी, लुटा दी. ये कबीर की गद्दी पर बीस वर्ष के लगभग रहे और अत्यंत वृद्ध होकर इन्होंने शरीर छोड़ा. इनकी शब्दावली का भी संतों में बड़ा आदर है. इनकी रचना थोड़ी होने पर भी कबीर की अपेक्षा अधिक सरल भाव लिए हुए है, उसमें कठोरता और कर्कशता नहीं है. इन्होंने पूर्वी भाषा का ही व्यवहार किया है. इनकी अन्योक्तियों के व्यंजक चित्र अधिक मार्मिक हैं क्योंकि इन्होंने खंडन-मंडन से विशेष प्रयोजन न रख प्रेमतत्व को लेकर अपनी वाणी का प्रसार किया है.
उदाहरण के लिए ये पद देखिए
मितऊ मड़ैया सूनी करि गैलो II
अपना बलम परदेश निकरि गैलो, हमरा के किछुवौ न गुन दै गैलो I
जोगिन होइके मैं वन वन ढूँढ़ौ, हमरा के बिरह बैराग दै गैलो II
सँग की सखी सब पार उतरि गइलो, हम धनि ठाढ़ि अकेली रहि गैलो I
धरमदास यह अरजु करतु है, सार सबद सुमिरन दै गैलो II
रैदास या रविदास
रामानंद जी के बारह शिष्यों में रैदास भी माने जाते हैं. उन्होंने अपने एक पद में कबीर और सेन का उल्लेख किया है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि वे कबीर से छोटे थे. अनुमानत: 15वीं शती उनका समय रहा होगा. धन्ना और मीराबाई ने रैदास का उल्लेख आदरपूर्वक किया है. यह भी कहा जाता है कि मीराबाई रैदास की शिष्या थीं. रैदास ने अपने को एकाधिक स्थलों पर चमार जाति का कहा है:
  • कह रैदास खलास चमारा
  • ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार
रैदास काशी के आसपास के थे. रैदास के पद आदि गुरूग्रंथ साहब में संकलित हैं. कुछ फुटकल पद सतबानी में हैं.
रैदास की भक्ति का ढाँचा निर्गुणवादियों का ही है, किन्तु उनका स्वर कबीर जैसा आक्रामक नहीं. रैदास की कविता की विशेषता उनकी निरीहता है. वे अनन्यता पर बल देते हैं. रैदास में निरीहता के साथ-साथ कुंठाहीनता का भाव द्रष्टव्य है. भक्ति-भावना ने उनमें वह बल भर दिया था जिसके आधार पर वे डंके की चोट पर घोषित कर सकें कि उनके कुटुंबी आज भी बनारस के आस-पास ढोर (मूर्दा पशु) ढोते हैं और दासानुदास रैदास उन्हीं का वंशज है:
जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत
फिरहिं अजहुँ बानारसी आसपास I
आचार सहित बिप्र करहिं डंडउति
तिन तनै रविदास दासानुदासा II
रैदास की भाषा सरल, प्रवाहमयी और गेयता के गुणों से युक्त है.
सिंगाजी
चार सौ अस्सी वर्ष पूर्व की बात है। भामगढ़ (मध्य प्रदेश) के राजा के यहां एक निरक्षर युवा सेवक का काम करता था। एक दिन वह डाकघर से आ रहा था। रास्ते में उसने परमविरक्ति के भाव में रंगी कुछ पंक्तियां सुनीं-
‘समझि लेओ रे मना भारि!
अंत न होय कोई आपना।
यही माया के फंद मे
नर आज भुलाना॥’
यह विलक्षण सुरीली तान तीर की तरह उस युवक के हृदय में गहरे पैठ गई। वह सोचने लगा इक जब हमारा नाता इस दुनिया से टूटना ही है, यहां अपना कोई नहीं होगा, तो फ़िर हम इस मायाजाल के भ्रम में क्यों फंसें? इसके बाद वह संत मनरंग के पास पहुंचा, जो संत व्रह्मगिरि के शिष्य थे। संत मनरंइगइर के समीप पहुंचते ही उसने उनके चरण स्पशर्ा इकए। यह प्रणाम उसके युवा जीवन का सम्पूर्ण समर्पण इसद्ध हुआ। इसके बाद उसने भामगढ़ के राजा की नौकरी छोड़ दी। यह युवक थे, ‘सिंगा जी’, जो सेवक की नौकरी करने के पहले हरसूद में रहते हुए वन में गाय-भैंसें चराने का काम करते थे। सिंगा जी का जन्म संवत्‌ १५७६ में ग्राम पीपला के भीमा जी गौली के यहां हुआ था। उनकी जन्मदायनी थीं माता गौराबाई। सिंगा जी की बाल्यावस्था बड़वानी के खजूरी ग्राम में व्यतीत हुई। तत्पशचात्‌ निका परिवार हरसूद में आकर बस गया। यहीं सिंगा जी बड़े हुए। और कुछ दिन बाद भामगढ़ के राजा के यहां इनको सेवक की नौकरी मिल गई, परन्तु अब वे विरक्त होकर महात्मा मनरंग को समर्पित हो गए। इस सेवा, समर्पण तथा साधना ने सेवक और चरवाहा रहे सिंगा जी का जीवन समग्रत: बदल दिया। आध्यात्मिक साधनारत रहते-रहते निरक्षर सिंगा जी को अदृष्ट के अंतराल से वाणी आयी और अपढ़ सिंगा जी की वाणी से एक के बाद एक भक्ति पद और भजन मुखरित होने लगे। वे स्वरचित पद गाया करते थे। सिंगा जी के तमाम पद निमाड़ी बोली में हैं। यात्राओं में निमाड़ी पथिकों के काफ़िले बैलगाड़यों पर बैठे-बैठे आज भी इनहें गुंजाते रहते हैं। निमाड़ में ग्राम-ग्राम और घर-घर में ये गाए जाते हैं। परन्तु सिंगा जी इतने भावुक तथा विइचत्र मानस के संत थे इक निका जीवनान्त अभूतपूर्व तरीके से हुआ। एक बार जब श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी पड़ी तो श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के पूर्व ही इनके गुरुदेव को नींद आने लगी। अत: निसे उन्होंने कहा ‘जब मध्य रात्र (१२ बजे) आए तो हमें जगा देना।’ और वे सो गए। सिंगा जी बैठे-बैठे जागते रहे, पर जब १२ बजे तो सिंगा जी ने सोचा गुरुदेव को क्यों जगाएं? उनहें सोने दें। मैं ही भगवान की आरती-अर्चना आदि सम्पन्न कर देता हूं। कुछ देर बाद जब मनरंग जागे, तो जन्मोत्सव की बेला बीत चुकी थी। वे बड़े क्रुद्ध हुए और क्रोध में ही गुरु ने शिष्य सिंगा जी को दुत्कार कर निकाल दिया, कहा-‘यहां से जा, इफर कभी जीवन में मुंह मत दिखाना।’ सिंगा जी गुरु के आदेश का पालन कर चले तो गए परन्तु उन्होंने सोचा, अब इस शरीर को रखें क्यों? इसकी अब जरूरत क्या है? यही सोचकर सिंगा जी पीपला चले गए, जहां वे जन्मे थे। वहीं ११ मास व्यतीत किए। संवत्‌ १६१६ की श्रावणी पूर्णिमा आयी तो उन्होंने पिपराहट नदी-तट पर अपने लिए एक समाधि तैयार की।  एक हाथ में कपूर जलाकर दूसरे हाथ में जप-माला लेकर उसी समाइध की खोखली जगह में जा बैठे और वहां जीवित ही समाइधस्थ हो गए। तब वे केवल ४० वर्ष के थे। जब यह समाचार उनके गुरु को मिला तो वे बहुत्ा पछताए, दु:खी हुए।
आज भी निमाड़ के चरवाहे और इकसान ढोलक-मृदंग बजाते हुए गाया करते हैं-
‘सिंगा बड़ा औइलया पीर,
जिसको सुमेर राव अमीर।’
निमाड़ के मुसलमान उसे ‘औ्लिया’ और पहुंचा हुआ ‘पीर’ ही मानते हैं। वहां के गूजर समाज की पंचायतें दंइडत अपराधी को यह कहकर छोड़ देती हैं कि, ‘जा सिंगा जी महाराज के पांव लाग ले।’ और वह अपराधी सिंगा जी की समाधि का स्पर्श कर, उसे प्रणाम कर अपराध-मुक्त और शुद्ध हो जाता है। हिन्दू-मुसलमान सभी बैल आदि कुछ भी खो जाने पर सिंगा जी की समा्धि पर आकर मनौती मानते हैं। आज खंडवा-हरदा रेलवे मार्ग पर ‘सिंगा जी’ नाम का रेलवे स्टेशन भी है। निमाड़ ही नहीं, दूरस्थ स्थानों से भी लाखों आस्थावान यात्री प्रतिवर्ष  सिंगा जी की समाधि पर एकत्र होते हैं। मुसलमान दुआ करते हैं, तो हिन्दू यात्री मनौइतयां मानते-प्रसाद चढ़ाते हैं।


प्रेमाश्रयी काव्य के कवि


निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा के प्रमुख कवियों का परिचय
मलिक मुहम्मद जायसी, कुतबन, मंझन, उसमान, शेख नवी, कासिमशाह, नूर मुहम्मद, मुल्ला दाउद |
मलिक मुहम्मद जायसी
जायसी के जन्म और मृत्यु की कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध रहीं है. ये हिन्दी में सूफ़ी काव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं. ये अमेठी के निकट जायस के रहने वाले थे, इसलिए इन्हें जायसी कहा जाता है. जायसी अपने समय के सिद्ध फ़कीरों में गिने जाते थे. अमेठी के राजघराने में इनका बहुत मान था. जीवन के अंतिम दिनों में जायसी अमेठी से दो मिल दूर एक जंगल में रहा करते थे. वहीं उनकी मृत्यु हुई. काजी नसरूद्दीन हुसैन जायसी ने, जिन्हें अवध में नवाब शुजाउद्दौला से सनद मिली थी, अपनी याददाश्त में जायसी का मृत्युकाल 4 रजब 949 हिजरी लिखा है. यह काल कहाँ तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता.
ये काने और देखने में कुरूप थे. कहते हैं कि शेरशाह इनके रूप को देखकर हँसा था. इस पर यह बोले ‘मोहिका हँसेसि कि कोहरहि ?’ इनके समय में भी इनके शिष्य फ़कीर इनके बनाये भावपूर्ण दोहे, चौपाइयाँ गाते फिरते थे. इन्होंने तीन पुस्तकें लिखी – एक तो प्रसिद्ध ‘पदमावत’, दूसरी ‘अख़रावट’, तीसरी ‘आख़िरी क़लाम’. कहते हैं कि एक नवोपलब्ध काव्य ‘कन्हावत’ भी इनकी रचना है, किन्तु कन्हावत का पाठ प्रामाणिक नहीं लगता. अख़रावट में देवनागरी वर्णमाला के एक अक्षर को लेकर सिद्धांत संबंधी तत्वों से भरी चौपाइयाँ कही गई हैं. इस छोटी सी पुस्तक में ईश्वर, सृष्टि, जीव, ईश्वर प्रेम आदि विषयों पर विचार प्रकट किए गए हैं. आख़िरी क़लाम में कयामत का वर्णन है. जायसी की अक्षत कीर्ति का आधार है पदमावत, जिसके पढ़ने से यह प्रकट हो जाता है कि जायसी का हृदय कैसा कोमल और ‘प्रेम की पीर’ से भरा हुआ था. क्या लोकपक्ष में, क्या अध्यात्मपक्ष में, दोनों ओर उसकी गूढ़ता, गंभीरता और सरसता विलक्षण दिखाई देती है.
कृतियाँ — 1. पदमावत  2. अख़रावट  3. आख़िरी क़लाम
कुतबन
ये चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे और जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह के आश्रित थे. अत: इनका समय विक्रम सोलहवीं शताब्दी का मध्यभाग (सन् 1493) था. इन्होंने ‘मृगावती’ नाम की एक कहानी चौपाई दोहे के क्रम से सन् 909 हिजरी सन् 1500 ई. में लिखी जिसमें चंद्रनगर के राजा गणपतिदेव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारि की कन्या मृगावती की प्रेम कथा का वर्णन है. इस कहानी के द्वारा कवि ने प्रेममार्ग के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत्प्रेम का स्वरूप दिखाया है. बीच-बीच में सूफियों की शैली पर बड़े सुंदर रहस्यमय आध्यात्मिक आभास है.
कृतियाँ — 1. मृगावती
मंझन
इनके संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं है. केवल इनकी रची ‘मधुमालती’ की एक खंडित प्रति मिली है जिसमें इनकी कोमल कल्पना और स्निग्धसहृदयता का पता लगता है. मंझन ने सन् 1545 ई. में मधुमालती की रचना की. मृगावती के समान मधुमालती में भी पाँच चौपाइयों के उपरांत एक दोहे का क्रम रखा गया. पर मृगावती की अपेक्षा इसकी कल्पना भी विशद् है और वर्णन भी अधिक विस्तृत और हृदयग्राही है. आध्यात्मिक प्रेम भाव की व्यंजना के लिए प्रकृतियाँ के भी अधिक दृश्यों का समावेश मंझन ने किया है.
ये जायसी के परवर्ती थे. मधुमालती में नायक को अप्सराएँ उड़ाकर मधुमालती की चित्रसारी में पहुँचा देती हैं और वहीं नायक नायिका को देखता है. इसमें मनोहर और मधुमालती की प्रेमकथा के समानांतर प्रेमा और ताराचंद की भी प्रेमकथा चलती है. इसमें प्रेम का बहुत उच्च आदर्श सामने रखा गया है. सूफ़ी काव्यों में नायक की प्राय: दो पत्नियाँ होती हैं, किन्तु इसमें मनोहर अपने द्वारा उपकृत प्रेमा से बहन का संबंध स्थापित करता है. इसमें जन्म-जन्मांतर के बीच प्रेम की अखंडता प्रकट की गई है. इस दृष्टि से इसमें भारतीय पुनर्जन्मवाद की बात कही गई है. इस्लाम पुनर्जन्मवाद नहीं मानता. लोक के वर्णन द्वारा अलौकिक सत्ता का संकेत सभी सूफ़ी काव्यों के समान इसमें भी पाया जाता है.
जैन कवि बनारसीदास ने अपने आत्मचरित में सन् 1603 के आसपास की अपनी इश्कबाजीवाली जीवनचर्या का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस समय मैं हाट बाजार में जाना छोड़, घर में पड़े-पड़े ‘मृगावती’ और ‘मधुमालती’ नाम की पोथियाँ पढ़ा करता था:-
तब घर में बैठे रहैं, नाहिंन हाट बाजार I
मधुमालती, मृगावती पोथी दोय उचार II
कृतियाँ — 1. मधुमालती
उसमान
ये जहाँगीर के समय में वर्तमान थे और गाजीपुर के रहनेवाले थे. इनके पिता का नाम शेख हुसैन था और ये पाँच भाई थे. ये शाह निजामुद्दीन चिश्ती की शिष्य परंपरा में हाजीबाबा के शिष्य थे. उसमान ने सन् 1613 ई. में ‘चित्रावली’ नाम की पुस्तक लिखी. पुस्तक के आरंभ में कवि ने स्तुति के उपरांत पैगंबर और चार खलीफों की बादशाह जहाँगीर की तथा शाह निजामुद्दीन और हाजीबाबा की प्रशंसा लिखी है.
कवि ने ‘योगी ढूँढन खंड’ में काबुल, बदख्शाँ, खुरासान, रूस, साम, मिश्र, इस्तबोल, गुजरात, सिंहलद्वीप आदि अनेक देशों का उल्लेख किया है. सबसे विलक्षण बात है जोगियों का अँगरेजों के द्वीप में पहुँचना :
वलंदप देखा अँगरेजा I तहाँ जाइ जेहि कठिन करेजा II
ऊँच नीच धन संपति हेरा I मद बराह भोजन जिन्ह केरा II
कवि ने इस रचना में जायसी का पूरा अनुकरण किया है. जो जो विषय जायसी ने अपनी पुस्तक में रखे हैं उस विषयों पर उसमान ने भी कुछ कहा है. कहीं-कहीं तो शब्द और वाक्यविन्यास भी वही हैं. पर विशेषता यह है कि कहानी बिल्कुल कवि की कल्पित है.
कृतियाँ  — 1. चित्रावली
शेख नवी
ये जौनपुर जिले में दोसपुर के पास मऊ नामक स्थान के रहने वाले थे और सन् 1619 में जहाँगीर के समय में वर्तमान थे. इन्होंने ‘ज्ञानदीप’ नामक एक आख्यान काव्य लिखा, जिसमें राजा ज्ञानदीप और रानी देवजानी की कथा है.
कृतियाँ — 1. ज्ञानदीप
कासिमशाह
ये दरियाबाद (बाराबंकी) के रहने वाले थे और सन् 1731 के लगभग वर्तमान थे. इन्होंने ‘हंस जवाहिर’ नाम की कहानी लिखी, जिसमें राजा हंस और रानी जवाहिर की कथा है.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार: इनकी रचना बहुत निम्न कोटि की है. इन्होंने जगह जगह जायसी की पदावली तक ली है, पर प्रौढ़ता नहीं है.
कृतियाँ — 1. हंस जवाहिर
नूर मुहम्मद
ये दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के समय में थे और ‘सबरहद’ नामक स्थान के रहनेवाले थे जो जौनपुर जिले में जौनपुर आज़मगढ़ की सरहद पर है. पीछे सबरहद से ये अपनी ससुराल भादो (अजमगढ़) चले गये. इनके श्वसुर शमसुद्दीन को और कोई वारिस न था इससे वे ससुराल ही में रहने लगे.
नूर मुहम्मद फ़ारसी के अच्छे आलिम थे और इनका हिन्दी काव्यभाषा का भी ज्ञान और सब सूफ़ी कवियों से अधिक था. फ़ारसी में इन्होंने एक दीवान के अतिरिक्त ‘रौजतुल हकायक’ इत्यादि बहुत सी किताबें लिखी थीं जो असावधानी के कारण नष्ट हो गईं.
इन्होंने सन् 1744 ई. में ‘इंद्रावती’ नामक एक सुंदर आख्यान काव्य लिखा जिसमें कालिंजर के राजकुमार राजकुँवर और आगमपुर की राजकुमारी इंद्रावती की प्रेमकहानी है.
इनका एक और ग्रंथ फ़ारसी अक्षरों में लिखा मिला है, जिसका नाम है ‘अनुराग बाँसुरी’. यह पुस्तक कई दृष्टियों से विलक्षण है. पहली बात तो इसकी भाषा सूफ़ी रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृतगर्भित है. दूसरी बात है हिंदी भाषा के प्रति मुसलमानों का भाव.|
कृतियाँ  — 1. इंद्रावती (सन् 1744 ई.)  2. अनुराग बाँसुरी (सन् 1764 ई.)
इसके अतिरिक्त प्रेमाख्यान काव्य की प्रमुख कॄतियों मे मुल्ला दाउद कॄत “चान्दायन” (१३७९) नायक लोर और चन्दा की प्रेम कथा प्रमुख है।

रामभक्त कवि

रामभक्ति पंथी शाखा के प्रमुख कवि
रामानन्द, तुलसीदास, स्वामी अग्रदास, नाभादास, प्राणचंद चौहान, हृदयराम, केशवदास, सेनापति।
स्वामी रामानन्द
स्वामी रामानन्द का जन्म 1299ई. में माघकृष्णसप्तमी को प्रयाग में हुआ था। इनके पिता का नाम पुण्यसदनऔर माता का नाम सुशीला देवी था। इनका बाल्यकाल प्रयाग में बीता। यज्ञोपवीत संस्कार के उपरान्त वे प्रयाग से काशी चले आए और गंगा के किनारे पंचगंगाघाट पर स्थायी रूप से निवास करने लगे। इनके गुरु स्वामी राघवानन्द थे जो रामानुज (अचारी) संप्रदाय के ख्यातिलब्ध संत थे। स्वामी राघवानन्द हिन्दी भाषा में भक्तिपरककाव्य रचना करते थे। स्वामी रामानन्द को रामभक्तिगुरुपरंपरासे मिली। हिंदी भाषा में लेखन की प्रेरणा उन्हें गुरुकृपासे प्राप्त हुई। पंचगंगाघाटपर रहते हुए स्वामी रामानुज ने रामभक्तिकी साधना के साथ-साथ उसका प्रचार और प्रसार भी किया। स्वामी रामानन्द ने जिस भक्ति-धारा का प्रवर्तन किया, वह रामानुजीपरंपरा से कई दृष्टियोंसे भिन्न थी। रामानुजी संप्रदाय में इष्टदेव के रूप में लक्ष्मीनारायण की पूजा होती है। स्वामी रामानन्द ने लक्ष्मीनारायण के स्थान पर सीता और राम को इष्टदेव के आसन पर प्रतिष्ठित किया। नए इष्टदेव के साथ ही स्वामी रामानन्द ने रामानुजीसंप्रदाय से अलग एक षडक्षरमंत्र की रचना की। यह मंत्र है- रांरामायनम:। इष्टदेव और षडक्षरमंत्र के अतिरिक्त स्वामी रामानन्द ने इष्टोपासनापद्धतिमें भी परिवर्तन किया। स्वामी रामानन्द ने रामानुजीतिलक से भिन्न नए ऊ‌र्ध्वपुण्डतिलक की अभिरचनाकी। इन भिन्नताओंके कारण स्वामी रामानन्द द्वारा प्रवर्तित भक्तिधारा को रामानुजी संप्रदाय से भिन्न मान्यता मिलने लगी। रामानुजीऔर रामानन्दी संप्रदाय क्रमश:अचारीऔर रामावत नाम से जाने जाने लगे। रामानुजीतिलक की भांति रामानन्दी तिलक भी ललाट के अतिरिक्त देह के ग्यारह अन्य भागों पर लगाया जाता है। स्वामी रामानन्द ने जिस तिलक की अभिरचनाकी उसे रक्तश्रीकहा जाता है। कालचक्र में रक्तश्रीके अतिरिक्त इस संप्रदाय में तीन और तिलकोंकी अभिरचनाहुई। इन तिलकोंके नाम हैं, श्वेतश्री(लश्करी), गोलश्री(बेदीवाले) और लुप्तश्री(चतुर्भुजी)। इष्टदेव, मंत्र, पूजापद्धतिएवं तिलक इन चारों विंदुओंके अतिरिक्त स्वामी रामानन्द ने स्वप्रवर्तितरामावत संप्रदाय में एक और नया तत्त्‍‌व जोडा। उन्होंने रामभक्तिके भवन का द्वार मानव मात्र के लिए खोल दिया। जिस किसी भी व्यक्ति की निष्ठा राम में हो, वह रामभक्त है, चाहे वह द्विज हो अथवा शूद्र, हिंदू हो अथवा हिंदूतर।वैष्णव भक्ति भवन के उन्मुक्त द्वार से रामावत संप्रदाय में बहुत से द्विजेतरऔर हिंदूतरभक्तों का प्रवेश हुआ। स्वामी रामानन्द की मान्यता थी कि रामभक्तिपर मानवमात्र का अधिकार है, क्योंकि भगवान् किसी एक के नहीं, सबके हैं-सर्वे प्रपत्तिरधिकारिणोमता:।ज्ञातव्य है कि रामानुजीसंप्रदाय में मात्र द्विजाति(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) को ही भगवद्भक्तिका अधिकार प्राप्त है। स्वामी रामानन्द ने रामभक्तिपर मानवमात्र का अधिकार मानकर एक बडा साहसी और क्रान्तिकारी कार्य किया था। इसके लिए उनका बडा विरोध भी हुआ। स्वामी रामानन्द का व्यक्तित्व क्रान्तिदर्शी,क्रान्तिधर्मीऔर क्रान्तिकर्मीथा। उनकी क्रान्तिप्रियतामात्र रामभक्तितक ही सीमित नहीं थी। भाषा के क्षेत्र में भी उन्होंने क्रान्ति का बीजारोपण किया। अभी तक धर्माचार्य लेखन-भाषण सारा कुछ देवभाषा संस्कृत में ही करते थे। मातृभाषा होते हुए भी हिंदी उपेक्षत-सीथी। ऐसे परिवेश में स्वामी रामानन्द ने हिंदी को मान्यता देकर अपनी क्रान्तिप्रियताका परिचय दिया। आगे चलकर गोस्वामी तुलसीदास ने स्वामी रामानन्द की भाषा विषयक इसी क्रान्ति प्रियताका अनुसरण करके रामचरितमानस जैसे अद्भुत ग्रंथ का प्रणयन हिंदी भाषा में किया। ऐसा माना जाता है कि स्वामी रामानन्द विभिन्न परिवेशों के बीच एक सेतु की भूमिका का निर्वाह करते थे। वे नर और नारायण के बीच एक सेतु थे; शूद्र और ब्राह्मण के बीच एक सेतु थे; हिन्दू और हिंदूतरके बीच एक सेतु थे; देवभाषा (संस्कृत) और लोकभाषा(हिन्दी) के बीच एक सेतु थे। स्वामी रामानन्द ने कुल सात ग्रंथों की रचना की, दो संस्कृत में और पांच हिंदी में।
उनके द्वारा रचित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है:
(1) वैष्णवमताब्जभास्कर: (संस्कृत), (2) श्रीरामार्चनपद्धति:(संस्कृत), (3) रामरक्षास्तोत्र(हिंदी), (4) सिद्धान्तपटल(हिंदी), (5) ज्ञानलीला(हिंदी), (6) ज्ञानतिलक(हिन्दी), (7) योगचिन्तामणि(हिंदी)।
ऐसा माना जाता है कि लगभग एक सौ ग्यारह वर्ष की दीर्घायु में स्वामी रामानन्द ने भगवत्सायुज्यवरणकिया। जीवन के अंतिम दिनों में वे काशी से अयोध्या चले गए। वहां वे एक गुफामें प्रवास करने लगे। एक दिन प्रात:काल गुफासे शंख ध्वनि सुनाई पडी। भक्तों ने गुफामें प्रवेश किया। वहां न स्वामी जी का देहशेषऔर न शंख। वहां मात्र पूजासामग्रीऔर उनकी चरणपादुका। भक्तगण गुफासे चरणपादुका काशी ले आए और यहां उसे पंचगंगाघाटपर स्थापित कर दिया। जिस स्थान पर चरणपादुका की स्थापना हुई, उसे श्रीमठकहा जाता है। श्रीमठपर एक नए भवन का निर्माण सन् 1983ई. में किया गया। स्वामी रामानन्द की गुरु शिष्य परम्परा से ही तुलसीदास, स्वामी अग्रदास, नाभादास जैसे रामभक्त कवियो का उदय हुआ।
गोस्वामी तुलसीदास
गोस्वामी तुलसीदास के जन्म काल के विषय में एकाधिक मत हैं. बेनीमाधव दास द्वारा रचित ‘गोसाईं चरित’ और महात्मा रघुबरदास कृत ‘तुलसी चरित’ दोनों के अनुसार तुलसीदास का जन्म 1497 ई. में हुआ था. शिवसिंह सरोज के अनुसार सन् 1526 ई. के लगभग हुआ था. पं. रामगुलाम द्विवेदी इनका जन्म सन् 1532 ई. मानते हैं. यह निश्चित है कि ये महाकवि 16वीं शताब्दी में विद्यमान थे.
तुलसीदास मध्यकाल के उन कवियों में से हैं जिन्होंने अपने बारे में जो थोड़ा-बहुत लिखा है, वह बहुत काम का है.
तुलसी का बचपन घोर दरिद्रता एवं असहायवस्था में बीता था. उन्होंने लिखा है, माता-पिता ने दुनिया में पैदा करके मुझे त्याग दिया. विधाता ने भी मेरे भाग्य में कोई भलाई नहीं लिखी.
मातु पिता जग जाइ तज्यो, विधि हू न लिखी कछु भाल भलाई I
जैसे कुटिल कीट को पैदा करके छोड़ देते हैं वैसे की मेरे माँ-बाप ने मुझे त्याग दिया:
तनु जन्यो कुटिल कीट ज्यों तज्यो माता पिता हू I
हनुमानबाहुक में भी यह स्पष्ट है कि अंतिम समय में वे भयंकर बाहु-पीड़ा से ग्रस्त थे. पाँव, पेट, सकल शरीर में पीड़ा होती थी, पूरी देह में फोड़े हो गए थे.
यह मान्य है कि तुलसीदास की मृत्यु सन् 1623 ई. में हुई.
उनके जन्म स्थान के विषय में काफी विवाद है. कोई उन्हें सोरों का बताता है, कोई राजापुर का और कोई अयोध्या का. ज्यादातर लोगों का झुकाव राजापुर की ही ओर है. उनकी रचनाओं में अयोध्या, काशी, चित्रकूट आदि का वर्णन बहुत आता है. इन स्थानों पर उनके जीवन का पर्याप्त समय व्यतीत हुआ होगा.
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 12 ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं.
कृतियां
1. दोहावली 2. कवितावली 3. गीतावली 4. रामचरितमानस 5. रामाज्ञाप्रश्न 6. विनयपत्रिका 7. रामललानहछू 8. पार्वतीमंगल 9. जानकीमंगल 10. बरवै रामायण 11. वैराग्य संदीपिनी 12. श्रीकृष्णगीतावली
नाभादास
नाभादास अग्रदासजी के शिष्य बड़े भक्त और साधुसेवी थे. सन् 1600 के लगभग वर्तमान थे और तुलसीदासजी की मृत्यु के बहुत पीछे तक जीवित रहे. इनका प्रसिद्ध ग्रंथ भक्तमाल सन् 1585 ई. के पीछे बना और सन् 1712 में प्रियादासजी ने उसकी टीका लिखी. इस ग्रंथ में 200 भक्तों के चमत्कार पूर्ण चरित्र 316 छप्पयों में लिखे गए हैं. इन चरित्रों में पूर्ण जीवनवृत्त नहीं है, केवल भक्ति की महिमासूचक बातें लिखी गई हैं. इनका उद्देश्य भक्तों के प्रति जनता में पूज्यबुद्धि का प्रचार जान पड़ता है. वह उद्देश्य बहुत अंशों में सिद्ध भी हुआ.
नाभाजी को कुछ लोग डोम बताते हैं, कुछ क्षत्रिय. ऐसा प्रसिद्ध है कि वे एकबार तुलसीदास से मिलने काशी गए. पर उस समय गोस्वामी ध्यान में थे, इससे न मिल सके. नाभाजी उसी दिन वृंदावन चले गए. ध्यान भंग होने पर गोस्वामीजी को बड़ा खेद हुआ और वे तुरंत नाभाजी से मिलने वृंदावन चल दिए. नाभाजी के यहाँ वैष्णवों का भंडारा था जिसमें गोस्वामीजी बिना बुलाए जा पहुँचे. गोस्वामीजी यह समझकर कि नाभाजी ने मुझे अभिमानी न समझा हो, सबसे दूर एक किनारे बुरी जगह बैठ गए. नाभाजी ने जान बूझकर उनकी ओर ध्यान न दिया. परसने के समय कोई पात्र न मिलता था जिसमें गोस्वामीजी को खीर दी जाती. यह देखकर गोस्वामीजी एक साधु का जूता उठा लिया और बोले, “इससे सुंदर पात्र मेरे लिए और क्या होगा ?” इस पर नाभाजी ने उठकर उन्हें गले लगा लिया और गद्-गद् हो गए.
अपने गुरू अग्रदास के समान इन्होंने भी रामभक्ति संबंधी कविता की है. ब्रजभाषा पर इनका अच्छा अधिकार था और पद्यरचना में अच्छी निपुणता थी.
कृति — 1. भक्तमाल 2. अष्टयाम
स्वामी अग्रदास
रामानंद के शिष्य अनंतानंद और अनंतानंद के शिष्य कृष्णदास पयहारी थे, कृष्णदास पयहारी के शिष्य अग्रदास जी थे. सन् १५५६ के लगभग वर्तमान थे. इनकी बनाई चार पुस्तकों का पता है. इनकी कविता उसी ढंग की है जिस ढंग की कृष्णोपासक नंददासजी की.
प्रमुख कृतियां है– 1. हितोपदेश उपखाणाँ बावनी 2. ध्यानमंजरी 3. रामध्यानमंजरी 4. राम-अष्ट्याम
अग्रदास जी का काव्य ब्रजभाषा मे है जिसमे प्रवाह के साथ परिष्कार भी है। सुंदर पद-रचना और अलंकारो के प्रयोग से यह प्रमाणित होता है कि इन्हें शास्त्रीय साहित्य का अच्छा ज्ञान था।
चौपाई:-
जीव मात्र से द्वैस न राखै। सो सिय राम नाम रस चाखै।१।
दीन भाव निज उर में लावै। सिया राम सन्मुख छवि छावै।२।
तौन उपासक ठीक है भाई। वाकी समुझौ बनी बनाई।३।
सियाराम निशि वासर ध्यावै। अन्त त्यागि तन गर्भ न आवै।४।
दोहा:-
अग्रदास कह धन्य सो, जाहि दियो गुरु ज्ञान।
सो तन लीन्हो सुफल कै, छूटा दुःख महान।१।
‘अग्रअली’ नाम से अग्रदास स्वयं को जानकी जी की सखी मानकर काव्य-रचना किया करते थे। रामभक्ति परम्परा में रसिक-भावना के समावेश का श्रेय इन्हीं को प्राप्त है।
हृदयराम
ये पंजाब के रहनेवाले और कृष्णदास के पुत्र थे. इन्होंने सन् 1623 में संस्कृत के हनुमन्नाटक के आधार पर भाषा हनुमन्नाटक लिखा जिसकी कविता बड़ी सुंदर और परिमार्जित है. इसमें अधिकतर कविता और सवैये में बड़े अच्छे संवाद हैं.
प्राणचंद चौहान
इनके व्यक्तित्व पर पर्याप्त विवरण नहीं मिलता है. पं. रामचंद्र शुक्ल जी के अनुसार:
संस्कृत में रामचरित संबंधी कई नाटक हैं जिनमें कुछ तो नाटक के साहित्यिक नियमानुसार हैं और कुछ केवल संवाद रूप में होने के कारण नाटक कहे गए हैं. इसी पिछली पद्धति पर संवत 1667 (सन् 1610ई.) में इन्होंने रामायण महानाटक लिखा.
कृति — 1. रामायण महानाटक
केशवदास
केशव का जन्म तिथि सं० १६१८ वि० मे वर्तमान मध्यप्रदेश राज्य के अंतर्गत ओरछा नगर में हुआ था। ओरछा के व्यासपुर मोहल्ले में उनके अवशेष मिलते हैं। ओरछा के महत्व और उसकी स्थिति के सम्बन्ध में केशव ने स्वयं अनेक भावनात्मक कथन कहे हैं। जिनसे उनका स्वदेश प्रेम झलकता है। आचार्य केशव की रामभक्ति से सम्बन्धित कॄति “रामचंद्रिका” है।
“रामचन्द्रिका’ संस्कृत के परवर्ती महाकाव्यों की वर्णन-बहुल शैली का प्रतिनिधित्व करती है। “रामचन्द्रिका’ के भाव-विधान में शान्त रस का भी महत्वपूर्ण स्थान है। अत्रि-पत्नी अनसूया के चित्र से ऐसा प्रकट होता है जैसे स्वयं ‘निर्वेद’ ही अवतरित हो गया हो। वृद्धा अनसूया के कांपते शरीर से ही निर्वेद के संदेश की कल्पना कवि कर लेता है:
कांपति शुभ ग्रीवा, सब अंग सींवां, देखत चित्त भुलाहीं ।
जनु अपने मन पति, यह उपदेशति, या जग में कछु नाहीं ।।
अंगद-रावण में शान्त की सोद्देश्य योजना है। अंगद रावण को कुपथ से विमुख करने के लिए एक वैराग्यपूर्ण उक्ति कहता है। अन्त में वह कहता है – “चेति रे चेति अजौं चित्त अन्तर अन्तक लोक अकेलोई जै है।” यह वैराग्य पूर्ण चेतावनी सुन्दर बन पड़ी है।
सेनापति
हिंदी-साहित्य के इतिहास में ऐसे अनेक कवि हुए हैं जिनके कृतित्त्व तो प्राप्त हैं, परंतु व्यक्तित्त्व के विषय में कुछ भी ठीक से पता नहीं है। भक्तिकाल की समाप्ति और रीतिकाल के प्रारंभ के संधिकाल मे भी एक महाकवि हुए हैं जिनके जीवन के विषय में जानकारी के नाम पर मात्र उनका लिखा एक कवित्त ही है, ऐसे महाकवि ‘सेनापति’ के विषय में कवित्त है
“दीक्षित परसराम, दादौ है विदित नाम,
जिन कीने यज्ञ, जाकी जग में बढ़ाई है।
गंगाधर पिता, गंगाधार ही समान जाकौ,
गंगातीर बसति अनूप जिन पाई है।
महाजानि मनि, विद्यादान हूँ कौ चिंतामनि,
हीरामनि दीक्षित पै तैं पाई पंडिताई है।
सेनापति सोई, सीतापति के प्रसाद जाकी,
सब कवि कान दै सुनत कविताई हैं॥”
यही कवित्त सेनापति के जीवन परिचय का आधार है। इसके आधार पर विद्वानों ने सेनापति के पितामह का नाम परसराम दीक्षित और पिता का नाम गंगाधर माना हैं। ‘गंगातीर बसति अनूप जिन पाई है’ के आधार पर उन्हें उत्तर-प्रदेश के गंगा-किनारे बसे अनूपशहर क़स्बे का माना है। सेनापति के विषय में विद्वानों ने माना है कि उन्होंने ‘काव्य-कल्पद्रुम’ और ‘कवित्त-रत्नाकर’ नामक दो ग्रंथों की रचना की थी। ‘काव्यकल्पद्रुम’ का कुछ पता नहीं है। ‘कवित्तरत्नाकर’ उनकी एक मात्र प्राप्त कृति है। इस विषय में डॉ. चंद्रपाल शर्मा ने कहीं लिखा है-“सन १९२४ में जब प्रयाग विश्वविद्यालय में हिंदी का अध्ययन अध्यापन प्रारंभ हुआ, तब कविवर सेनापति के एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ ‘कवित्त-रत्नाकर’ को एम.ए. के पाठ्यक्रम में स्थान मिला था। उस समय इस ग्रंथ की कोई प्रकाशित प्रति उपलब्ध नहीं थी। अतः केवल कुछ हस्तलिखित पोथियाँ एकत्रित करके पढ़ाई प्रारंभ की थी।
कवि की निम्नलिखित पंक्तियों के आधार पर ‘कवित्त-रत्नाकर’ के विषय में माना जाता रहा है कि उन्होंने इसे सत्रहवीं शताब्दी के उतरार्ध में रचा होगा-
“संवत सत्रह सै मैं सेई सियापति पांय,
सेनापति कविता सजी, सज्जन सजौ सहाई।”
सेनापति कॄत ‘कवित्त-रत्नाकर’ की चतुर्थ तरंग में ७६ कवित्त हैं जिनमें रामकथा मुक्त रुप में लिखी है।-
“कुस लव रस करि गाई सुर धुनि कहि,
भाई मन संतन के त्रिभुवन जानि है।
देबन उपाइ कीनौ यहै भौ उतारन कौं,
बिसद बरन जाकी सुधार सम बानी है।
भुवपति रुप देह धारी पुत्र सील हरि
आई सुरपुर तैं धरनि सियारानि है।
तीरथ सरब सिरोमनि सेनापति जानि,
राम की कहनी गंगाधार सी बखानी है।”
पाँचवी तरंग में ८६ कवित्त हैं, जिनमें राम-रसायन वर्णन है। इनमें राम, कृष्ण, शिव और गंगा की महिमा का गान है। ‘गंगा-महिमा’ दृष्टव्य है-
“पावन अधिक सब तीरथ तैं जाकी धार,
जहाँ मरि पापी होत सुरपुरपति है।
देखत ही जाकौ भलौ घाट पहिचानियत,
एक रुप बानी जाके पानी की रहति है।
बड़ी रज राखै जाकौ महा धीर तरसत,
सेनापति ठौर-ठौर नीकी यैं बहति है।
पाप पतवारि के कतल करिबै कौं गंगा,
पुन्य की असील तरवारि सी लसति है।”
सेनापति ने अपने काव्य में सभी रसों को अपनाया है। ब्रज भाषा में लिखे पदों में फारसी और संस्कृत के शब्दों का भी प्रयोग किया है। अलंकारों की बात करें तो सेनापति को श्लेष से तो विशेष मोह था।

कृष्णभक्त कवि


कृष्णभक्ति शाखा के प्रमुख कवियों का परिचय
सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास-मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास, चैतन्य महाप्रभु ।
सूरदास
हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ कृष्णभक्त कवि सूरदास का जन्म 1483 ई. के आस-पास हुआ था. इनकी मृत्यु अनुमानत: 1563 ई. के आस-पास हुई. इनके बारे में ‘भक्तमाल’ और ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती है. ‘आईने अकबरी’ और ‘मुंशियात अब्बुलफजल’ में भी किसी संत सूरदास का उल्लेख है, किन्तु वे बनारक के कोई और सूरदास प्रतीत होते हैं. अनुश्रुति यह अवश्य है कि अकबर बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे. ‘भक्तमाल’ में इनकी भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा है तथा इनकी अंधता का उल्लेख है. ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार वे आगरा और मथुरा के बीच साधु या स्वामी के रूप में रहते थे. वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे. कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें यहाँ कीर्तन का कार्य सौंपा.
सूरदास के विषय में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे. उन्होंने अपने को ‘जन्म को आँधर’ कहा भी है. किन्तु इसके शब्दार्थ पर अधिक नहीं जाना चाहिए. सूर के काव्य में प्रकृतियाँ और जीवन का जो सूक्ष्म सौन्दर्य चित्रित है उससे यह नहीं लगता कि वे जन्मांध थे. उनके विषय में ऐसी कहानी भी मिलती है कि तीव्र अंतर्द्वन्द्व के किसी क्षण में उन्होंने अपनी आँखें फोड़ ली थीं. उचित यही मालूम पड़ता है कि वे जन्मांध नहीं थे. कालांतर में अपनी आँखों की ज्योति खो बैठे थे. सूरदास अब अंधों को कहते हैं. यह परम्परा सूर के अंधे होने से चली है. सूर का आशय ‘शूर’ से है. शूर और सती मध्यकालीन भक्त साधकों के आदर्श थे.
कृतियाँ
1. सूरसागर   2. सूरसारावली   3. साहित्य लहरी
ध्रुवदास
ये श्री हितहरिवंश के शिष्य स्वप्न में हुए थे. इसके अतिरिक्त उनका कुछ जीवनवृत्त प्राप्त नहीं हुआ. वे अधिकतर वृंदावन में ही रहा करते थे. उनकी रचना बहुत ही विस्तृत है और इन्होंने पदों के अतिरिक्त दोह, चौपाई, कवित्त, सवैये आदि अनेक छंदों में भक्ति और प्रेमतत्वों का वर्णन किया है.
कृतियाँ- 1. वृंदावनसत 2. सिंगारसत 3. रसरत्नावली 4. नेहमंजरी 5. रहस्यमंजरी 6. सुखमंजरी 7. रतिमंजरी 8. वनविहार 9. रंगविहार 10. रसविहार 11. आनंददसाविनोद 12. रंगविनोद 13. नृत्यविलास 14. रंगहुलास 15. मान रसलीला 16. रहसलता 17. प्रेमलता 18. प्रेमावली 19. भजनकुडलिया 20. भक्तनामावली ।
रसखान
ये दिल्ली के एक पठान सरदार थे. ये लौकिक प्रेम से कृष्ण प्रेम की ओर उन्मुख हुए. ये गोस्वामी विट्ठलनाथ के बड़े कृपापात्र शिष्य थे. रसखान ने कृष्ण का लीलागान गेयपदों में नहीं, सवैयों में किया है. रसखान को सवैया छंद सिद्ध था. जितने सहज, सरस, प्रवाहमय सवैये रसखान के हैं, उतने शायद ही किसी अन्य कवि के हों. रसखान का कोई ऐसा सवैया नहीं मिलता जो उच्च स्तर का न हो. उनके सवैये की मार्मिकता का बहुत बड़ा आधार दृश्यों और बाह्यांतर स्थितियों की योजना में है. वही योजना रसखान के सवैयों के ध्वनि-प्रवाह में है. ब्रजभाषा का ऐसा सहज प्रवाह अन्यत्र बहुत कम मिलता है.
रसखान सूफ़ियों का हृदय लेकर कृष्ण की लीला पर काव्य रचते हैं. उनमें उल्लास, मादकता और उत्कटता तीनों का संयोग है. ब्रज भूमि के प्रति जो मोह रसखान की कविताओं में दिखाई पड़ता है, वह उनकी विशेषता है.
कृतियाँ
1. प्रेमवाटिका
2. सुजान रसखान
व्यास जी
इनका पूरा नाम हरीराम व्यास था और वे ओरछा के रहनेवाले थे. ओरछानरेश मधुकर शाह के ये राजगुरू थे. पहले ये गौड़ सम्प्रदाय के वैष्णव थे पीछे हितहरिवंशजी के शिष्य होकर राधाबल्लभी हो गए. इनका समय सन् 1563 ई. के आसपास है.
इनकी रचना परिमाण में भी बहुत विस्तृत है और विषय भेद के विचार से भी अधिकांश कृष्णभक्तों की अपेक्षा व्यापक है. ये श्रीकृष्ण की बाललीला और श्रृंगारलीला में लीन रहने पर भी बीच में संसार पर दृष्टि डाला करते थे. इन्होंने तुलसीदास के समान खलों, पाखंडियों आदि का भी स्मरण किया और रसखान के अतिरिक्त तत्वनिरूपण में भी ये प्रवृत्त हुए हैं.
कृतियाँ
1. रासपंचाध्यायी
स्वामी हरिदास
ये महात्मा वृंदावन में निंबार्क मतांतर्गत टट्टी संप्रदाय, जिसे सखी संप्रदाय भी कहते है, के संस्थापक थे और अकबर के समय में एक सिद्ध भक्त और संगीत-कला-कोविद माने जाते थे. कविताकाल सन् 1543 से 1560 ई. ठहरता है. प्रसिद्ध गायनाचार्य तानसेन इनका गुरूवत् सम्मान करते थे. यह प्रसिद्ध है कि अकबर बादशाह साधु के वेश में तानसेन के साथ इनका गाना सुनने के लिए गया था. कहते हैं कि तानसेन इनके सामने गाने लगे और उन्होंने जानबूझकर गाने में कुछ भूल कर दी. इसपर स्वामी हरिदास ने उसी गाना को शुद्ध करके गाया. इस युक्ति से अकबर को इनका गाना सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया. पीछे अकबर ने बहुत कुछ पूजा चढ़ानी चाही पर इन्होंने स्वीकृन न की.
इनका जन्म समय कुछ ज्ञात नहीं है.
कृतियाँ
1. स्वामी हरिदास जी के पद
2. हरिदास जी की बानी
मीराबाई
ये मेड़तिया के राठौर रत्नसिंह की पुत्री, राव दूदाजी की पौत्री और जोधपुर के बसानेवाले प्रसिद्ध राव जोधाजी की प्रपौत्री थीं. इनका जन्म सन् 1516 ई. में चोकड़ी नाम के एक गाँव में हुआ था और विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था. ये आरंभ से ही कृष्ण भक्ति में लीन रहा करती थी. विवाह के उपरांत थोड़े दिनों में इनके पति का परलोकवास हो गया. ये प्राय: मंदिर में जाकर उपस्थित भक्तों और संतों के बीच श्रीकृष्ण भगवान् की मूर्ती के सामने आनंदमग्न होकर नाचती और गाती थी. कहते हैं कि इनके इस राजकुलविरूद्ध आचरण से इनके स्वजन लोकनिंदा के भय से रूष्ट रहा करते थे. यहाँ तक कहा जाता है कि इन्हें कई बार विष देने का प्रयत्न किया गया, पर विष का कोई प्रभाव इन पर न हुआ. घरवालों के व्यवहार से खिन्न होकर ये द्वारका और वृंदावन के मंदिरों में घूम-घूमकर भजन सुनाया करती थीं. ऐसा प्रसिद्ध है कि घरवालों से तंग आकर इन्होंने गोस्वामी तुलसीदासजी को यह पद लिखकर भेजा था:
स्वस्ति श्री तुलसी कुल भूषन दूषन हरन गोसाईं I
बारहिं बार प्रनाम करहुँ, अब हरहु सोक समुदाई II
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई II
साधु संग अरू भजन करत मोहिं देत कलेस महाई II
मेरे मात पिता के सम हौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई II
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई II
इस पर गोस्वामी जी ने ‘विनयपत्रिका’ का यह पद लिखकर भेजा था :
जाके प्रिय न राम बैदेही I
सो नर तजिय कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही II
नाते सबै राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं I
अंजन कहा आँखि जौ फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं II
मीराबाई की मृत्यु द्वारका में सन् 1546 ई. में हो चुकी थी. अत: यह जनश्रुति किसी की कल्पना के आधार पर ही चल पड़ी.
मीराबाई का नाम प्रधान भक्तों में है और इनका गुणगान नाभाजी, ध्रुवदास, व्यास जी, मलूकदास आदि सब भक्तों ने किया है.
कृतियाँ
1. नरसी जी का मायरा
2. गीतगोविंद टीका
3. राग गोविंद
4. राग सोरठ के पद
गदाधर भट्ट
ये दक्षिणी ब्राह्मण थे. इनके जन्म का समय ठीक से पता नहीं, पर यह बात प्रसिद्ध है कि ये श्री चैतन्य महाप्रभु को भागवत सुनाया करते थे. इनका समर्थन भक्तमाल की इन पंक्तियों से भी होता है:
भागवत सुधा बरखै बदन, काहू को नाहिंन दुखद I
गुणनिकर गदाधर भट्ट अति सबहिन को लागै सुखद II
संस्कृत के चूडांत पंडित होने के कारण शब्दों पर इनका बहुत विस्तृत अधिकार था. इनका पदविन्यास बहुत ही सुंदर है.
हितहरिवंश
राधावल्लभी सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोसाईं हितहरिवंश का जन्म सन् 1502 ई. में मथुरा से 4 मील दक्षिण बादगाँव में हुआ था. राधावल्लभी सम्प्रदाय के पंडित गोपालप्रसाद शर्मा ने इनका जन्म सन् 1473 ई. माना है.
इनके पिता को नाम केशवदास मिश्र और माता का नाम तारावती था.
कहते हैं कि हितहरिवंश पहले माध्वानुयायी गोपाल भट्ट के शिष्य थे. पीछे इन्हें स्वप्न में राधिकाजी ने मंत्र दिया और इन्होंने अपना एक अलग संप्रदाय चलाया. अत: हित सम्प्रदाय को माध्व संप्रदाय के अंतर्गत मान सकते हैं. हितहरिवंश के चार पुत्र और एक कन्या हुई. गोसाईं जी ने सन् 1525 ई. में श्री राधावल्लभ जी की मूर्ती वृंदावन में स्थापित की और वहीं विरक्त भाव से रहने लगे. ये संस्कृत के अच्छे विद्वान और भाषा काव्य के अच्छे मर्मज्ञ थे. ब्रजभाषा की रचना इनकी यद्यपि बहुत विस्तृत नहीं है तथापि बड़ी सरस और हृदयग्राहिणी है.
कृतियाँ– 1. राधासुधानिधि   2. हित चौरासी
गोविन्दस्वामी
ये अंतरी के रहनेवाले सनाढ्य ब्राह्मण थे जो विरक्त की भाँति आकर महावन में रहने लगे थे. पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के शिष्य हुए जिन्होंने इनके रचे पदों से प्रसन्न होकर इन्हें अष्टछाप में लिया. ये गोवर्धन पर्वत पर रहते थे और उसके पास ही इन्होंने कदंबों का एक अच्छा उपवन लगाया था जो अब तक ‘गोविन्दस्वमी की कदंबखडी’ कहलाता है.
इनका रचनाकाल सन् 1543 और 1568 ई. के भीतर ही माना जा सकता है.
वे कवि होने के अतिरिक्त बड़े पक्के गवैये थे. तानसेन कभी-कभी इनका गाना सुनने के लिए आया करते थे.
छीतस्वामी
विट्ठलनाथ जी के शिष्य और अष्टछाप के अंतर्गत थे. पहले ये मथुरा के सुसम्पन्न पंडा थे और राजा बीरबल जैसे लोग इनके जजमान थे. पंडा होने के कारण ये पहले बड़े अक्खड़ और उद्दंड थे, पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से दीक्षा लेकर परम शांत भक्त हो गए और श्रीकृष्ण का गुणानुवाद करने लगे.
इनकी रचनाओं का समय सन् 1555 ई. के इधर मान सकते हैं.
इनके पदों में श्रृंगार के अतिरिक्त ब्रजभूमि के प्रति प्रेमव्यंजना भी अच्छी पाई जाती है.
‘हे विधना तोसों अँचरा पसारि माँगौ जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो’
पद इन्हीं का है.
चतुर्भुजदास
ये कुंभनदास जी के पुत्र और गोसाईं विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे. ये भी अष्टछाप के कवियों में हैं. इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थित है. इनके बनाए तीन ग्रंथ मिले हैं.
कृतियाँ
1. द्वादशयश    2. भक्तिप्रताप    3. हितजू को मंगल
कुंभनदास
ये भी अष्टछाप के एक कवि थे और परमानंद जी के ही समकालीन थे. ये पूरे विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे. एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतहपुर सीकरी जाना पड़ा जहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ. पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा, जैसा कि इस पद से व्यंजित होता है:
संतन को कहा सीकरी सो काम ?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम
कुंभनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम.
इनका कोई ग्रंथ न तो प्रसिद्ध है और न अब तक मिला है.
परमानंद
यह वल्लभाचार्य जी के शिष्य और अष्टछाप में थे. सन् 1551 ई. के आसपास वर्तमान थे. इनका निवास स्थान कन्नौज था. इसी से ये कान्यकुब्ज अनुमान किए जाते हैं. अत्यंत तन्मयता के साथ बड़ा ही सरलकविता करते थे. कहते हैं कि इनके किसी एक पद को सुनकर आचार्यजी कई दिनों तक बदन की सुध भूले रहे. इनके फुटकल पद कृष्णभक्तों के मुँह से प्राय: सुनने को आते हैं.
कृतियाँ  —  1. परमानंदसागर
कृष्णदास
जन्मना शूद्र होते हुए भी वल्लभाचार्य के कृपा-पात्र थे और मंदिर के प्रधान हो गए थे. ‘चौरासी वैष्णवों की वार्ता’ के अनुसार एक बार गोसाईं विट्ठलनाथजी से किसी बात पर अप्रसन्न होकर इन्होंने उनकी ड्योढ़ी बंद कर दी. इस पर गोसाईं के कृपापात्र महाराज बीरबल ने इन्हें कैद कर लिया. पीछे गोसाईं जी इस बात से बड़े दुखी हुए और उनको कारागार से मुक्त कराके प्रधान के पद पर फिर ज्यों का त्यों प्रतिष्ठित कर दिया. इन्होंने भी और सब कृष्ण भक्तों के समान राधाकृष्ण के प्रेम को लेकर श्रृंगार रस के ही पद गाए हैं. ‘जुगलमान चरित’ नामक इनका एक छोटा सा ग्रंथ मिलता है. इसके अतिरिक्त इनके बनाए दो ग्रंथ और कहे जाते हैं-भ्रमरगीत और प्रेमतत्व निरूपण.
इनका कविताकाल सन् 1550 क आगे पीछे माना जाता है.
कृतियाँ  —  1. जुगलमान चरित  2. भ्रमरगीत   3. प्रेमतत्व निरूपण
श्रीभट्ट
ये निंबार्क सम्प्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान केशव काश्मीरी के प्रधान शिष्य थे. इनका जन्म सन् 1538 ई. में अनुमान किया जाता है. इनकी कविता सीधी-सादी और चलती भाषा में है. पद भी प्राय: छोटे-छोटे हैं. ऐसा प्रसिद्ध है कि जब ये तन्मय होकर अपने पद गाने लगते थे तब कभी-कभी उस पद के ध्यानानुरूप इन्हें भगवान की झलक प्रत्यक्ष मिल जाती थी.
कृतियाँ-1. युगल शतक 2. आदि बानी
सूरदास मदनमोहन
ये अकबर के समय में संडीले के अमीन थे. ये जो कुछ पास में आता प्राय: साधुओं की सेवा में लगा दिया करते थे. कहते हैं कि एक बार संडीले तहसील की मालगुजारी के कई लाख रूपये सरकारी खजाने में आए थे. इन्होंने सब का सब साधुओं को खिलापिला दिया और शाही खजाने में कंकड़-पत्थरों से भरे संदूक भेज दिए जिनके भीतर कागज के चिट यह लिख कर रख दिए:
तेरह लाख सँडीले आए, सब साधुन मिलि गटके I
सूरदास मदनमोहन आधी रातहिं सटके II
और आधी रात को उठकर कहीं भाग गए. बादशाह ने इनका अपराध क्षमा करके इन्हें फिर बुलाया, पर ये विरक्त होकर वृंदावन में रहने लगे. इनकी कविता इतनी सरस होती थी कि इनके बनाए बहुत से पद सूरसागर में मिल गए. इनकी कोई पुस्तक प्रसिद्ध नहीं.
इनका रचनाकाल सन् 1533 ई. और 1543 ई. के बीच अनुमान किया जाता है.
नंददास
नंददास 16 वीं शती के अंतिम चरण में विद्यमान थे. इनके विषय में ‘भक्तमाल’ में लिखा है:
‘चन्द्रहास-अग्रज सुहृद परम प्रेम में पगे’
इससे इतना ही सूचित होता है कि इनके भाई का नाम चंद्रहास था. ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार ये तुलसीदास के भाई थे, किन्तु अब यह बात प्रामाणिक नहीं मानी जाती. उसी वार्ता में यह भी लिखा है कि द्वारका जाते हुए नंददास सिंधुनद ग्राम में एक रूपवती खत्रानी पर आसक्त हो गए. ये उस स्त्री के घर में चारो ओर चक्कर लगाया करते थे. घरवाले हैरान होकर कुछ दिनों के लिए गोकुल चले गए. वहाँ भी वे जा पहुँचे. अंत में वहीं पर गोसाईं विट्ठलनाथ जी के सदुपदेश से इनका मोह छूटा और ये अनन्य भक्त हो गए. इस कथा में ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इन्होंने गोसाईं विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली.
इनके काव्य के विषय में यह उक्ति प्रसिद्ध है:
‘और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया’
इससे प्रकट होता है कि इनके काव्य का कला-पक्ष महत्त्वपूर्ण है. इनकी रचना बड़ी सरस और मधुर है. इनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक ‘रासपंचाध्यायी’ है जो रोला छंदों में लिखी गई है. इसमें जैसा कि नाम से ही प्रकट है, कृष्ण की रासलीला का अनुप्रासादियुक्त साहित्यिक भाषा में विस्तार के साथ वर्णन है.
कृतियाँ
—पद्य रचना
1. रासपंचाध्यायी 2. भागवत दशम स्कंध 3. रूक्मिणीमंगल 4. सिद्धांत पंचाध्यायी 5. रूपमंजरी 6. मानमंजरी 7. विरहमंजरी 8. नामचिंतामणिमाला 9. अनेकार्थनाममाला 10. दानलीला 11. मानलीला 12. अनेकार्थमंजरी 13. ज्ञानमंजरी 14. श्यामसगाई 15. भ्रमरगीत 16. सुदामाचरित्र      *—गद्यरचना 1. हितोपदेश 2. नासिकेतपुराण
चैतन्य महाप्रभु
चैतन्य महाप्रभु भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी। भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया।
चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन १४८६ की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब मायापुर कहा जाता है। यपि बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर आदि भी कहते थे। चैतन्य महाप्रभु के द्वारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था। निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम उम्र में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद्चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे। १५-१६ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ। सन १५०५ में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया।
सन १५०९ में जब ये अपने पिता का श्राद्ध करने गया गए, तब वहां इनकी मुलाकात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से कृष्ण-कृष्ण रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया। ‘हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे` नामक अठारह शब्दीय कीर्तन महामंत्र निमाई की ही देन है। जब ये कीर्तन करते थे, तो लगता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं। सन १५१० में संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया। बाद में ये चैतन्य महाप्रभु के नाम से प्रख्यात हुए।
चैतन्य महाप्रभु संन्यास लेने के बाद नीलांचल चले गए। इसके बाद दक्षिण भारत के श्री रंग क्षेत्र व सेतु बंध आदि स्थानों पर भी रहे। इन्होंने देश के कोने-कोने में जाकर हरिनाम की महत्ता का प्रचार किया। सन १५१५ में वृंदावन आए। यहां इन्होंने इमली तला और अकूर घाट पर निवास किया। वृंदावन में रहकर इन्होंने प्राचीन श्रीधाम वृंदावन की महत्ता प्रतिपादित कर लोगों की सुप्त भक्ति भावना को जागृत किया। यहां से फिर ये प्रयाग चले गए। इन्होंने काशी, हरिद्वार, शृंगेरी (कर्नाटक), कामकोटि पीठ (तमिलनाडु), द्वारिका, मथुरा आदि स्थानों पर रहकर भगवद्नाम संकीर्तन का प्रचार-प्रसार किया। चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष जगन्नाथ पुरी में रहकर बिताए। यहीं पर सन १५३३ में ४७ वर्ष की अल्पायु में रथयात्रा के दिन उनका देहांत हो गया।
चैतन्य महाप्रभु ने लोगों की असीम लोकप्रियता और स्नेह प्राप्त किया कहते हैं कि उनकी अद्भुत भगवद्भक्ति देखकर जगन्नाथ पुरी के राजा तक उनके श्रीचरणों में नत हो जाते थे। बंगाल के एक शासक के मंत्री रूपगोस्वामी तो मंत्री पद त्यागकर चैतन्य महाप्रभु के शरणागत हो गए थे। उन्होंने कुष्ठ रोगियों व दलितों आदि को अपने गले लगाकर उनकी अनन्य सेवा की। वे सदैव हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश देते रहे। साथ ही, उन्होंने लोगों को पारस्परिक सद्भावना जागृत करने की प्रेरणा दी। वस्तुत: उन्होंने जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर समाज को मानवता के सूत्र में पिरोया और भक्ति का अमृत पिलाया। वे गौडीय संप्रदाय के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। उनके द्वारा कई ग्रंथ भी रचे गए। उन्होंने संस्कृत भाषा में भी तमाम रचनाएं की। उनका मार्ग प्रेम व भक्ति का था। वे नारद जी की भक्ति से अत्यंत प्रभावित थे, क्योंकि नारद जी सदैव ‘नारायण-नारायण` जपते रहते थे। उन्होंने विश्व मानव को एक सूत्र में पिरोते हुए यह समझाया कि ईश्वर एक है। उन्होंने लोगों को यह मुक्ति सूत्र भी दिया-‘कृष्ण केशव, कृष्ण केशव, कृष्ण केशव, पाहियाम। राम राघव, राम राघव, राम राघव, रक्षयाम।` हिंदू धर्म में नाम जप को ही वैष्णव धर्म माना गया है और भगवान श्रीकृष्ण को प्रधानता दी गई है। चैतन्य ने इन्हीं की उपासना की और नवद्वीप से अपने छह प्रमुख अनुयायियों (षड गोस्वामियों), गोपाल भट्ट गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, रूप गोस्वामी, जीव गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी को वृंदावन भेजकर वहां गोविंददेव मंदिर, गोपीनाथ मंदिर, मदन मोहन मंदिर, राधा रमण मंदिर, राधा दामोदर मंदिर, राधा श्यामसुंदर मंदिर और गोकुलानंद मंदिर नामक सप्त देवालयों की आधारशिला रखवाई। लोग चैतन्य को भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मानते हैं।

सगुण का अर्थ


परम सत्ता जहां प्रकृति के बन्धन से मुक्त है, उसे निर्गुण और जहां बन्धनयुक्त है, उसे सगुण कहते हैं। सगुण में भी दो विभाग हैं। एक है उनका रूप और दूसरा अ-रूप। मनुष्य में जो बुद्धि, बोधि तथा मैं-पन आदि हैं, वे सब अ-रूप हैं। इन्हें देखा नहीं जा सकता। लेकिन मनुष्य को तो देखा जा सकता है। उसी तरह सगुण ब्रह्मा की भी बुद्धि, बोधि तथा ‘मैं-पन’ अ-रूप हैं। इसी कारण हम उसे देख नहीं सकते हैं।
दूसरा है रूपयुक्त। जैसे व्यक्ति अपने मन या चित्त को नहीं देख सकता है। परन्तु जैसे, हाथी के बारे में सोचते समय उसके चित्त में हाथी का रूप साकार हो उठता है -इतना स्पष्ट कि मन उसे देख लेता है। इसलिए चित्त भी कभी अ-रूप है और कभी रूपयुक्त। वैसे ही परमात्मा का चित्त भी रूपयुक्त है -यह दृश्यमान जगत जिसे हम विश्व कहते हैं, उनके चित्त में उभरने वाली आकृति है। यह विश्व ही रूप का समुद्र है और जब यह विषय होगा तब मन सगुण ब्रह्मा हो जाएगा।
जहां सीमा का बन्धन है, वहीं रूप है। जहां सीमा नहीं है, असीम है, वही अ-रूप है। यहां गुण रह भी सकता है और नहीं भी। जहां गुण है उसे सगुण और जहां गुण नहीं है, उसे निर्गुण कहते हैं।
परमात्मा का चित्त है विश्व। यह उनकी चैत्तिक सृष्टि है। यह रूपवान है, इसलिए इसमें सीमा है।
सगुण रूप में ईश्वर के साकार स्वरूप का नाम ही अवतार है । र्निगुण निराकार का ध्यान तो सम्भव नहीं है, पर सगुण रूप में आकर वह इस संसार के कार्यों में फिर क्रम और व्यवस्था उत्पन्न करते हैं । हमारा प्रत्येक अवतार सर्व व्यापक चेततना सत्ता का मूर्त रूप है । श्री सुदर्शनसिंह ने लिखा है-
”अवतार शरीर प्रभु का नित्य-विग्रह है । वह न मायिक है और न पाँच भौतिक । उसमें स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों का भेद भी नहीं होता । जैसे दीपक की ज्योति में विशुद्ध अग्नि है, दीपक की बत्ती की मोटाई केवल उस अग्नि क आकार का तटस्थ उपादान कारण है, ऐसे ही भगवान का श्री विग्रह शुद्ध सचिदानंदघन हैं । भक्त का भाव, भाव स्तर से उद्भूत है और भाव-बिस्तर नित्य धाम से । भगवान का नित्य-विग्रह कर्मजन्य नहीं है । जीवन की भाँति किसी कर्म का परिणाम नहीं है । वह स्वेच्छामय है, इसी प्रकार भगवानवतार कर्म भी आसक्ति की कामना या वासना के अवतार प्रेरित नहीं है, दिव्य लीला के रुप है । भगवान के अवतार के समय उनके शरीर का बाल्य-कौमारादि रूपों में परिवर्तन दीखता है, वह रूपों के आविर्भाव तथा तिरोभाव के कारण ।”
जिस परमात्मा की वेदों में कविरूप में प्रशंसा की गई है अथवा जिसे क्रान्तदर्शी कहा गया है, विद्वान् लोग जिसके सम्बन्ध में यह कहते हैं कि वह परमात्मा दो रूपोंवाला है-सगुण और निर्गुण है-दयालु आदि गुणों के कारण वह सगुण है और निराकार, अकाय आदि गुणों के कारण निर्गुण है-ऐसे परमेश्वर को मनुष्यों में विद्वान् लोग अपने जीवन में धारण करते हैं-प्रकट करते हैं।

मनुष्य अपने चित्त में इस विश्व के जितने व्यापक रूप को धारण करेगा, उसका चैत्तिक विषय जितना बड़ा होगा, उसी के अनुसार उसकी श्रेष्ठता निर्धारित होगी। अत: साधना है मन के विषय को बड़ा बनाना।
समाज में मनुष्य यदि एक विशेष जिला, प्रान्त, देश आदि को लेकर व्यस्त रहे तो उनका चैत्तिक विषय छोटा ही रह जाएगा। उनमें ब्रह्मा साधना कभी भी नहीं हो सकती। इसके लिए उसे पूरे विश्व को अपने चित्त में धारण करना होगा। परमात्मा के लिए हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई आदि कुछ नहीं है। साधक का देश है विश्व-ब्रह्माण्ड और जाति है जीव मात्र।
धामिर्क साधना के लिए संपूर्ण जगत को अपना आलम्बन (विषय) बनाना चाहिए। जो विश्व-एकतावाद का प्रचार करते हैं, परन्तु मन में जिलावाद, जातिवाद तथा देशवाद आदि को प्रश्रय देते हैं, वे कपटी हैं। साधक को यह समझना चाहिए कि यह संपूर्ण विश्व मेरा है और हम इस पूरे विश्व के हैं।
समाज है मनुष्य की सामूहिक संस्था। इसमें एक सामूहिक संगति रहती है। जब तक मनुष्य इस विश्व-एकतावाद को नहीं अपनाएगा, तब तक समाज एक नहीं बन सकता है। आदर्श की भिन्नता के अनुसार सबका भिन्न-भिन्न समाज बनता रहेगा।
विश्व शान्ति के लिए इसी सिद्धांत को लेकर चलना होगा। इसी से धर्म की प्रतिष्ठा होगी। संप्रदायवाद और पंथवाद के द्वारा यह कभी संभव नहीं है। मजहब (रिलिजन) से जीवों की मुक्ति होने वाली नहीं है। सर्व-धर्म समन्वय भी एक कपटाचरण है। विश्व समभाव के लिए निर्गुण ब्रह्मा को ही मानना ही पड़ेगा तथा पूरे विश्व को अपने चित्त में रखना होगा। इस विश्व-एकतावाद को छोड़कर और बाकी जितने भी मार्ग हैं, वे हैं मृत्यु के मार्ग। मनुष्य को जीवन की साधना करनी चाहिए, न कि मौत की।
जगत में शान्ति की प्रतिष्ठा के लिए विश्व-एकतावाद को मानना पड़ेगा, किन्तु शान्ति भी आपेक्षिक सत्य है। पापी जब साधुओं के डर से सिर झुकाकर चलता है, तब उसे सात्विक शान्ति कहते हैं और जब सिर उठाकर चलता है, तब तामसिक शान्ति कहते हैं। विश्व-एकतावाद जिनका ध्येय है, वे अवश्य ही सात्विक प्रकृति के व्यक्ति होंगे। आत्मविभाजनी शक्ति को जड़ से नष्ट करना होगा। इसके लिए अपनी मानसिक तथा आध्यात्मिक साधना के द्वारा निरंतर अपना चैत्तिक विकास करते रहना होगा।
भगवान का अवतार नीति और धर्म की स्थापना के लिए होता रहा है । जब समाज में पापों, मिथ्याचारों, दूषितवृत्तियों, अन्याय का बाहुल्य को जाता है, तब किसी न किसी रूप में पाप-निवृत्ति के लिए भगवान का स्वरूप प्रकट होता है । वह एक असामान्य प्रतिभाली व्यक्ति के रूप में होता है । उसमें हर प्रकार की शक्ति भरी रहती थी । वह स्वार्थ, लिप्सा के मद को, पाप के पुञ्ज को अपने आत्म-बल से दूर कर देता है । दुराचार, छल कपट, धोखा, भय, अन्याय के वातावरण को दूर कर मनुष्य के हृदय में विराजमान देवत्व की स्थापना करता है ।



निर्गुण काव्यधारा


हिन्दी साहित्य में संत कवि जिस विचारधारा को लेकर अपनी वाणी की रचना में प्रवृत्त हुये हैं उनका मूल सिद्ध तथा नाथ साहित्य में है। कई संत कवियों ने अपनी भाव-विभोर वाणी द्वारा आध्यात्मिक साधना तथा भक्ति अभ्युत्थान का कार्य किया।
संतों ने मानव जीवन पर जोर देते हुये उसको सार्थक करने हेतु सत्संग, नामस्मरण, भजन-कीर्तन, पूजन-अर्चन, गुरू महत्व, साधना महत्व, योग महिमा, सद्वचन, माया निरूपण, संसार की असारता को दर्शाया है। ये बातें उन्होंने सरल भाषा में सहज रूप में कही हैं।
मानव समुदाय में आस्था स्थापित करने और उसे अपनाने के लिए कई संतों ने निगुर्ण-सगुण साधना को अपनाया। इसमें अवतारवाद को स्वीकार कर लेने के फलस्वरूप सगुण साधना को एक साकार आलम्बन मिल जाता है, जिसके कारण उसे सामान्य अशिक्षित व्यक्ति भी सहज ही स्वीकार कर सकता है। निर्गुण साधना का आलम्बन निराकार है, फलस्वरूप वह जन साधारण के लिए ग्राह्य नहीं हो सकती। सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से सगुण साधना-निर्गुण साधना की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। किन्तु इस आधार पर निर्गुण साधना की सत्ता या महत्व के विषय में संदेह नहीं किया जा सकता। हालांकि यह सत्य है कि सगुण साधना में आस्था रखने वाले साधकों ने निर्गुण साधना को लेकर तरह-तरह की शंकाएं उठायी हैं। उनका मूल तर्क है कि निर्गुण ब्रह्मज्ञान का विषय तो हो सकता है किंतु भक्ति साधना का नहीं, क्योंकि साधना तो किसी साकार मूर्त और विशिष्ट के प्रति ही उन्मुख हो सकती है। सामान्य जनता का विश्वास और आचरण भी इसी तर्क की पुष्टि करता दिखाई देता है। साधना के व्यक्तित्व स्वरूप के संबंध में कहें तो ‘स्नेह पूर्वक ध्यान ही साधना है’ तो दूसरी ओर यदि स्नेह पूर्वक ध्यान ही साधना है तो फिर निर्गुण की साधना में स्नेह पूर्वक ध्यान क्यों नहीं किया जा सकता?
सामान्य रूप से यह माना जाता है कि निर्गुण साधना का संबंध ज्ञान मार्ग के साथ है और सगुण साधना का भक्ति के साथ। इसलिए जब कोई निर्गुण साधना की बात करता है तो जन समुदाय का ध्यान नैसर्गिक रूप से ज्ञान-मार्ग की ओर जाता है, भक्ति मार्ग की ओर नहीं, और इस प्रकार सगुण ब्रह्म का उल्लेख करते ही भक्ति मार्ग अपनी समग्र पूजा-विधि के साथ उपस्थित हो जाता है। इसका एक परिणाम यह भी हुआ कि भक्ति और पूजा-अर्चना अभेद माने जाने लगे। मंदिरों में जाना, भगवान पर दीप, अर्ध्य आदि चढ़ाना, मूर्ति की सेवा करना औैर उसकी आरती आदि उतारना साधना के अभिन्न अंग माने जाने लगे।
वस्तुत: निर्गुण-सगुण साधना में उसकी अनुभूति में बुनियादी समानता पाई जाती है। यदि ब्रह्म के साकार और निराकार रूपों में गुणों की समानता है और साधना-पद्धति में इन समान गुणों की स्वीकृति भी हो जाती है, तो निर्गुण की साधना को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। जिस प्रकार सगुण साधना के लिए निर्गुण की स्वीकृति आवश्यक है, उसी प्रकार निर्गुण साधना के लिए सगुण की स्वीकृति अनिवार्य है। ब्रह्म के दो रूप विद्यमान हैं सगुण और निर्गुण। सगुण रूप की अपेक्षा निर्गुण रूप दुर्लभ है, सगुण भगवान सुगम है-
सगुण रूप सुलभ अति,
निर्गुण जानि नहीं कोई,
सुगम अगम नाना चरित,
सुनि-सुनि मन भ्रम होई।
प्राचीनतम काल से ही परमात्मा-ब्रह्म के अस्तित्व के विषय में भारतीय दर्शन में वाद-विवाद चर्चित है। ऋग्वेद में पुरूष सूक्त के अंतर्गत विराट पुरूष को सृष्टि का नियंता माना गया है। वह त्रिगुणातीत होने के कारण संसार से निर्लिप्त रहता है। अथर्ववेद में व्रत, तपस्या एवं ज्ञानमार्गी व्रात्यों का आलेखन है। व्रात्यों को महादेव की संज्ञा भी प्राप्त है। उपनिषद् युग में चिंतन की शैली में पर्याप्त विकास हुआ है, और पुरुष को सत् और असत् से परे बताया तथा सूक्ष्म ब्रह्म के लिए निर्गुण विशेषण का प्रयोग लिया गया। उसे अत्यंत सूक्ष्म और इंद्रियातीत माना गया है। छांदोग्योपनिषद में विश्व पुरुष के रूप में ब्रह्म को आत्मा में व्याप्त माना है। उसकी सूक्ष्म स्थिति का प्रयोग करने के लिए वेदों में ‘नेति-नेति’ कहा गया है। कठोपनिषद में ब्रह्म को अस्पृश्य, अरूप, अरस, नित्य, अनादि, अनंत, महान, अशब्द आदि की संज्ञा दी गयी है। कुछ उपनिषदों में ब्रह्म के पर्याय के रूप में ‘निरंजन’ शब्द का प्रयोग किया गया है। ‘गीता’ में श्रीकृष्ण ने स्वयं को निर्गुण रूप, अविनाशी, सर्वव्यापी, निर्विकार और इंद्रियातीत कहा है। इससे स्पष्ट है कि जिस निर्गुण मार्ग का संतों ने आश्रय लिया वह भारतीय धर्म साहित्य-चिंतन और दर्शन के लिए कोई नूतन वस्तु नहीं है। संत मत उसकी श्रृंखला की कड़ी के रूप में विद्यमान है। वस्तुत: संत वे हैं जो विषयों के प्रति निषेध रहे, सत्कर्म करे, किसी से वैर प्रदर्शित न करें, निसंग, निष्काम, पुरुष संत हैं। कालांतर में संत शब्द गूढ़ हो गया और उसका प्रयोग विशिष्ट प्रकार के भक्तों के लिए होने लगा। 10वीं सदी तक इस्लाम धर्म सिया-सुन्नी, जैन धर्म श्वेताम्बर-दिगम्बर, सनातन हिंदू धर्म शैव-वैष्णव-शाक्त, और बौद्ध धर्म वज्रयान-हीनयान की तंत्र-मंत्र साधना में परिणित हो गया। संतों ने दुराचार को फैलाने वाले सिद्धांतों का विरोध किया और एकेश्वरवाद तथा हठयोग की स्थापना की। अध्ययनहीनता के कारण धीरे-धीरे नाथपंथ का भी पदार्पण हुआ। उसी समय स्वामी रामानंद का प्रभाव बढ़ा। उनके शिष्य सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार के भक्त थे।
संत मत के अनुसार संत कबीर भी रामानंद के बारह शिष्यों में से एक प्रमुख शिष्य थे। संत मत में विशेषकर कबीर का काव्य प्रमुख विषय है। ज्ञानपूर्ण भक्ति और वह भी निर्गुण सत्ता के प्रति है, जिन्हें कबीर राम, सत्यपुरुष, अलख निरंजन, स्वामी और शून्य आदि से पुकारते हैं। आलंबन के निर्गुण-निराकार होने के कारण कबीर की भक्ति में रहस्य का पुट आ गया है। आत्मा-परमात्मा का अंश है, इस संसार में वह आत्मा के विरहिणी के रूप में वर्तमान है पर सांसारिकता ने इसे संकुचित कर दिया है।
भक्ति बिना दिखे नहिं, इत नयनन हरि रूप,
साधुन को पागट भयो, बिना भक्ति हरि रूप।
संतों में गतानुगतिकता की यात्रा बढ़ने से संतकाव्यों की विशेषताओं का नाश हो गया। अपने निहित स्वार्थ वाले मठों के समान अपने ही बनाये बंधनों में जकड़ता गया। निर्गण की उपासना, मिथ्याडंबर का विरोध, गुरु की महत्ता, जाति-पांति के भेदभाव का विरोध, वैयक्तिक साधना पर जोर, रहस्यवादी प्रवृत्ति, साधारण धर्म का प्रतिपादन, विरह की मार्मिकता, नारी के प्रति दोहरा दृष्टिकोण, भजन, नामस्मरण, संतप्त, उपेक्षित, उत्पीड़ित मानव को परिज्ञान प्रदान करना आदि संत काव्य के मुख्य प्रयोजन हैं। निर्गुण आचरण की पवित्रता का संदेश लेकर जनता के सामने उपस्थित हुआ। वैष्णव नैतिक सिद्धांत, भक्ति की भावना, औपनिषदिक निर्गुणवाद, बौद्ध साधकों एवं नाथपंथियों के पारिभाषित शब्द, सूफी साधकों की साधना का अपूर्व संमिश्रण है। सगुण का प्रयोग करने वाले रामनुजाचार्य, माधवाचार्य, विष्णुस्वामी और निम्बाकाचार्य थे, जिन्होंने क्रमश: विशिष्टादैत, द्वैताभाव, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत का स्थापन किया। सगुण भक्ति का उपलब्ध ग्रंथ ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ तथा वाल्मिकी रामायण है। इसके अनुसार भगवान आभावान, सखागत वत्सल, करूणायतन तीन प्रकार के रूप में निवास करते हैं।
संक्षेप में कहें तो निर्गुण-सगुण दोनों में गुरु को अत्यंत महत्व दिया गया है। गुरु ही साधक को ईश्वर तक पहुंचाने का साधन है। शैतान अथवा माया के व्यामघातों से गुरु की कृपा से ही बचाव होता है। गुरु ही मुक्ति प्राप्ति का समवायी कारक है।
‘गुरु बिन होई न ग्यान’ और ग्यान के बिना मुक्ति असंभव है। दोनों में ‘प्रेम’ का उच्चस्थान प्रतिपादित किया गया है। संतों के यहां प्रेम व्यक्तिगत साधना में व्यवहृत है जबकि सूफियों में लौकिक प्रेम के द्वारा अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना है। निर्गुण मेें प्रेम मुख्य है और सगुण में गौण। दोनों साधक है। दोनों पर प्रयोग, भारतीय अद्वैतवाद, वैष्णवी-अहिंसा का समान रूप से प्रभाव है। दोनों ही निराकार ईश्वर को मानते हैं। जाति-पांति, उंच-नीच का कोई भेदभाव नहीं मानते। माया या शैतान दोनों ही के साधना पथ में बाधक हैं। सगुणों ने माया को कनक-कामिनी कहा है, महाठगिनी माना है। प्रेम की दृढ़ता के लिए निर्गुणों ने शैतान की आवश्यकता को स्वीकार किया है। दोनों अव्यक्त सत्ता की प्राप्ति का संकेत करते हैं। दोनों ही रहस्यवादी हैं। दोनों के मत में रहस्यवाद से मिलन प्रेम द्वारा संभव है। आचार्य शुक्ल के अनुसार निर्गुणवादी का रहस्यवाद शुद्ध भावात्मक कोटि में आता है, जबकि सगुणवादी का रहस्यवाद साधनात्मक कोटि में क्योंकि उसमें विविध यौगिक प्रक्रियाओं का उल्लेख है। दोनों ने विरह का उन्मुक्त गान गाया है, दोनों में एक तीव्र कसक एवं वेदना है। निर्गुण का विरह तो विश्वव्यापी है। उन्होंने संपूर्ण जगत को मिथ्या माना है। विरह-वर्णन में प्रकृति की भी उपेक्षा की है, फिर भी उनका विरह व्यक्तिगत बनकर रह गया है।

कृष्ण भक्ति काव्यधारा की प्रमुख विशेषतायें


भारतीय धर्म और संस्कृति के इतिहास में कृष्ण सदैव एक अद्भुत व विलक्षण व्यक्तित्व माने जाते रहें है| हमारी प्राचीन ग्रंथों में यत्र – तत्र कृष्ण का उल्लेख मिलता है जिससे उनके जीवन के विभिन्न रूपों का पता चलता है|
यदि वैदिक व संस्कृत साहित्य के आधार पर देखा जाए तो कृष्ण के तीन रूप सामने आते है –
१. बाल व किशोर रूप, २. क्षत्रिय नरेश, ३. ऋषि व धर्मोपदेशक |
श्रीकृष्ण विभिन्न रूपों में लौकिक और अलौकिक लीलाएं दिखाने वाले अवतारी पुरूष हैं | गीता, महाभारत व विविध पुराणों में उन्ही के इन विविध रूपों के दर्शन होतें हैं |
कृष्ण महाभारत काल में ही अपने समाज में पूजनीय माने जाते थे | वे समय समय पर सलाह देकर धर्म और राजनीति का समान रूप से संचालन करते थे | लोगों में उनके प्रति श्रद्या और आस्था का भाव था | कृष्ण भक्ति काव्य धारा के कवियों ने अपनी कविताओं में राधा – कृष्णा की लीलाओं को प्रमुख विषय बनाकर वॄहद काव्य सॄजन किया। इस काव्यधारा की प्रमुख विशेशतायें इस प्रकार है–
१. राम और कृष्ण की उपासना
समाज में अवतारवाद की भावना के फलस्वरूप राम और कृष्ण दोनों के ही रूपों का पूजन किया गया |
दोनों के ही पूर्ण ब्रह्म का प्रतीक मानकर, आदर्श मानव के रूप में प्रस्तुत किया गया |
किंतु जहाँ राम मर्यादा पुरषोत्तम के रूप में सामने आते हैं, बही कृष्ण एक सामान्य परिवार में जन्म लेकर सामंती
अत्याचारों का विरोध करते हैं | वे जीवन में अधिकार और कर्तव्य के सुंदर मेल का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं |
वे जिस तन्मयता से गोपियों के साथ रास रचाते हैं , उसी तत्परता से राजनीति का संचालन करते हैं या फ़िर महाभारत के युद्ध भूमि में गीता उपदेश देते हैं |
इस प्रकार से राम व कृष्ण ने अपनी अपनी चारित्रिक विशेषताओं द्वारा भक्तों के मानस को आंदोलित किया |
२. राधा-कृष्ण की लीलाएं
कृष्णा – भक्ति काव्य धारा के कवियों ने अपनी कविताओं में राधा – कृष्णा की लीलाओं को प्रमुख विषय बनाया |
श्रीमदभागवत में कृष्ण के लोकरंजक रूप को प्रस्तुत किया गया था |
भागवत के कृष्ण स्वंय गोपियों से निर्लिप्त रहते हैं |
गोपियाँ बार – बार प्रार्थना करती है , तभी वे प्रकट होतें हैं जबकि हिन्दी कवियों के कान्हा एक रसिक छैला बनकर गोपियों का दिल जीत लेते है |
सूरदास जी ने राधा – कृष्ण के अनेक प्रसंगों का चित्रण ककर उन्हें एक सजीव व्यक्तित्व प्रदान किया है |
हिन्दी कवियों ने कृष्ण ले चरित्र को नाना रूप रंग प्रदान किये हैं , जो काफी लीलामयी व मधुर जान पड़ते हैं |
३. वात्सल्य रस का चित्रण
पुष्टिमार्ग प्रारंभ हुया तो बाल कृष्ण की उपासना का ही चलन था | अत : कवियों ने कृष्ण के बाल रूप को पहले पहले चित्रित किया |
यदि वात्सल्य रस का नाम लें तो सबसे पहले सूरदास का नाम आता है, जिन्हें आप इस विषय का विशेषज्ञ कह सकते हैं | उन्होंने कान्हा के बचपन की सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधियाँ भी ऐसी चित्रित की है, मानो वे स्वयं वहाँ उपस्थित हों |
मैया कबहूँ बढेगी चोटि ?
किनी बार मोहिं ढूध पियत भई , यह अजहूँ है छोटी |
सूर का वात्सल्य केवल वर्णन मात्र नहीं है | जिन जिन स्थानों पर वात्सल्य भाव प्रकट हो सकता था , उन सब घटनाओं को आधार बनाकर काव्य रचना की गयी है | माँ यशोदा अपने शिशु को पालने में सुला रही हैं और निंदिया से विनती करती है की वह जल्दी से उनके लाल की अंखियों में आ जाए |
जसोदा हरी पालनै झुलावै |
हलरावै दुलराय मल्हरावै जोई सोई कछु गावै |
मेरे लाल कौ आउ निंदरिया, काहै मात्र आनि सुलावै |
तू काहे न बेगहि आवे, तो का कान्ह बुलावें |
कृष्णा का शैशव रूप घटने लगता है तो माँ की अभिलाषाएं भी बढ़ने लगती हैं | उसे लगता है की कब उसका शिशु उसका शिशु उसका आँचल पकड़कर डोलेगा | कब, उसे माँ और अपने पिता को पिता कहके पुकारेगा , वह लिखते है –
जसुमति मन अभिलाष करै,
कब मेरो लाल घुतरुवनी रेंगै, कब घरनी पग द्वैक भरे,
कब वन्दहिं बाबा बोलौ, कब जननी काही मोहि ररै ,
रब घौं तनक-तनक कछु खैहे, अपने कर सों मुखहिं भरे
कब हसि बात कहेगौ मौ सौं, जा छवि तै दुख दूरि हरै|
सूरदास ने वात्सल्य में संयोग पक्ष के साथ – साथ वियोग का भी सुंदर वर्णन किया है | जब कंस का बुलावा लेकर अक्रूर आते हैं तो कृष्ण व बलराम को मथुरा जाना पङता है | इस अवसर पर सूरदास ने वियोग का मर्म्स्पर्सी
चित्र प्रस्तुत किया है | यशोदा बार बार विनती करती हैं कि कोई उनके गोपाल को जाने से रोक ले |
जसोदा बार बार यों भारवै
है ब्रज में हितू हमारौ, चलत गोपालहिं राखै
जब उधौ कान्हा का संदेश लेकर आते हैं, तो माँ यशोदा का हृदय अपने पुत्र के वियोग में रो देता है, वह देवकी को संदेश भिजवाती हैं |
संदेस देवकी सों कहियो।
हों तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो||
उबटन तेल तातो जल देखत ही भजि जाने
जोई-चोर मांगत सोइ-सोइ देती करम-करम कर न्हाते |
तुम तो टेक जानतिही धै है ताऊ मोहि कहि आवै |
प्रात: उठत मेरे लाड लडैतहि माखन रोटी भावै |
४. श्रृंगार का वर्णन
कृष्ण भक्त कवियों ने कृष्ण व गोपियों के प्रेम वर्णन के रूप में पूरी स्वछंदता से श्रृंगार रस का वर्णन किया है | कृष्ण व गोपियों का प्रेम धीरे – धीरे विकसित होता है | कृष्ण , राधा व गोपियों के बीच अक्सर छेड़छाड़ चलती रहती है –
तुम पै कौन दुहावै गैया
इत चितवन उन धार चलावत, यहै सिखायो मैया |
सूर कहा ए हमको जातै छाछहि बेचनहारि |
कवि विद्यापति ने कृष्ण के भक्त-वत्सल रूप को छोड़ कर शृंगारिक नायक वाला रूप ही चित्रित किया है |
विद्यापति की राधा भी एक प्रवीण नायिका की तरह कहीं मुग्धा बनाती है , तो कभी कहीं अभिसारिका | विद्यापति
के राधा – कृष्ण यौवनावस्था में ही मिलते है और उनमे प्यार पनपने लगता है |
प्रेमी नायक , प्रेमिका को पहली बार देखता है तो रमनी की रूप पर मुग्ध हो जाता है |
सजनी भलकाए पेखन न मेल
मेघ-माल सयं तड़ित लता जनि
हिरदय सेक्ष दई गेल |
हे सखी ! मैं तो अच्छी तरह उस सुन्दरी को देख नही सका क्योंकि जिस प्रकार बादलों की पंक्ति में एका एअक
बिजली चमक कर चिप जाती है उसी प्रकार प्रिया के सुंदर शरीर की चमक मेरे ह्रदय में भाले की तरह उतर गयी
और मै उसकी पीडा झेल रहा हूँ |
विद्यापति की राधा अभिसार के लिए निकलती है तो सौंप पाँव में लिप्त जाता है | वह इसमे भी अपना भला
मानती है , कम से कम पाँव में पड़े नूपुरों की आवाज़ तो बंद हो गयी |
इसी प्राकार विद्यापति वियोग में भी वर्णन करते हैं | कृष्ण के विरह में राधा की आकुलता , विवशता ,
दैन्य व निराशा आदि का मार्मिक चित्रण हुया है |
सजनी, के कहक आओव मधाई |
विरह-पयोचि पार किए पाऊव, मझुम नहिं पति आई |
एखत तखन करि दिवस गमाओल, दिवस दिवस करि मासा |
मास-मास करि बरस गमाओल, छोड़ लूँ जीवन आसा |
बरस-बरस कर समय गमाओल, खोल लूं कानुक आसे |
हिमकर-किरन नलिनी जदि जारन, कि कर्ण माधव मासे |
इस प्रकार कृष्ण भक्त कवियों ने प्रेम की सभी अवस्थाओं व भाव-दशाओं का सफलतापूर्वक चित्रण किया है |
५. भक्ति भावना
यदि भक्त – भावना के विषय में बात करें तो कृष्ण भक्त कवियों में सूरदास , कुंमंदास व मीरा का नाम उल्लेखनीय है |
सूरदासजी ने वल्लभाचार्य जी से दीक्षा ग्रहण कर लेने के पूर्व प्रथम रूप में भक्ति – भावना की व्यंजना की है |
नाथ जू अब कै मोहि उबारो
पतित में विख्यात पतित हौं पावन नाम विहारो||
सूर के भक्ति काव्य में अलौकिकता और लौकितता , रागात्मकता और बौद्धिकता , माधुर्य और वात्सल्य सब मिलकर एकाकार हो गए हैं |
भगवान् कृष्ण के अनन्य भक्ति होने के नाते उनके मन से से सच्चे भाव निकलते हैं | उन्होंने ही भ्रमरनी परम्परा को नए रूप में प्रस्तुत किया | भक्त – शोरोमणि सूर ने इसमे सगुणोपासना का चित्रण , ह्रदय की अनुभूति के आधार पर किया है |
अंत में गोपियों अपनी आस्था के बल पर निर्गुण की उपासना का खंडन कर देती हैं |
उधौ मन नाहिं भए दस-बीस
एक हुतो सो गयो श्याम संग
को आराधै ईश |
मीराबाई कृष्ण को अपने प्रेमी ही नही , अपितु पति के रूप में भी स्मरण करती है | वे मानती
है कि वे जन्म – जन्म से ही कृष्ण की प्रेयसी व पत्नी रही हैं | वे प्रिय के प्रति आत्म – निवेदन व उपालंभ के रूप
में प्रणय – वेदना की अभिव्यक्ति करती है |
देखो सईयां हरि मन काठ कियो
आवन कह गयो अजहूं न आयो, करि करि गयो
खान-पान सुध-बुध सब बिसरी कैसे करि मैं जियो
वचन तुम्हार तुमहीं बिसरै, मन मेरों हर लियो
मीरां कहे प्रभु गिरधर नागर, तुम बिन फारत हियो |
भक्ति काव्य के क्षेत्र में मीरा सगुण – निर्गुण श्रद्धा व प्रेम , भक्ति व रहस्यवाद के अन्तर को भरते हुए , माधुर्य
भाव को अपनाती है | उन्हें तो अपने सांवरियां का ध्यान कराने में , उनको ह्रदय की रागिनी सुनाने व उनके सम्मुख नृत्य करने में ही आनंद आता है |
आली रे मेरे नैणां बाण पड़ीं |
चित चढ़ी मेरे माधुरी मुरल उर बिच आन अड़ी |
कब की ठाढ़ी पंछ निहारूं अपने भवन खड़ी |
६. ब्रज भाषा व अन्य भाषाओं का प्रयोग
अनेक कवियों ने निःसंकोच कृष्ण की जन्मभूमि में प्रचलित ब्रज भाषा को ही अपने काव्य में प्रयुक्त किया। सूरदास व नंददास जैसे कवियों ने भाषा के रूप को इतना निखार दिया कि कुछ समय बाद यह समस्त उत्तरी भारत की साहित्यिक भाषा बन गई।
यद्यपि ब्रज भाषा के अतिरिक्त कवियों ने अपनी-अपनी मातृ भाषाओं में कृष्ण काव्य की रचना की। विद्यापति ने मैथिली भाषा में अनेक भाव प्रकट किए।
सप्ति हे कतहु न देखि मधाई
कांप शरीर धीन नहि मानस, अवधि निअर मेल आई
माधव मास तिथि भयो माधव अवधि कहए पिआ गेल।
मीरा ने राजस्थानी भाषा में अपने भाव प्रकट किए।
रमैया बिन नींद न आवै
नींद न आवै विरह सतावै, प्रेम की आंच हुलावै।
प्रमुख कवि
महाकवि सूरदास को कृष्ण भक्त कवियों में सबसे ऊँचा स्थान दिया जाता है। इनके द्वारा रचित ग्रंथों में “सूर-सागर”, “साहित्य-लहरी” व “सूर-सारावली” उल्लेखनीय है। कवि कुंभनदास अष्टछाप कवियों में सबसे बड़े थे, इनके सौ के करीब पद संग्रहित हैं, जिनमें इनकी भक्ति भावना का स्पष्ट परिचय मिलता है।
संतन को कहा सींकरी सो काम।
कुंभनदास लाल गिरधर बिनु और सवै वे काम।
इसके अतिरिक्त परमानंद दास, कृष्णदास गोविंद स्वामी, छीतस्वामी व चतुर्भुज दास आदि भी अष्टछाप कवियों में आते हैं किंतु कवित्व की दृष्टि से सूरदास सबसे ऊपर हैं।
राधावल्लभ संप्रादय के कवियों में “हित-चौरासी” बहुत प्रसिद है, जिसे श्री हित हरिवंश जी ने लिखा है। हिंदी के कृष्ण भक्त कवियों में मीरा के अलावा बेलिकिशन रुक्मिनी के रचयिता पृथ्वीराज राठौर का नाम भी उल्लेखनीय है।
कृष्ण भक्ति धारा के कवियों ने अपने काव्य में भावात्मकता को ही प्रधानता दी। संगीत के माधुर्य से मानो उनका काव्य और निखर आया। इनके काव्य का भाव व कला पक्ष दोनों ही प्रौढ़ थे व तत्कालीन जन ने उनका भरपूर रसास्वादन किया। कृष्ण भक्ति साहित्य ने सैकड़ो वर्षो तक भक्तजनो का हॄदय मुग्ध किया । हिन्दी साहित्य के इतिहास मे कृष्ण की लीलाओ के गान, कृष्ण के प्रति सख्य भावना आदि की दॄष्टि से ही कृष्ण काव्य का महत्व नही है, वरन आगे चलकर राधा कृष्ण को लेकर नायक नायिका भेद , नख शिख वर्णन आदि की जो परम्परा रीतिकाल में चली , उस के बीज इसी काव्य मे सन्निहित है।रीतिकालीन काव्य मे ब्रजभाषा को जो अंलकॄत और कलात्मक रूप मिला , वह कृष्ण काव्य के कवियों द्वारा भाषा को प्रौढ़ता प्रदान करने के कारण ही संभव हो सका।

भक्ति आंदोलन



उत्तरी भारत में चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक फैली भक्ति की लहर समाज के वर्ण, जाति, कुल और धर्म की सीमाएं लांघ कर सारे जनमानस की चेतना में परिव्याप्त हो गई थी, जिसने एक जन-आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया था। भक्ति आंदोलन का एक पक्ष था साधन या भक्त के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति अथवा भगवान के साथ मिलन, चाहे भगवान का स्वरूप सगुण था या निर्गुण। दूसरा पक्ष था समाज में स्थित असमानता का। ऊंच-नीच की भावना अथवा एक वर्ण, जाति या धर्म के लोगों का दूसरे वर्ण व जाति या धर्म के लोगों के प्रति किए गए अत्याचार, अन्याय और शोषण का विरोध। इस प्रकार संतो ने असहमति और विरोध का नारा बुलंद किया।
साथ ही निर्गुण संतों ने भक्ति के माध्यम से सामाजिक भेदभाव, आर्थिक शोषण, धार्मिक अंधविश्वासों और कर्मकांडों के खोखलेपन का पर्दाफाश किया और समाज में एकात्मक्ता और भाईचारे की भावना को फैलाने का पुरजोर प्रयत्न किया। समानतावादी व्यवस्था में आस्था रखने वालों में कबीर, दाऊद, रज्जबदास, रैदास, सूरदास आदि आते ही हैं तो साथ ही सिख संप्रदाय के जन्मदाता नानक और उनके संप्रदाय को बढ़ाने वाले सिख गुरु भी शामिल हैं। सूफी धर्म मत से प्रभावित संत और मुल्ला दाऊद, कुतुबन, जायसी और मंझन इत्यादि को भी विस्तृत भक्ति आंदोलन में शामिल रचना उचित है। उनके विचार से प्रेम की पीर के द्वारा अपनी माशूका अर्थात् प्रियतमा के साथ मिलन अर्थात फना हो जाना भगवद् भक्ति का ही दूसरा स्वरूप था।
मध्यकालीन भारत में हिंदू-मुस्लिम एकता और धार्मिक सहिष्णुता का झंडा लहराने वालों में सबसे पहले कबीर का नाम लिया जाता है। लेकिन इससे पहले महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत नामदेव जिनका जन्म और प्रभ्रमण 1260-1350 का माना जाता है। और जिनके अभंग मराठी और हिंदी दोनों में उपलब्ध हैं-धार्मिक सहिष्णुता की उद्घोषणा करते हुए कहते हैं-
हिंदू पूजै देहुरा, मुस्सलमान मसीत।
नामे कोई सेविया, जहं देहुरा न मसीत।।
हिंदु मंदिर में पूजा करते हैं, मुलमान मस्जिद में, जो (भगवान का) नाम स्मरण करता है वहां न मंदिर है न मस्जिद।
नामदेव गोविंद या विट्ठलदेव के भक्त थे किंतु वे भगवान के लिए राम, विट्ठल, मुरारी, रहीम, करीम आदि नामों से पुकारते हैं।
चौदहवीं सदी में धार्मिक सहिष्णुता का नारा उठाने वालों में अमीर खुसरो का नाम अग्रणी है। यह बात उनके एक ही शेर से स्पष्ट की जा सकती है-
मा ब इश्क-ए यार अगर दर किब्ला गर दर बुतकदा
अशिकान-ए-दोस्त रा अज कुफ्र ओ इमान कार नीस्त।
मैं यार (भगवान) क इश्क में काबा में रहूं या मंदिर में। यार (भगवान) के आशिक को (एक को) कुफ्र या (दूसरे को) ईमान कहने का काम नहीं।
दिलचस्प बात यह है कि जहां खुसरो ने ब्रह्मणों की विद्वता, निष्ठा और सादगी की प्रशंसा की है वहीं उन्होंने उल्माओं (मुल्ला का बहुवचन) को लालची, दगाबाज और पाखंडी बताया है।
खुसरो की धार्मिक सहिष्णुता की परंपरा मुल्ला दाऊद की कृति चंदायन में परिलक्षित होती है। चंदायन की रचना 14वीं सदी के उत्तरार्द्ध में की गई। अपने संरक्षक जौनाशाह जो सुल्तान फ़िरोजशाह तुगलक के वजीर थे, के न्याय की प्रशंसा करते हुए मुल्ला दाऊद कहते हैं कि हिंदू तुरक दुहू सम राखई हिंदुओं और तुर्कों अथवा मुसलमानों को समान मानता था। उसके यहां सिंह और शेर अर्थात् मुसलमान और हिंदू एक घाट पर पानी पीते थे। यही नहीं मुल्ला दाऊद ने पुराण को कुरान के समकक्ष माना है और पहिले चार ख़लीफ़ाओं को पंडित की उपाधि दी है।
इस प्रकार कबीर धार्मिक सहिष्णुता और हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की भावना के जन्मदाता नहीं थे, लेकिन उन्होंने इस प्रवृत्ति को जन-आंदोलन का रूप प्रदान किया। साथ ही उन्होंने ब्राह्मणों को अंधविश्वास फैलाने, जात-पांत और ऊंच-नीच का समर्थन करने और थोथा ज्ञान वाले ढोंगी की संज्ञा दी है। उन्होंने सामाजिक अन्याय और शोषण के विरुद्ध असहमति और विरोध की भावना को अपनी व्यंग्य भरी वाणी के द्वारा जनता-जनार्दन तक पहुंचाया।
हिंदू-मुस्लिम भावात्मक एकता की बात इतनी बलवती हो गई थी कि कुतबन, मंझन और जायसी तथा उनके परिवर्ती सूफी कवियों ने एक नई प्रकार की रचनाएं लिखनी शुरू कर दीं। इन रचनाओं में जिन्हें प्रेमाख्यान कहा गया है और जो मसनवी परंपरा पर आधारित थीं, न केवल भक्ति और सूफी भावनाओं और विचारों को मिले-जुले रूप में प्रस्तुत किया गया है किंतु साथ ही हिंदू आचार-विचार, मान्यताओं देवी-देवताओं, संस्कार, उत्सव इत्यादि जिनको कठमुल्ला कुफ्र मानते थे, उदारतापूर्ण तथा संवेदनात्मक रूप में रेखांकित किया गया है।
सूफी कवि इस्लाम में दृढ़ विश्वास रखते थे, किंतु उनके ईश्वर जिसको वे सृजनहार कहते हैं और ब्रह्म के स्वरूप के बारे में कोई विशेष मतभेद नहीं थे। यही नहीं वह प्रेम द्वारा ईश्वर और जीव, आत्मा और परमात्मा के मिलने के आदर्श को भी रोचक रूप में भी प्रस्तुत करते हैं। वह कुरान के साथ वेद पुरान को भी पवित्र ग्रंथ मानते हैं, और पहले चार खलीफाओं को पंडित की उपाधि देते हैं। इस प्रकार सूफी कवि हिंदू-मुस्लिम सामंजस्य और भाईचारे के दृढ़ समर्थक दिखाई देते हैं।
ये रचनाएं हिंदू और मुस्लिम जनता में लोकप्रिय थीं इसका एक उदाहरण यह है कि जुम्मे की नमाज़ में मीनार से चंदायन के कुछ अंश पढ़ जाते थे। सत्रहवीं सदी के जैन लेखक बनारसीदास ने अर्धकथा में सूफी ग्रंथ मधुमालती और मृगावती पढ़ने का उल्लेख किया है।
निर्गुण और सगुण भक्ति का भेद अस्वीकार करते हुए भी उन्हें अलग-अलग दिखाने की प्राचीन परिपाटी रही है। यहां तक कि नागरी प्रचारिणी सभा के प्रतिष्ठित हिंदी साहित्य के वृहत इतिहास में निर्गुण और सगुण भक्ति साहित्य की समीक्षा अलग-अलग जिल्दों में की गई है। हमने निर्गुण और सगुण भक्ति को समानांतर धाराओं के रूप में देखने का प्रयास किया है।
16वीं सदी में भारत में संक्रमण का काल है। इस काल में निर्गुण और सगुण भक्ति दोनों अबाध धाराओं के रूप में विकसित होती रही हैं। साथ ही सूफी प्रेमाख्यानक काव्य भी लिखे जाते रहे। इसी काल में नानक ने सिख संप्रदाय की नींव डाली और कबीर, रैदास इत्यादि के विचारों को एक नया स्वरूप दिया। नानक के सहिष्णुतावादी और मनुष्य में भाईचारे और समानता की भावना, और अहंभाव को त्याग कर निराकार ब्रह्म का नाम लेने के महत्त्व को इसी परिप्रेक्ष्य से प्रस्तुत किया गया है।
16वीं शती की उपर्युक्त धाराओं में कोई टकराव नहीं था। किंतु उन्होंने एक-दूसरे को किस हद तक प्रभावित किया, यह कहना कठिन है। न ही यह हमारी सोच का विषय है।
प्रस्तुत पुस्तक में मीरा, सूर, नानक, दादू और तुलसी के सामाजिक सहिष्णुतावादी और मानवतावादी तत्त्वों का विवेचन किया गया है। सोलहवीं सदी में चैतन्य ने पूर्वी भारत में, और उत्तर भारत में मीरा, सूर और तुलसी ने कृष्ण और राम की रास-लीलाओं और अनन्य भक्ति को ऐसे धरातल पर पहुंचा दिया कि उनकी वाणी आज भी जनमानस को प्रभावित करती है।
मीरा को आमतौर से दो रूपों में देखा जा सकता है-एक पितृसत्तात्मक परिवार के विरुद्ध विद्रोह करने वाली नारी, और दूसरा कृष्ण के प्रेम में विह्वल नृत्य करने वाली प्रेममार्ग को प्रश्रय देने वाली साध्वी नारी। मीरा पर राजा द्वारा पहरा बिठा देना, ताला जड़ देना ताकि मीरा बाहर न जाए। सास-ननद का लड़ना और ताना देना मीरा का अपना अनुभव था और साथ ही वे स्त्री-जाति की असहाय स्थिति की ओर संकेत करती हैं। मीरा का विद्रोह नारी स्वतंत्रता का प्रतीक था। सामंती कोटिबद्ध समाज की मान्यताओं पर जो जात-पांत के विभाजन पर आधारित थी एक प्रकार की चुनौती थी। मीरा की भक्ति के द्वार चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का क्यों न हो खुले हुए थे।
उनके गीतों में धार्मिक ग्रंथों और कर्मकांडों की चर्चा की गई है। मीरा का प्रेम सहज-प्रेम है जिसमें सांप्रदायिकता या संकीर्णता का कहीं स्थान नहीं है। कृष्ण से बिछुड़ने की तड़पन सूफी काव्य में आत्मा रूप या राजा का परमात्मा रूपी परी या राजकुमारी के विरह में तड़पने के समान है।
सूरदास के लिए प्रेम या श्रीकृष्ण की माधुर्य भक्ति जिसमें उनकी लीलाओं का वर्णन है धर्म का सार है। वह सब प्रकार की सामाजिक और नैतिक सीमाओं का अतिक्रमण कर सकता है। एक सच्चे भक्त के लिए वे वर्ण, जाति, या कुल-भेद को महत्त्व नहीं देते। फिर भी सूरदास समाज में वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार करते हैं और उच्च-वर्ण या ब्रह्मणों का शूद्रों या निम्नवर्ण के लोगों के साथ बैठकर भोजन करना, हंस और कौए या लहसुन और कपूर के योग के समान हैं।
सूर ने ब्रज में रहने वाले पशु पालक अहीरों के सादे और निश्छल जीवन तथा उसी क्षेत्र में रहने वाले किसानों के कठिन और अभावग्रस्त जीवन को चित्रित किया है। फिर भी सूरदास ब्रज को प्रेम और आनंद के काल्पनिक लोक के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
सूरदास नारी को काम या वासना का प्रतीक नहीं मानते। वह मुख्यतः कोमलता, प्रेम, भक्ति और संवेदनाओं की मूर्ति है। सूरदास नारी के लिए भक्ति का मार्ग खोलते हैं जिसमें सामाजिक बंधन ढीले पड़ जाते हैं। किंतु मुख्य रूप से सूरदास नारी के लिए पति-सेवा को ही महत्त्व देते हैं।
समाज में एकता और हिंदू-मुसलमानों में समता और भाईचारे के विषय पर नानक और दादू के विचार बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। दादू और तुलसी दोनों का अकबर का समकालीन होना महत्त्वपूर्ण है। जिस तरह अकबर ने सुलह-कुल की नीति प्रतिपादित की, उसी तरह धार्मिक क्षेत्र में दादू ने निर्पख-साधना को प्रस्तुत किया।
उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों को दोनों कान, हाथ और आंख बताते हुए उन्हे पखा-पखी छोड़कर एक ब्रह्म की भक्ति में लाने की मंत्रणा दी। आपसी विरोध का कारण उन्होंने दोनों धर्मों के ठेकेदार मुल्लाओं और ब्रह्मणों को बताया। रूढ़िवादी धार्मिक परम्पराओं और बाह्यचारों को छोड़ने के लिए उन्होंने यहां तक कहा कि वह न हिंद है, न मुसलमान, वह तो एक ब्रह्म या रहमान में ही रमते हैं।
तुलसीदास ने समसामयिक सामाजिक परिवेश, जीवन-मूल्य एवं मानदंडों की वास्तविकता पर अपनी रचनाओं से प्रकाश डाला है। उनके अनुसार दुर्जनों और खलों की बहुसंख्या होने के कारण और उन पर नियंत्रण रखने के लिए एक श्रेष्ठ राजा की आवाश्यकता होती ही है। साथ ही तुलसी की मान्यता थी कि समाज में अलग-अलग श्रेणियों और जातियों के लोगों में अपने-अपने कार्य धर्मों में लगे रहने और दूसरों के कार्य क्षेत्रों में हस्तक्षेप न करने से ही समाज में संतुलन स्थापित है। इसलिए वे वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार करते हैं अपितु इसको वे जन्म पर नहीं गुणों के ऊपर आधारित करते हैं। इस कार्य में राजा के साथ संत का भी सहयोग आवश्यक है। संत समाज में नैतिक गुण ही नहीं फैलाते अपितु उनके संसर्ग एवं सदप्रभाव से समाज में सज्जनों का समूह बनता है जो उसमें संतुलन स्थापित करने का एक महत कार्य करता है।
तुलसी की भक्ति पारमार्थिक या पारलौकिक या भौतिक दो स्पष्ट रूपों में अभिव्यक्त हुई है। भक्ति के पारमार्थिक या पारलोकिक रूप को भक्ति का आध्यात्मकि पक्ष भी कहा जा सकता है। भक्ति का लौकिक रूप भक्त पर संत को समाज के अभ्युत्थान के साथ-साथ अच्छे मानव बनने का मार्ग दिखाता है। यही तुलसी का मानवतावाद है।
तुलसी की भक्ति भावना और उनके धार्मिक विश्वासों के आधार पर कहा जा सकता है कि एक सच्चे संत का मुख्य धर्म लोगों की सेवा और उनके दुखो का निवारण ही था। राम के दयालु चरित्र और दीन-हीनों के प्रति उनकी गहरी संवेदना के कारण ही अनेक स्थानो पर राम को गरीब-निवाज या बंदी-छोर कहा गया है। जिन वांछनीय गुणों को तुलसी ने श्रेष्ठ-जनों के लिए आवश्यक माना है, वे हैं धर्मनिर्पेक्षता और मानवतावाद।
तुलसी का समाज और समाज में संतुलन रखने के प्रयास ने उनकी नारी संबंधी अवधारणा को भी प्रभावित किया। पुरुषों की तरह समाज में अधम और खल नारियों की संख्या बहुत अधिक थी और उन पर नियंत्रण रखना बहुत आवश्यक था। यह नियंत्रण मुख्य रूप से मर्यादा पर आश्रित है, जिसके अनुसार उनको सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक नियमों का अतिक्रमण करना अनुचित था।
सत्रहवीं शती से सगुण और निर्गुण भक्ति और सूफी प्रेममार्गी विचारधारा बराबर चलती रही। सगुण भक्ति में तुलसीदास जैसा कोई मूर्धन्य विचारक और कवि तो हमें नहीं मिलता। तथापि वैष्णव भक्ति इतनी उदार थी कि रसखान और अब्दुर्रहीम खानेखाना को कृष्ण भक्ति में सराबोर होकर भक्ति रस में बहकर अपने उदगार व्यक्त करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। इस काल का सगुण भक्ति आंदोलन कितना उदार था हमें इस बात से पता चलता है कि वैष्णव भक्ति की रचना करने वालों से मुसलमानों के साथ यादवेंद्र दास कुम्हार की वार्ता, विष्णुदास छीपी थी वार्ता, सूतार कारीगर की वार्ता, इत्यादि अवर्ण व्यक्तियों के नाम आते हैं।
निर्गुण भक्ति की सहिष्णुतावादी धारा 17वीं शताब्दी के अंत तक गरीबदास, सुंदरदास, धरणीदास, रैदास आदि की रचनाओं में निरंतर अभिव्यक्ति पाती रही। इन संतों की रचनाओं में सहिष्णुतावादी विचारधारा के तहत हिंदू-मुस्लिम एकता पर ही नहीं, वरन मानवतावादी दृष्टिकोण के अनुसार सभी-मानवों में एक ही ब्रह्मांश के होने के कारण समता, समानता और बराबरी का होने का भी प्रचार किया।

भक्ति आंदोलन : रामचँद्र शुक्ल


आचार्य पं.  रामचन्द शुक्ल हिन्दी समीक्षा के प्रथम व्यवस्थित आचार्य हैं। उन्होंने अपनी समीक्षा के जितने भी प्रतिमान गढ़े हैं, वे भारतीय काव्य-शास्त्र, पाश्चात्य काव्य-शास्त्र आदि से सम्पॄक्त होने के साथ-साथ भारतीय भक्ति-शास्त्र से सबसे ज्यादा अनुप्राणित हैं । सह्रदयता का मानदंड, या लोकमंगल का मानदंड, भक्ति साहित्य से (विशेषत: मर्यादावादी राम-भक्ति से और उसके अग्रदूत तुलसी से) नि:सॄत हैं । शुक्ल जी के बाद, उनके मध्यकालीन काव्य के विश्लेषण को लेकर बहुत समीक्षाएं लिखी गयी हैं। कहीं इतिहास का आधार लेकर,काल वर्गीकरण के औचित्य का प्रश्न उठाया गया है तो कहीं कबीर, बिहारी और घनानंद को लेकर उनके द्वारा प्रदर्शित उपेक्षा तथा किये अधूरे मूल्यांकन की शिकायतें की गयी है । आज तक की जा रही इन सारी कोशिशों के बावजूद,आज भी हिन्दी-समीक्षा शुक्ल जी द्वारा स्थापित प्रतिमानों के इर्द-गिर्द मंडरा रही हैं । इसका कारण शुक्ल जी की समीक्षा की पूर्णता है।
हिन्दी-निरगुण काव्य में कबीर से आगे जाकर, कॄष्ण-काव्य मंसूर से आगे जाकर और रामकाव्य में तुलसी से आगे जाकर, कुछ खास विशेषता प्रदर्शित करना संभव नहीं था, इसलिए नवीनता के आकांक्षियों ने बाद मे निर्गुण काव्य की भास्वरता को सगुण रीतियों से ग्रस्त कर दिया था । राधाकॄष्ण के विपिनविहारी उन्मुक्त राग को महल विहारी नायक-नायिकाओं में परिणत कर दिया था मर्यादाशील राम को सरयू के कुंजों में काम के लिमग्न चित्रित कर दिया था, उसी तरह से शुक्ल जी ने विषय पर जितना कुछ लिखा है, उससे आगे जाकर उससे ज्यादा कारगर प्रतिमानों के निर्माण में अक्षम होने के कारण, कभी किसी अनामाभिन्न परंपरा की खोज के नाम पर, कभी भारतीय चिंता धारा के स्वभाविक विकास-क्रम से शुक्ल जी के अपरिचय के नाम पर, तो कभी काव्य-शास्त्रीय कला वाद के नाम पर, बहुत कुछ खींचतान का काम हो रहा है ।
शुक्ल जी के अनुसार, “भक्ति धर्म का प्राण है। वह धर्म की रसात्मक अभी-व्यक्ति हैं ।” `भक्ति के विकास’ शीर्षक अपने निबंध में (सूरदास,पॄ.  1-46) शुक्ल जी ने भारतीय चिंताधारा के स्वाभाविक विकास का अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषण किया था । वैदिक बहुदेवोपासना के बीच एकत्व की प्रतिष्ठा, यज्ञों के विधान के साथ- साथ ह्रदय की रागात्मकता से युक्त तमाम औपनिषदिक और तमाम वैदिक चर्चाओं का विश्लेषण करते हुए शुक्ल जी ने भक्ति के संदर्भ मे भारतीय चिंता धारा के स्वाभाविक विकास की विस्तॄत छानबीन की है । विस्तॄत विश्लेषण के बाद उन्होंने निष्कर्ष दिया हैं, “धर्म का प्रवाह कर्म, ज्ञान और भक्ति इन तीन धाराओं में चलता है । भक्ति धर्म का प्राण है। वह उसकी रसात्मक अभी-व्यक्ति है । भक्ति के क्षेत्र में धर्म प्यार से पुकारने वाला पिता है । उसके सामने भक्त भोले-भाले बच्चों के समान जाता है। कभी उसके ऊपर लोटता है, कभी सिर पर चढता है और पकड़ लेता हैं ।”.
हिंन्दी-साहित्य के आदि काव्य की सामग्री के विश्लेषण में शुक्ल जी ने वीर, नीति और श्रॄंगार परक रचनाओं की सामग्री की प्राप्ति के साथ-साथ धर्म के साहित्य की प्राप्ति को भी स्वीकार किया हैं। लेकिन भक्ति-काव्य की उत्पत्ति जन्य परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा, “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के ह्रदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश नही रह गया । इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जन समुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छायी रही । अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था ?”.
आचार्य शुक्ल की इस स्थापना का अत्यंत तीक्ष्ण खंडन, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने किया था । द्विवेदी जी के अनुसार, “इस्लाम जैसे सुगठित, धार्मिक और सामाजिक मतवाद से इस देश का पाला नहीं पड़ा था, इसीलिए नवगत समाज की राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक गतिविधि,इस देश के ऐतिहासिक का सारा ध्यान खींच लेती हैं । यह बात स्वाभाविक तौर पर उचित नहीं है। दुर्भाग्यवश हिंदी साहित्य के अध्ययन और लोक चक्षुगोचर करने का भार जिन विद्वानों ने अपने ऊपर लिया है, वे भी हिंन्दी साहित्य का संबंध, हिंदू जाति के साथ ही अधिक बतलाते हैं और इस प्रकार अनजान आदमी को दो ढंग से सोचने का मौका देते हैं । एक यह कि हिंदी साहित्य,एक हतदर्प पराजित जाति की संपत्ति हैं । वह एक निरंतर पतन-शील जाति की चिंताओं का मूल प्रतीक हैं । मैं इस्लाम के महत्त्व को भूल नहीं पा रह हूँ लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूं कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बाहर आना वैसा ही होता जैसा आज हैं । यह बात अत्यंत उप हासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मंदिर तोड़ रहे थे तो उसी समय अपेक्षाकॄत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की ।मुसलमानों के अत्याचार के कारण यदि भक्ति की भावधारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिंध में फिर उत्तर-भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर वह प्रकट हुई दक्षिण में ।”.
आदि काल की साहित्यिक सामग्री के विश्लेषण में, धार्मिक साहित्य की प्राप्ति के बावजुद, भक्ति काव्य के विश्लेषण में यदि शुक्लजी इस्लाम के आगमन को एक महत्त्वपूर्ण उपादान मानते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कि वे इस्लाम के आक्रमण को “भक्ति की भावधारा के उमड़ने का” मूल कारण मानते हैं । वस्तुत: शुक्ल जी भारतीय जन-जीवन की विश्रंखलता देख रहे थे । योगियों ने, तांत्रिकों ने, उसे नाना भांती नचाया  और फंसाया था । तीर्थ, व्रत, ग्रंथ, उपवास आदि का खंडन करके किसी ने उसे पिंड में ही ब्राह्मांड और ब्रह्म को खोजने की सलाह दी थी तो किसी ने मंत्रों के चमत्कार का गान किया था । जनता ने सबको सुना था, सबकापालन किया था, लेकिन उसने देखा कि पुरा -का- पुरा समाज जंजीरों में जकड़ता चला गया, मंदिर टूट रहे हैं, मठ ढहाये जा रहे हैं, योगी खदेड़े जा रहे हैं और सारे साधन काम नहीं आ रहे हैं, समूचे समाज को संचालित करने वाला कोई मूल तत्त्व नहीं रह गया हैं, जब उसका ध्यान भक्ति की ओर केन्द्रित होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस हताश में और इस निराशा में कोई नीलोत्पन श्याम होना चाहिए, जिस पर हमारी कामना की गोपियां न्योछावर हो सकें । कोई रणरंगधीर, वनवास का वरण करने वाला राम होना चाहिए जो अत्याचार, अनाचार,पापाचार के विरुद्ध खड़ा होकर घोषणा कर सके-`निशिचर हीन करौ मही’-जो गीध को, शबरी को, केवट को, शिलाबनी अहल्या को, समाज के हर पीड़ित, दलित और उपेक्षित वर्ग को अपनी करुणा से सराबोर कर सके, जो ऋषियों को अपने धनुष की छाया दे सके और आश्वस्त करते हुए कहे, “निर्भय यज्ञ करहु तुम्हरे साईं” तत्कालीन समाज की अपेक्षा का दबाव ही वह मूल कारण है जिससे प्रेरित होकर शुक्लजी भक्ति की सामाजिक भूमिका को विशेष आदर देते हैं।
भक्ति की दो धारणाएं हैं एक धारणा के अनुसार वह ईश्वर से परम अनुरिक्त है । इस धारणा के बलवान होने पर, भक्ति एकान्तिक राग अधिष्ठान बन जाती है । दूसरी धारणा के अनुसार भक्ति का अर्थ है ईश्वर के कार्यो में हिस्सा लेना (टू पार्टीसिपेट इन द वर्क आफ गाड-आनंद कुमार स्वामी)। इसी धारणा के अनुसार विभक्ति शब्द में भक्ति कार्य करती है । काव्य-शास्त्रीय ग्रंथों में `हिस्सा लेने’ के गुण के कारण ही `लक्षणा’ को भक्ति कहा गया है । आचार्य शुक्ल ने इसी द्वितीय धारणा को भक्ति का वास्तविक क्षेत्र घोषित किया है । उन्होंने भक्तों के समक्ष, एक मूर्ति विशेष को स्थान देने के साथ-साथ, ईश्वर के परम विराट (लेकिन परम यथार्थ)रुप की प्रतिष्ठा की है । तुलसी, शुक्ल जी को अकारण ही प्रिय नही है । दशरथनंदन श्रीराम को व्रह्म मानने का अतिशय आग्रह करने वाले तुलसीदास का वक्तव्य है कि भगवान का अनन्य सेवक वह है, जो यह मानता है कि यह चराचर, जड़चेतनमय जगत, ईश्वर का रुप है और मैं इस ईश्वर-रुपी जगत का सेवक हूँ :
सो अनन्य जाके असि मति न टरिअ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रुप स्वामि भगवंत ।।
इतना सब होने के बाबजूद (भारतीय चिंताधारा के स्वाभाविक विकास से पूर्णत: परिचित होने के बावजूद) शुक्ल जी जब इस्लाम के आगमन को महत्त्वपूर्ण मानते हैं तो इसका कुछ अर्थ होना चाहिए । मेरी समझ से इसका अर्थ यह है कि शुक्ल जी इस्लाम के आगमन को, भक्ति के प्रवाह के उजड़ने का `त्वराकारककरण’ मानते हैं । भारतीय चिंताधारा का शास्त्रीय एवं लोकोन्मुखी प्रवाह जिधर जा रहा था, उसकी स्वाभाविक परिणति भक्ति में ही थी, लेकिन इस्लाम जैसे सुसंगठित धार्मिक मतवाद के आक्रमण ने उसमे उसी त्वरा का काम था,जिस त्वरा का काम द्वितीय विश्व-युद्ध ने भारतीय स्वतंत्रता की प्राप्ति में किया था । धार्मिक साहित्य आदिकाव्य में था हीं । इस्लाम ने जब परिस्थितियों को बदल दिया तो फिर वीर-काव्य से प्रवॄत्ति हट गयी । मन धार्मिक साहित्य पर जाकर टिक गया ।
आदिकाव्य में धार्मिक साहित्य की धारा प्रमुख नहीं थी, इधर उसी की प्रमुखता हो गयी । वीर-गाथाओं के सॄजन के मूल में, इस्लाम द्वारा उत्पन्न नवीन परिस्थिति ही थी। युद्धरत राजाओं के दरबारी कवि उनकी वीरता का बढ़ा-चढ़ा कर गान कर रहे थे । जब परिस्थिति पराजय में परिणत हो गयी तो वीरगाथाएं कम होते-होते लुप्त हो गयी और आदिकाव्य की धार्मिक काव्य धारा, भक्ति काव्य के रुप में फूट पड़ी । शुक्ल जी का यही कहना है कि ईश्वर के अलावा और कहीं आश्रय-प्राप्ति की संभावना नहीं थी । शुक्ल जी एक ब्रह्म त्वराकारककरण’ के रुप में इस्लाम को पहचान रहे हैं । उनका वक्तव्य न तो उपहासास्पद है और न भारतीय चिंताधारा के स्वाभाविक विकास से अपरिचित होने के कारण ही है ।
शुक्ल जी ने भक्ति काव्य की समस्त काव्यधाराओं का पूर्ण आकलन एवं मूल्यांकन किया है । निर्गुण काव्यधारा ने जातिहीन, वर्गहीन,कर्मकांडहीन, आडंबर-हीन भक्ति-पद्धति का प्रचार करके, समाज के पिछड़े वर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से को संभाल लिया था, शुक्ल जी ने इसके लिए कबीर की बड़ी सराहना की है । कॄष्ण-भक्ति काव्य के उच्छल राग की गहराई (श्रॄंगार और वात्सल्य के कुरुक्षेत्र में विशेष रुप से) का उन्होंने पूर्णरुपेण महत्त्वांकन किया है । सूफी काव्य-धाराके अवदान को उन्होंने पूर्णरूपेण स्वीकारा । हाँ शुक्ल जी, राम-भक्ति की मर्यादावादी धारा के प्रति विशेष अभिरूचि रखने के कारण, राम-भक्ति में प्रवाहित रसिक संप्रदाय को स्वीकार नहीं कर सके । इस पर उन्होनें अपना आक्रोश व्यक्त किया है । इसे वे कॄष्ण भक्ति का अनुकरण मानते थे । रसिक संप्रदाय द्वारा उल्लिखित प्राचीन ग्रंथो को वे जाली मानते थे ।
अयोध्या के कुछ खास लोगों द्वारा अचानक किसी प्राचीन पांडु-लिपि की अन्वेषण को वे संदेह की दॄष्टि से देखते थे । शुक्ल जी को इसके लिए यदि कोई दोषी कहना चाहे तो कह सकता है । लेकिन शुक्ल जी के आदर्श रामराज्य के निर्माता श्रीराम की बांकी अदा, तिरछी चितवन, उनके द्वारा सीता की नीबी खोलने की बरजोरी, उनकी रस लंपटता, झाऊ के झुरमुट में उनके द्वारा स्वच्छंद परकीया-विहार आदि का चित्रण उनके मर्यादाशील मानस को भला नहीं लगता था । इन बातों को वे लीला पुरूषोत्तम के साथ स्वीकार करते थे लेकिन मर्यादा पुरूषोत्तम के साथ नहीं । कुछ लोगों की मान्यता हैं कि भक्ति के लिए तन्मयता आवश्यक है । इस तन्मयता काम, क्रोध, वैर, भय आदि भावों के द्वारा भी प्राप्त की जा सकती हैं। भागवत् में एक स्थान पर स्वीकार किया गया है—काम, क्रोध, भय आदि के द्वारा ईश्वर से जितनी तन्मयता प्राप्त की जा सकती है, उतनी भक्ति द्वारा भी नहीं । काम से गोपियों ने, क्रोध से कंस ने और वैर से शिशुपाल ने तन्मयता क्या तदरूपता प्राप्त की थी ।.इस आधार पर राम-भक्ति में भी गोपी भाव का प्रवेश की दॄष्टि से उचित हीं है । यह मात्र व्यक्तिक साधन की विधि हो सकती है । इसमें समुचे समाज की मुक्ति-कामना नहीं है । शुक्ल जी का मर्यादावादी मन ऐसी भक्ति-पद्धति और काव्य-पद्धति का पोषक है, जिसमें “सुरसरि सम कर हित” की कामना भरी हुई हो । शुक्लजी पूरे समाज की मुक्ति चाहते थे । शुक्ल जी का समय भारतीय जनता की मुक्ति-कामना का समय था । गांधी पूरे भारतीय जीवन की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई कर रहे थे । गांधी को भी आदर्श राज्य-व्यवस्था के रुप में रामराज्य ही दिखायी पड़ रहा था । शुक्ल जी ने अपना इतिहास प्रस्तुत करते हुए कहा था कि इसमें जो भी अशु-द्धियाँ हुई हो, उनके लिए क्षमा और जो कमियां रह गयी हों उनकी पूर्ति-कामना के साथ ही मैं अपना श्रम सार्थक समझ सकता हूँ । शुक्ल जी के चिंतन की कमियों (?) को दूर करने के लिए अधिक श्रम की आवश्यकता है । चालू मूहावरों से यह काम पूरा नहीं होगा । चालू मूहावरों में चिंतन का परिणाम है कि लोगों को भक्ति-धारा में भी उच्च वर्ग और निम्न वर्ग का संघर्ष दिखायी पड़ता हैं ।
“मुक्ति बोध की मुख्य स्थापना यह है कि निचली जातियों के बीच से पैदा होने वाले संतो के द्वारा निर्गुण भक्ति के रुप में भक्ति आंदोलन एक क्रांतिकारी आंदोलन के रुप में पैदा हुआ किंतु आगे चलकर ऊंची-जाति वालों ने इसकी शक्ति को पहचान कर इसे अपनाया और उसे विचारों के अनुरुप ढालकर कॄष्ण और राम की सगुण भक्ति का रुप दे डाला जिससे उसके क्रांतिकारी दांत उखाड़ लिए गये । इस प्रक्रिया में कॄष्ण-भक्ति में तो कुछ क्रांतिकारी तत्त्व बचे रह गये लेकिन रामभक्ति में जाकर तो रहे-सहे तत्त्व भी गायब हो गये । इस विश्लेषण में यह नहीं दिया गया कि निर्गुण भक्ति धारा, सगुण धारासे पूर्ववर्ती नहीं है । दक्षिण के आलवार भक्त सगुण आराधक थे, निर्गुण नहीं । उत्तर भारत में (हिन्दी में) निर्गुण भक्ति काव्य का प्रवाह नामदेव से प्रारंभ हुआ था । नाम-देव पहले सगुणोपासक थे, बिठोवा के भक्त । उन्हें यत्नपूर्वक निर्गुण साधनों की ओर मोड़ा गया था । आलवार भक्त अधिकतर निम्न वर्ग के और सगुणोपासक हैं । नामदेव भी निम्नवर्ग के हैं (दरजी हैं) लेकिन प्रारंभ में वे बिठोवा के भक्त थे उस भक्ति से उन्हें विमुख करने के लिए उनके गुरु को लंबा नाटक करना पड़ा था। अत: निम्न वर्ग के लोगों द्वारा क्रांतिकारी निर्गुण भक्ति के प्रवाह की बात ऐतिहासिक और तात्त्विक दोनों दॄष्टियों से अशुद्ध और अपूर्ण हैं ।
शुक्ल जी मर्यादावादी रामभक्ति के समर्थक हैं इसलिए नहीं कि वह उच्च-वर्णीय तुलसीदास द्वारा प्रचारित हैं बल्कि इसलिए कि उस भक्ति-पद्धति में समस्त समाज के मुक्ति की कामना है । समाज के प्रत्येक वर्ग का कल्याण भरा हुआ है । शुक्ल जी के समस्त प्रतिमान इसी से संपॄक्त हैं। 



मुक्तिबोध का भक्ति आंदोलन


सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध गंभीर चिंतक भी थे। भक्ति आंदोलन पर उनका यह आलेख कई दृष्टियों से आज भी प्रासंगिक है। पहली दफा यह ‘नयी दिशा` पत्रिका में मई १९५५ में प्रकाशित हुआ था।                               -संपादक
मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि कबीर और निर्गुण पन्थ के अन्य कवि तथा दक्षिण के कुछ महाराष्ट्रीय सन्त तुलसीदास जी की अपेक्षा अधिक आधुनिक क्यों लगते हैं? क्या कारण है कि हिन्दी-क्षेत्र में जो सबसे अधिक धार्मिक रूप से कट्टर वर्ग है, उनमें भी तुलसीदासजी इतने लोकप्रिय हैं कि उनकी भावनाओं और वैचारिक अस्‍त्रों द्वारा, वह वर्ग आज भी आधुनिक दृष्टि और भावनाओं से संघर्ष करता रहता है? समाज के पारिवारिक क्षेत्र में इस कट्टरपन को अब नये पंख भी फूटने लगे हैं। खैर, लेकिन यह इतिहास दूसरा है। मूल प्रश्न जो मैंने उठाया है उसका कुछ-न-कुछ मूल उत्तर तो है ही।
मैं यह समझता हूं कि किसी भी साहित्य का ठीक-ठीक विश्लेषण तब तक नहीं हो सकता जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बनने वाले सांस्कृतिक इतिहास को ठीक-ठीक न जान लें। कबीर हमें आपेक्षिक रूप से आधुनिक क्यों लगते हैं, इस मूल प्रश्न का मूल उत्तर भी उसी सांस्कृतिक इतिहास में कहीं छिपा हुआ है। जहां तक महाराष्ट्र की सन्त-परम्परा का प्रश्न है, यह निर्विवाद है कि मराठी सन्त-कवि, प्रमुखत:, दो वर्गों से आये हैं, एक ब्राह्मण और दूसरे ब्राह्मणेतर। इन दो प्रकार के सन्त-कवियों के मानव-धर्म में बहुत कुछ समानता होते हुए भी, दृष्टि और रुझान का भेद भी था। ब्राह्मणेतर सन्त-कवि की काव्य-भावना अधिक जनतन्त्रात्मक, सर्वांगीण आर मानवीय थी। निचली जातियों की आत्म-प्रस्थापना के उस युग में, कट्टर पुराणपन्थियों ने जो-जो तकलीफें़ इन सन्तों को दी हैं उनसे ज्ञानेश्वर-जैसे प्रचण्ड प्रतिभावन सन्त का जीवन अत्यन्त करुण कष्टमय और भयंकर दृढ़ हो गया। उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ ज्ञानेवश्वरी तीन सौ वर्षों तक छिपा रहा। उक्त ग्रन्थ की कीर्ति का इतिहास तो तब से शुरू होता है जब वह पुन: प्राप्त हुआ। यह स्पष्ट ही है कि समाज के कट्टरपन्थियों ने इन सन्तों को अत्यन्त कष्ट दिया। इन कष्टों का क्या कारण था? और ऐसी क्या बात हुई कि जिस कारण निम्न जातियां अपने सन्तों को लेकर राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में कूद पड़ीं?
मुश्किल यह है कि भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास के सुसम्बद्ध इतिहास के लिए आवश्यक सामग्री का बड़ा अभाव है। हिन्दू इतिहास लिखते नहीं थे, मुस्लिम लेखक घटनाओं का ही वर्णन करते थे। इतिहास-लेखन पर्याप्त आधुनिक है। शान्तिनिकेतन के तथा अन्य पण्डितों ने भारत के सांस्कृतिक इतिहास के क्षेत्र में बहुत अन्वेषण किये हैं। किन्तु सामाजिक-आर्थिक विकास के इतिहास के क्षेत्र में अभी तक कोई महत्वपूर्ण काम नहीं हुआ है।
ऐसी स्थिति में हम कुछ सर्वसम्मत तथ्यों को ही आपके सामने प्रस्तुत करेंगे।
(१) भक्ति-आन्दोलन दक्षिण भारत से आया। समाज की धर्मशाव़ादी वेद-उपनिषद्वादी शक्तियों ने उसे प्रस्तुत नहीं किया, वरन् आलवार सन्तों ने और उनके प्रभाव में रहनेवाले जनसाधारण ने उसका प्रसार किया।
(२) ग्यारहवीं सदी से महाराष्ट्र की गरीब जनता में भक्ति आन्दोलन का प्रभाव अत्यधिक हुआ। राजनैतिक दृष्टि से, यह जनता हिन्दू-मुस्लिम दोनों प्रकार के सामन्ती उच्चवर्गीयों से पीड़ित रही। सन्तों की व्यापक मानवतावादी वाणी ने उन्हें बल दिया। कीर्तन-गायन ने उनके जीवन में रस-संचार किया। ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि सन्तों ने गरीब किसान और अन्य जनता का मार्ग प्रशस्त किया। इस सांस्कृतिक आत्म-प्रस्थापना के उपरान्त सिर्फ एक और कदम की आवश्यकता थी।
वह समय भी शीघ्र ही आया। गरीब उद्धत किसान तथा अन्य जनता को अपना एक और सन्त, रामदास, मिला और एक नेता प्राप्त हुआ, शिवाजी। इस युग में राजनैतिक रूप से महाराष्ट्र का जन्म और विकास हुआ। शिवाजी के समस्त छापेमार युद्धों के सेनापति और सैनिक, समाज के शोषित तबकों से आये। आगे का इतिहास आपको मालूम ही है-किस प्रकार सामन्तवाद टूटा नहीं, किसानों की पीड़ाएं वैसी ही रहीं, शिवाजी के उपरान्त राजसत्ता उच्च वंशोत्पन्न ब्राह्मणों के हाथ पहुंची, पेशवाओं (जिन्हें मराठे भी जाना जाता रहा) ने किस प्रकार के युद्ध किये और वे अंगेजों के विरूद्ध क्यों असफल रहे, इत्यादि।
(३) उच्चवर्गीयों और निम्नवर्गीयों का संघर्ष बहुत पुराना है। यह संघर्ष नि:सन्देह धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक क्षेत्र में अनेकों रूपों में प्रकट हुआ। सिद्धों और नाथ-सम्प्रदाय के लोगों ने जनसाधारण में अपना पर्याप्त प्रभाव रखा, किन्तु भक्ति-आन्दोलन का जनसाधारण पर जितना व्यापक प्रभाव हुआ उतना किसी अन्य आन्दोलन का नहीं। पहली बार शूद्रों ने अपने सन्त पैदा किये, अपना साहित्य और अपने गीत सृजित किए। कबीर, रैदास, नाभा सिंपी, सेना नाई, आदि-आदि महापुरुषों ने ईश्वर के नाम पर जातिवाद के विरुद्ध आवाज बुलंद की। समाज के न्यस्त स्वार्थवादी वर्ग के विरुद्ध नया विचारवाद अवश्यंभावी था। वह हुआ, तकलीफें हुई। लेकिन एक बात हो गयी।
शिवाजी स्वयं मराठा क्षत्रिय था, किन्तु भक्ति-आंदोलन से, जाग्रत जनता के कष्टों से, खूब परिचित था, और स्वयं एक कुशल संगठक और वीर सेनाध्यक्ष था। सन्त रामदास, जिसका उसे आशीर्वाद प्राप्त था, स्वयं सनातनी ब्राह्मणवादी था, किन्तु नवीन जाग्रत जनता की शक्ति से खूब परिचित भी था। सन्त से अधिक वह स्वयं एक सामन्ती राष्ट्रवादी नेता था। तब तक कट्टरपंथी शोषक तत्वों में यह भावना पैदा हो गयी थी कि निम्नजातीय सन्तों से भेदभाव अच्छा नहीं है। अब ब्राह्मण-शक्तियां स्वयं उन्हीं सन्तों का कीर्तन-गायन करने लगीं। किन्तु इस कीर्तन-गायन के द्वारा वे उस समाज की रचना को, जो जातिवाद पर आधारित थी, मजबूत करती जा रही थीं। एक प्रकार से उन्होंने अपनी परिस्थिति से समझौता कर लिया था। दूसरे, भक्ति आन्दोलन के प्रधान सन्देश से प्रेरणा प्राप्त करनेवाले लोग ब्राह्मणों में भी होने लगे थे। रामदास, एक प्रकार से, ब्राह्मणों में से आये हुए अन्तिम सन्त हैं, इसके पहले एकनाथ हो चुके थे। कहने का सारांश यह कि नवीन परिस्थिति में यद्यपि युद्ध-सत्ता (राजसत्ता) शोषित और गरीब तबकों से आये सेनाध्यक्षों के पास थी, किन्तु सामाजिक क्षेत्र में पुराने सामन्तवादियों और नये सामन्तवादियों में समझौता हो गया था। नये सामन्तवादी कुनवियों, धनगरों, मराठों और अन्य गरीब जातियों से आये हुए सेनाध्यक्ष थे। इस समझौते का फल यह हुआ कि पेशवा ब्राह्मण हुए, किन्तु युद्ध-सत्ता नवीन सामन्तवादियों के हाथ में रही।
उधर सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में निम्नवर्गीय भक्तिर्माग के जनवादी संदेश के दांत उखाड़ लिये गये। उन सन्तों को सर्ववर्गीय मान्यता प्राप्त हुई, किन्तु उनके सन्देश के मूल स्वरूप पर कुठारघात किया गया, और जातिवादी पुराणधर्म पुन: नि:शंक भाव से प्रतिष्ठित हुआ।
(४) उत्तर भारत में निर्गुणवादी भक्ति-आन्दोलन में शोषित जनता का सबसे बड़ा हाथ था। कबीर, रैदास, आदि सन्तों की बानियों का सन्देश, तत्कालीन मानों के अनुसार, बहुत अधिक क्रांन्तिकारी था। यह आकस्मिकता न थी कि चण्डीदास कह उठता है :
शुनह मानुष भाई
शबार ऊपरे मानुष शतो
ताहार उपरे नाई।
इस मनुष्य-सत्य की घोषणा के क्रांतिकारी अभिप्राय कबीर में प्रकट हुए। कुरीतियों, धार्मिक अन्धविश्वासों और जातिवाद के विरुद्ध कबीर ने आवाज उठायी। वह फैली। निम्न जातियों में आत्मविश्वास पैदा हुआ। उनमें आत्म-गौरव का भाव हुआ। समाज की शासक-सत्ता को यह कब अच्छा लगता? निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण मत का प्रारम्भिक प्रसार और विकास उच्चवंशियों में हुआ। निर्गुण मत के विरुद्ध सगुणमत का संघर्ष निम्न वर्गों के विरुद्ध उच्चवंशी संस्कारशील अभिरूचिवालों का संघर्ष था। सगुण मत विजयी हुआ। उसका प्रारम्भिक विकास कृष्णभक्ति के रूप में हुआ। यह कृष्णभक्ति कई अर्थों में निम्नवर्गीय भक्ति-आन्दोलन से प्रभावित थी। उच्चवर्गीयों का एक भावुक तबका भक्ति-आन्दोलन से हमेशा प्रभावित होता रहा, चाहे वह दक्षिण भारत में हो या उत्तर भारत में। इस कृष्णभक्ति में जातिवाद के विरुद्ध कई बातें थीं। वह एक प्रकार से भावावेशी व्यक्तिवाद था। इसी कारण, महाराष्ट्र में, निर्गुण मत के बजाय निम्न-वर्ग में, सगुण मत ही अधिक फैला। सन्त तुकाराम का बिठोबा एक सार्वजनिक कृष्ण था। कृष्णभक्तिवाली मीरा ‘लोकलाज` छोड़ चुकी थी। सूर कृष्ण-प्रेम में विभोर थे। निम्नवर्गीयों में कृष्णभक्ति के प्रचार के लिए पर्याप्त अवकाश था, जैसा महाराष्ट्र की सन्त परम्परा का इतिहास बतलाता है। उत्तर भारत में कृष्णभक्ति-शाखा का निर्गुण मत के विरुद्ध जैसा संघर्ष हुआ वैसा महाराष्ट्र में नहीं रहा। महाराष्ट्र में कृष्ण की श्रृंगार-भक्ति नहीं थी, न भ्रमरगीतों का जोर था। कृष्ण एक तारणकर्ता देवता था, जो अपने भक्तों का उद्धार करता था, चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो। महाराष्ट्रीय सगुण कृष्णभक्ति में श्रृंगारभावना, और निर्गुण भक्ति, इन दो के बीच कोई संघर्ष नहीं था। उधर उत्तर भारत में, नन्ददास वगैरह कृष्णभक्तिवादी सन्तों की निर्गुण मत-विरोधी भावना स्पष्ट ही है। और ये सब लोग उच्चकुलोद्भव थे। यद्यपि उत्तर भारतीय कृष्णभक्ति वाले कवि उच्चवंशीय थे, और निर्गुण मत से उनका सीधा संघर्ष भी था, किन्तु हिन्दू समाज के मूलाधार यानी वर्णाश्रम-धर्म के विरोधियों ने जातिवाद-विरोधी विचारों पर सीधी चोट नहीं की थी। किन्तु उत्तर भारतीय भक्ति आन्दोलन पर उनका प्रभाव निर्णायक रहा।
एक बार भक्ति-आन्दोलन में ब्राह्मणों का प्रभाव जम जाने पर वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा में कोई देर नहीं थी। ये घोषणा तुलसीदासजी ने की थी। निर्गुण मत में निम्नजातीय धार्मिक जनवाद का पूरा जोर था, उसका क्रान्तिकारी सन्देश था। कृष्णभक्ति में वह बिल्कुल कम हो गया किन्तु फिर भी निम्नजातीय प्रभाव अभी भी पर्याप्त था। तुलसीदास ने भी निम्नजातीय भक्ति स्वीकार की, किन्तु उसको अपना सामाजिक दायरा बतला दिया। निर्गुण मतवाद के जनोन्मुख रूप और उसकी क्रान्तिकारी जातिवाद-विरोधी भूमिका के विरुद्ध तुलसीदासजी ने पुराण-मतवादी स्वरूप प्रस्तुत किया। निर्गुण-मतवादियों का ईश्वर एक था, किन्तु अब तुलसीदासजी ने मनोजगत् में परब्रह्म के निर्गुण-स्वरूप के बावजूद सगुण ईश्वर ने सारा समाज और उसकी व्यवस्था-जो जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म पर आधारित थी-उत्पन्न की। राम निषाद और गुह का आलिंगन कर सकते थे, किन्तु निषाद और गुह ब्राह्मण का अपमान कैसे कर सकते थे। दार्शनिक क्षेत्र का निर्गुण मत जब व्यावहारिक रूप से ज्ञानमार्गी भक्तिमार्ग बना, तो उसमें पुराण-मतवाद को स्थान नहीं था। कृष्णभक्ति के द्वारा पौराणिक कथाएं घुसीं, पुराणों ने रामभक्ति के रूप में आगे चलकर वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा की।
साधारण जनों के लिए कबीर का सदाचारवाद तुलसी के सन्देश से अधिक क्रान्तिकारी था। तुलसी को भक्ति का यह मूल तत्व तो स्वीकार करना ही पड़ा कि राम के सामने सब बराबर हैं, किन्तु चूंकि राम ही ने सारा समाज उत्पन्न किया है, इसलिए वर्णाश्रम धर्म और जातिवाद को तो मानना ही होगा। पं. रामचन्द्र शुक्ल जो निर्गुण मत को कोसते हैं, वह यों ही नहीं। इसके पीछे उनकी सारी पुराण-मतवादी चेतना बोलती है।
क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि रामभक्ति-शाखा के अन्तर्गत, एक भी प्रभावशाली और महत्पूर्ण कवि निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया? क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि कृष्णभक्ति-शाखा के अन्तर्गत रसखान और रहीम-जैसे हृदयवान मुसलमान कवि बराबर रहे आये, किन्तु रामभक्ति-शाखा के अन्तर्गत एक भी मुसलमान और शूद्र कवि प्रभावशाली और महत्वपूर्ण रूप से अपनी काव्यात्मक प्रतिभा विशद नहीं कर सका? जब कि यह एक स्वत: सिद्ध बात है कि निर्गुण-शाखा के अन्तर्गत ऐसे लोगों को अच्छा स्थान प्राप्त था।
निष्कर्ष यह कि जो भक्ति-आंदोलन जनसाधारण से शुरू हुआ और जिसमें सामाजिक कट्टरपन के विरुद्ध जनसाधारण की सांस्कृतिक आशा-आकांक्षाएं बोलती थीं, उसका ‘मनुष्य-सत्य` बोलता था, उसी भक्ति-आन्दोलन को उच्चवर्गीयों ने आगे चलकर अपनी तरह बना लिया, और उससे समझौता करके, फिर उस पर अपना प्रभाव कायम करके, और अनन्तर जनता के अपने तत्वों को उनमें से निकालकर, उन्होंने उस
पर अपना पूरा प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
और इस प्रकार, उच्चवंशी उच्चजातीय वर्गों का-समाज के संचालक शासक वर्गों का-धार्मिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में पूर्ण प्रभुत्व स्थापित हो जाने पर, साहित्यिक क्षेत्र में उन वर्गों के प्रधान भाव-श्रृंगार-विलास-का प्रभावशाली विकास हुआ, और भक्ति-काव्य की प्रधानता जाती रही। क्या कारण है कि तुलसीदास भक्ति-आन्दोलन के प्रधान (हिन्दी क्षेत्र में) अन्तिम कवि थे? सांस्कृतिक-साहित्यिक क्षेत्र में यह परिवर्तन भक्ति-आन्देालन की शिथिलता को द्योतित करता है। किन्तु यह आन्दोलन इस क्षेत्र में शिथिल क्यों हुआ?
ईसाई मत का भी यही हाल हुआ। ईसा का मत जनसाधारण में फैला तो यहूदी धनिक वर्गों ने उसका विरोध किया, रोमन शासकों ने उसका विरोध किया। किन्तु जब वह जनता का अपना धर्म बनने लगा, तो धनिक यहूदी और रोमन लोग भी उसको स्वीकार करने लगे। रोम शासक ईसाई हुए और सेंट पॉल ने उसी भावुक प्रेममूलक धर्म को कानूनी शिकंजों में जकड़ लिया, पोप जनता से फीस लेकर पापों और अपराधों के लिए क्षमापत्र वितरित करने लगा।
यदि हम धर्मों के इतिहास को देखें, तो यह जरूर पायेंगे कि तत्कालीन जनता की दुरवस्था के विरुद्ध उसने घोषणा की, जनता को एकता और समानता के सूत्र में बांधने की कोशिश की। किन्तु ज्यों-ज्यों उस धर्म में पुराने शासकों की प्रवृत्ति वाले लोग घुसते गये और उनका प्रभाव जमता गया, उतना-उतना गरीब जनता का पक्ष न केवल कमजोर होता गया, वरन् उसको अन्त में उच्चवर्गों की दासता-धार्मिक दासता-भी फिर से ग्रहण करनी पड़ी।
क्या कारण है कि निर्गुण-भक्तिमार्गी जातिवाद-विरोधी आन्दोलन सफल नहीं हो सका? उसका मूल कारण यह है कि भारत में पुरानी समाज-रचना को समाप्त करनेवाली पूंजीवादी क्रांतिकारी शक्तियां उन दिनों विकसित नहीं हुई थीं। भारतीय स्वदेशी पूंजीवाद की प्रधान भौतिक-वास्तविक भूमिका विदेशी पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने बनायी। स्वदेशी पूंजीवाद के विकास के साथ ही भारतीय राष्ट्रवाद का अभ्युदय और सुधारवाद का जन्म हुआ, और उसने सामन्ती समाज-रचना के मूल आर्थिक आधार, यानी पेशेवर जातियों द्वारा सामाजिक उत्पादन की प्रणाली समाप्त कर दी। गांवों की पंचायती व्यवस्था टूट गयी। ग्रामों की आर्थिक आत्मनिर्भरता समाप्त हो गयी।
भक्ति-काल की मूल भावना साधारण जनता के कष्ट और पीड़ा से उत्पन्न है। यद्यपि पण्डित हजारीप्रसाद द्विवेदी का यह कहना ठीक है कि भक्ति की धारा बहुत पहले से उद्गत होती रही, और उसकी पूर्वभूमिका बहुत पूर्व से तैयार होती रही। किन्तु उनके द्वारा निकाला गया यह तर्क ठीक नहीं मालूम होता है कि भक्ति-आन्दोलन का एक मूल कारण जनता का कष्ट है। किन्तु पण्डित शुक्ल ने इन कष्टों के मुस्लिम-विरोध और हिन्दू-राज सत्ता के पक्षपाती जो अभिप्राय निकाले हैं, वे उचित नहीं मालूम होते। असल बात यह है कि मुसलमान सन्त-मत भी उसी तरह कट्टरपन्थियों के विरुद्ध था, जितना कि भक्ति-मार्ग। दोनों एक-दूसरे से प्रभावित भी थे। किन्तु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भक्ति-भावना की तीव्र आर्द्रता और सारे दु:खों और कष्टों के परिहार के लिए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दु:स्थिति छिपी हुई थी। यहां यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि यह बात साधारण जनता और उसमें से निकले हुए सन्तों की है, चाहे वे ब्राह्मण वर्ग से निकले हों या ब्राह्मणेतर वर्ग से। साथ ही, यह भी स्मरण रखना होगा कि श्रृंगार-भक्ति का रूप उसी वर्ग में सर्वाधिक प्रचलित हुआ जहां ऐसी श्रृंगार-भावना के परिपोष के लिए पर्याप्त अवकाश और समय था, फुर्सत का समय। भक्ति-आन्दोलन का आविर्भाव, एक ऐतिहासिक-सामाजिक शक्ति के रूप में, जनता के दु:खों और कष्टों से हुआ, यह निर्विवाद है।
किसी भी साहित्य को हमें तीन दृष्टियों से देखना चाहिए। एक तो यह कि वह किन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक शक्तियों से उत्पन्न है, अर्थात् वह किन शक्तियों के कार्यों का परिणाम है, किन सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रियायों का अंग है? दूसरे यह कि उसका अन्त:स्वरूप क्या है, किन प्रेरणाओं और भावनाओं ने उसके आन्तरिक तत्व रूपायित किये हैं? तीसरे, उसके प्रभाव क्या हैं, किन सामाजिक शक्तियों ने उसका उपयोग या दुरूपयोग किया है और क्यों? साधारण जन के किन मानसिक तत्वों को उसने विकसित या नष्ट किया है?
तुलसीदासजी ने सम्बन्ध में इस प्रकार के प्रश्न अत्यन्त आवश्यक भी हैं। रामचरितमानसकार एक सच्चे सन्त थे, इसमें किसी को भी कोई सन्देह नहीं हो सकता। रामचरितमानस साधारण जनता में भी उतना ही प्रिय रहा जितना कि उच्चवर्गीय लोगों में। कट्टरपन्थियों ने अपने उद्देश्यों के अनुसार तुलसीदासजी का उपयोग किया, जिस प्रकार आज जनसंघ और हिन्दू महासभा ने शिवाजी और रामदास का उपयोग किया। सुधारवादियों की तथा आज की भी एक पीढ़ी को तुलसीदासजी के वैचारिक प्रभाव से संघर्ष करना पड़ा, यह भी एक बड़ा सत्य है।
किन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि साधारण जनता ने राम को अपना त्राणकर्ता भी पाया, गुह और निषाद को अपनी छाती से लगानेवाला भी पाया। एक तरह से जनसाधारण की भक्ति-भावना के भीतर समाये हुए समान प्रेम का आग्रह भी पूरा हुआ, किन्तु वह सामाजिक ऊंच-नीच को स्वीकार करके ही। राम के चरित्र द्वारा और तुलसीदासजी के आदेशों द्वारा सदाचार का रास्ता भी मिला। किन्तु वह मार्ग कबीर के और अन्य निर्गुणवादियों के सदाचार का जनवादी रास्ता नहीं था। सच्चाई और ईमानदारी, प्रेम और सहानुभूति से ज्यादा बड़ा तकाजा था सामाजिक रीतियों का पालन। (देखिए रामायण में अनुसूया द्वारा सीता को उपदेश)। उन रीतियों और आदेशों का पालन करते हुए, और उसकी सीमा में रहकर ही, मनुष्य के उद्धार का रास्ता था। यद्यपि यह कहना कठिन है कि किस हद तक तुलसीदासजी इन आदेशों का पालन करवाना चाहते थे और किस हद तक नहीं। यह तो स्पष्ट ही है कि उनका सुझाव किस ओर था। तुलसीदासजी द्वारा इस वर्णाश्रम धर्म की पुन:र्स्थापना के अनन्तर हिन्दी साहित्य में फिर से कोई महान भक्त-कवि नहीं हुआ तो इसमें आश्चर्य नहीं।
आश्चर्य की बात यह है कि आजकल प्रगतिवादी क्षेत्रों में तुलसीदासजी के सम्बंध में जो कुछ लिखा गया है, उसमें जिस सामाजिक-ऐतिहासिक प्रक्रिया के तुलसीदासजी अंग थे, उसको जान-बूझकर भुलाया गया है। पण्डित रामचन्द्र शुक्ल की वर्णाश्रमधर्मी जातिवादग्रस्त सामाजिकता और सच्चे जनवाद को एक दूसरे से ऐसे मिला दिया गया है मानो शुक्लजी (जिनके प्रति हमारे मन में अत्यन्त आदर है) सच्ची जनवादी सामाजिकता के पक्षपाती हों। तुलसीदासजी को पुरातनवादी कहा जायेगा कबीर की तुलना में, जिनके विरुद्ध शुक्लजी ने चोटें की हैं।
दूसरे, जो लोग शोषित निम्नवर्गीय जातियों के साहित्यिक और सांस्कृतिक संदेश में दिलचस्पी रखते हैं, और उस सन्देश के प्रगतिशील तत्वों के प्रति आदर रखते हैं, वे लोग तो यह जरूर देखेंगे कि जनता की सामाजिक मुक्ति को किस हद तक किसने सहारा दिया और तुलसीदासजी का उसमें कितना योग रहा। चाहे श्री रामविलास शर्मा-जैसे ‘मार्क्सवादी` आलोचक हमें ‘वल्गर मार्क्सवादी` या बूर्ज्वा कहें, यह बात निस्सन्देह है कि समाजशाी़य दृष्टि से मध्ययुगीन भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक शक्तियों के विश्लेषण के बिना, तुलसीदासजी के साहित्य के अन्त:स्वरूप क साक्षात्कार नहीं किया जा सकता। जहां तक रामचरितमानस की काव्यगत सफलताओं का प्रश्न है, हम उनके सम्मुख केवल इसलिए नतमस्तक नहीं हैं कि उसमें श्रेष्ठ कला के दर्शन होते हैं, बल्कि इसलिए कि उसमें उक्त मानव-चरित्र के, भव्य और मनोहर व्यक्तित्व-सत्ता के, भी दर्शन होते हैं।
तुलसीदासजी की रामायण पढ़ते हुए, हम एक अत्यन्त महान् व्यक्तित्व की छाया में रहकर अपने मन और हृदय का आप-ही-आप विस्तार करने लगते हैं और जब हम कबीर आदि महान् जनोन्मुख कवियों का सन्देश देखते हैं, तो हम उनके रहस्यवाद से भी मुंह मोड़ना चाहते हें। हम उस रहस्यवाद के समाजशाी़य अध्ययन में दिलचस्पी रखते हैं, और यह कहना चाहते हैं कि निर्गुण मत की सीमाएं तत्कालीन विचारधारा की सीमाएं थीं, जनता का पक्ष लेकर जहां तक जाया जा सकता था, वहां तक जाना हुआ। निम्नजातीय वर्गों के इस सांस्कृतिक योग की अपनी सीमाएं थीं। ये सीमाएं उन वर्गों की राजनैतिक चेतना की सीमाएं थीं। आधुनिक अर्थों में, वे वर्ग कभी जागरूक सामाजिक-राजनैतिक-संघर्ष-पथ पर अग्रसर नहीं हुए। इसका कारण क्या है, यह विषय यहां अप्रस्तुत है। केवल इतना ही कहना उपयुक्त होगा कि संघर्षहीनता के अभाव का मूल कारण भारत की सामन्तयुगीन सामाजिक-आर्थिक रचना में है। दूसरे, जहां ये संघर्ष करते-से दिखायी दिये, वहां उन्होंने एक नये सामान्ती शासक वर्ग को ही दृढ़ किया, जैसा कि महाराष्ट्र में हुआ है।
प्रस्तुत विचारों के प्रधान निष्कर्ष ये हैं :
(१) निम्नवर्गीय भक्ति-भावना एक सामाजिक परिस्थिति में उत्पन्न हुई और दूसरी सामाजिक स्थिति में परिणत हुई। महाराष्ट्र में उसने एक राष्ट्रीय जाति खड़ी कर दी, सिख एक नवीन जाति बन गये। इन जातियों ने तत्कालीन सर्वोत्तम शासक वर्गों से मोर्चा लिया। भक्तिकालीन सन्तों के बिना महाराष्ट्रीय भावना की कल्पना नहीं की जा सकती, न सिख गुरुओं के बिना सिख जाति की। सारांश यह कि भक्ति भावना के राजनैतिक गर्भितार्थ थे। ये राजनैतिक गर्भितार्थ तत्कालीन सामंती शोषक वर्गों और उनकी विचारधारा के समर्थकों के विरुद्ध थे।
(२) इस भक्ति-आन्दोलन के प्रारम्भिक चरण में निम्नवर्गीय तत्व सर्वाधिक सक्षम और प्रभावशाली थे। दक्षिण भारत के कट्टरपंथी तत्व, जो कि तत्कालीन हिन्दू सामन्ती वर्गों के समर्थक थे, इस निम्नवर्गीय सांस्कृतिक जनचेतना के एकदम विरुद्ध थे। वे उन पर तरह-तरह के उत्याचार भी करते रहे। मुस्लिम तत्वों से मार खाकर भी, हिन्दू सामन्ती वर्ग उनसे समझौता करने की विवश्ता स्वीकार कर, उनसे एक प्रकार से मिले हुए थे। उत्तर भारत में हिन्दुओं के कई वर्गों का पेशा ही मुस्लिम वर्गों की सेवा करना था। अकबर ही पहला शासक था, जिसने तत्कालीन तथ्यों के आधार पर खुलकर हिन्दू सामन्तों का स्वागत किया।
उत्तरप्रदेश तथा दिल्ली के आस-पास के क्षेत्रों में हिन्दू सामन्ती तत्व मुसलमान सामन्ती तत्वों से छिटककर नहीं रह सके। लूट-पाट, नोच-खसोट के उस युग में जनता की आर्थिक-सामााजिक दु:स्थिति गंभीर थी। निम्नवर्गीय जातियों के सन्तों की निर्गुण-वाणी का, तत्कालीन मानों के अनुसार, क्रांन्तिकारी सुधारवादी स्वर, अपनी सामाजिक स्थिति के विरुद्ध क्षोभ और अपने लिए अधिक मानवोचित परिस्थिति की आवश्यकता बतलाता था। भक्तिकाल की निम्नवर्गीय चेतना के सांस्कृतिक स्तर अपने-अपने सन्त पैदा करने लगे। हिन्दू-मुस्लिम सामन्ती तत्वों के शोषण-शासन और कट्टरपंथी दृढ़ता से प्रेरित हिन्दू-मुस्लिम जनता भक्ति-मार्ग पर चल पड़ी थी, चाहे वह किसी भी नाम से क्यों न हो। निम्नवर्गीय भक्ति-मार्ग निर्गुण-भक्ति के रूप में प्रस्फुटित हुआ। इस निर्गुण-भक्ति में तत्कालीन सामन्तवाद-विरोधी तत्व सर्वाधिक थे। किन्तु तत्कालीन समाज-रचना के कट्टर पक्षपाती तत्वों में से बहुतेरे भक्ति-आंदोलन के प्रभाव में आ गये थे। इनमें से बहुत-से भद्र सामन्ती परिवारों में से थे निर्गुण भक्ति की उदारवादी और सुधारवादी सांस्कृतिक विचारधारा का उन पर भारी प्रभाव हुआ। उन पर भी प्रभाव तो हुआ, किन्तु आगे चलकर उन्होंने भी भक्ति-आन्दोलन को प्रभावित किया। अपने कट्टरपन्थी पुराणमतवादी संस्कारों से प्रेरित होकर, उत्तर भारत की कृष्णभक्ति, भावावेशवादी आत्मवाद को लिये हुए, निर्गुण मत के विरुद्ध संघर्ष करने लगी। इन सगुण मत में उच्चवर्गीय तत्वों का पर्याप्त से अधिक समावेश था। किन्तु फिर भी इस सगुण श्रृंगारप्रधान भक्ति की इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह जाति-विरोधी सुधारवादी वाणी के विरूद्ध प्रत्यक्ष और प्रकट रूप से वर्णाश्रम धर्म के सार्वभौम औचित्य की घोषणा करे। कृष्णभक्तिवादी सूर आदि सन्त-कवि इन्हीं वर्गों से आये थे। इन कवियों ने भ्रमरगीतों द्वारा निर्गुण मत से संघर्ष किया और सगुणवाद की प्रस्थापना की। वर्णाश्रम धर्म की पुन:र्स्थापना के लिए सिर्फ एक ही कदम आगे बढ़ना जरूरी था। तुलसीदासजी के अदम्य व्यक्तित्व ने इस कार्य को पूरा कर दिया। इस प्रकार भक्ति-आन्दोलन, जिस पर प्रारंभ में निम्नजातियों का सर्वाधिक जोर था, उस पर अब ब्राह्मणवाद पूरी तरह छा गया और सुधारवाद के विरुद्ध पुराण मतवाद की विजय हुई। इसमें दिल्ली के आस-पास के क्षेत्र तथा उत्तरप्रदेश के हिन्दू-मुस्लिम सामन्ती तत्व एक थे। यद्यपि हिन्दू मुसलमानों के अधीन थे, किन्तु दु:ख और खेद से ही क्यों न सही, यह विवशता उन्होंने स्वीकार कर ली थी। इन हिन्दू सामन्त तत्वों की सांस्कृतिक क्षेत्र में अब पूरी विजय हो गयी थी।
(३) महाराष्ट्र में इस प्रक्रिया ने कुछ और रूप लिया। जन-सन्तों ने अप्रत्यक्ष रूप से महाराष्ट्र को जाग्रत और सचेत किया, रामदास और शिवाजी ने प्रत्यक्ष रूप से नवीन राष्ट्रीय जाति को जन्म दिया। किन्तु तब तक ब्राह्मणवादियों और जनता के वर्ग से आये हुए प्रभावशाली सेनाध्यक्षों और सन्तों में एक-दूसरे के लिए काफी उदारता बतलायी जाने लगी। शिवाजी के उपरान्त, जनता के गरीब वर्गों से आये हुए सेनाध्यक्षों और नेताओं ने नये सामन्ती घराने स्थापित किय। नतीजा यह हुआ कि पेशवाओं के काल में ब्राह्मणवाद फिर जोरदार हो गया। कहने का सारांश यह कि महाराष्ट्र में वही हाल हुआ जो उत्तरप्रदेश में। अन्तर यह था कि निम्नजातीय सांस्कृतिक चेतना जिसे पल-पल पर कट्टरपंथ से मुकाबला करना पड़ा था, वह उत्तर भारत से अधिक दीर्घकाल तक रही। पेशवाओं के काल में दोनों की स्थिति बराबर-बराबर रही। किन्तु आगे चलकर, अंग्रेजी राजनीति के जमाने में, पुराने संघर्षों की यादें दुहरायी गयीं, और ‘ब्राह्मण-ब्राह्मणेतरवाद` का पुनर्जन्म और विकास हुआ। और इस समय भी लगभग वही स्थिति है। फर्क इतना ही है कि निम्नजातियों के पिछड़े हुए लोग शिड्यूलकास्ट फेडरेशन में है, और अग्रगामी लोग कांग्रेस, पेजेंन्ट्स ऐण्ड वर्कर्स पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी तथा अन्य वामपक्षी दलों में शामिल हो गये हैं। आखिर जब इन्हीं जातियों में से पुराने जमाने में सन्त आ सकते थे, आगे चलकर सेनाध्यक्ष निकल सकते थे, तो अब राजनैतिक विचारक और नेता क्यों नहीं निकल सकते?
(४) सामन्तवादी काल में इन जातियों को सफलता प्राप्त नहीं हो सकती थी, जब तक कि पूंजीवादी समाज-रचना सामन्ती समाज-रचना को समाप्त न कर देती। किन्तु सच्ची आर्थिक-सामाजिक समानता तब तक प्राप्त नहीं हो सकती, जब तक कि समाज आर्थिक-सामाजिक आधार पर वर्गहीन न हो जाये।
(५) किसी भी साहित्य का वास्तविक विश्लेषण हम तब तक नहीं कर सकते, जब तक कि हम उन गतिमान सामाजिक शक्तियों को नहीं समझते, जिन्होंने मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक धरातल पर आत्मप्रकटीकरण किया है। कबीर, तुलसीदास आदि संतों के अध्ययन के लिए यह सर्वाधिक आवश्यक है। मैं इस ओर प्रगतिवादी क्षेत्र का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं।

भक्ति:उद्‌भव एवं विकास

गुजरात के स्वामी माधवाचार्य (संवत्‌ 1254-1333) ने द्वैतवादी वैष्णव सम्प्रदाय (ब्राह्म सम्प्रदाय) चलाया जिसकी ओर भी लोगों का झुकाव हुआ। इसके साथ ही द्वैताद्वैतवाद (सनकादि सम्प्रदाय) के संस्थापक निम्बार्काचार्य ने विष्णु के दूसरे अवतार कृष्ण की प्रतिष्ठा विष्णु के स्थान पर की तथा लक्ष्मी के स्थान पर राधा को रख कर देश के पूर्व भाग में प्रचलित कृष्ण-राधा (जयदेव, विद्यापती) की प्रेम कथाओं को नवीन रूप एवं उत्साह प्रदान किया। वल्लभाचार्य जी ने भी कृष्ण भक्ति के प्रसार का कार्य किया। जगत्‌प्रसिद्ध सूरदास भी इस सम्प्रदाय की प्रसिद्धि के मुख्य कारण कहे जा सकते हैं। सूरदास ने वल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेकर कृष्ण की प्रेमलीलाओं एवं बाल क्रीड़ाओं को भक्ति के रंग में रंग कर प्रस्तुत किया। माधुर्यभाव की इन लीलाओं ने जनता को बहुत रसमग्न किया। इस तरह दो मुख्य सम्प्रदाय सगुण भक्ति के अन्तर्गत अपने पूरे उत्कर्ष पर इस काल में विद्यमान थे – रामभक्ति शाखा; कृष्णभक्ति शाखा।
इसके अतिरिक्त भी दो शाखाएँ प्रचलित हुईं – प्रेममार्ग (सूफ़ी) तथा निर्गुणमार्ग शाखा।
सगुण धारा के इस विकास क्रम के समानांतर ही बाहर से आए हुए मुसलमान सूफ़ी संत भी अपने विचारों को सामान्य जनता में फैला रहे थे। मुसलमानों के इस लम्बे प्रवास के कारण भारतीय तथा मुस्लिम संस्कृति का आदान-प्रदान होना स्वाभाविक था। फिर इन सूफ़ी संतों ने भी अपने विचारों को जनसाधारण में व्याप्त करने की, अपने मतों को भारतीय आख्यानों में, भारतीय परिवेश में, यहीं की भाषा-शैली लेकर प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया। इनके मतों में कट्टरता का कहीं भी आभास नहीं था। इनका मुख्य सिद्धान्त प्रेम तत्त्व था। यद्यपि प्रेम के माध्यम से ईश्वर को पाने के लिए किए जाने वाले प्रयास – (विधि) में कुछ अन्तर अवश्य था तथापि इनके प्रेम तत्त्व के प्रतिपादन एवं प्रसार शैली ने लोगों को आकर्षित किया। इन्होंने एकेश्वरवाद का प्रतिपादन भी किया जिसे कुछ लोगों ने अद्वैतवाद ही मान लिया, जो कि उचित नहीं है। हज़रत निज़ामुद्दीन चिश्ती, सलीम चिश्ती आदि अनेक संतों ने हिन्दू-मुसलमान सबका आदर प्राप्त किया। इस सूफ़ी मत में भी चार धाराएँ मुख्यत: चलीं-
1. चिश्ती सम्प्रदाय 2. कादरी सम्प्रदाय 3. सुहरावर्दी सम्प्रदाय 4. नक्शबंदिया सम्प्रदाय।
जायसी, कुतुबन, मंझन आदि प्रसिद्ध (साहित्यकार) कवियों ने हिन्दी साहित्य को अमूल्य साहित्य रत्न भेंट किए। निर्गुणज्ञानाश्रयी शाखा पर भी इनका प्रभाव पड़ा तथा हिन्दू-मुसलमानों के भेद को मिटाने की बातें कही जाने लगीं। आचार्य शुक्ल ने भी इन्हें ‘हिन्दू और मुसलमान हृदय को आमने सामने करके अजनबीपन मिटाने वाला कहा।
रामानन्द जी उत्तर भारत में रामभक्ति को लेकर आए थे। उनके सिद्धान्तों में इस भक्ति का स्वरूप दो प्रकार का था – राम का निर्गुण रूप; राम का अवतारी रूप। ये दोनों मत एक साथ ही थे। निर्गुण रूप में राम का नाम तो होता पर उसे ‘दशरथ-सुत’ की कथा से सम्बद्ध नहीं किया जाता। रामानन्द ने देखा कि भगवान की शरण में आने के उपरान्त छूआ-छूत, जाँत-पाँत आदि का कोई बन्धन नहीं रह जाता अत: संस्कृत के पण्डित और उच्च ब्राह्मण कुलोद्‌भूत होने के पश्चात भी उन्होंने देश-भाषा में कविता लिखी और सबको (ब्राह्मण से लेकर निम्नजाति वालों तक को) राम-नाम का उपदेश दिया। कबीर इन्हीं के शिष्य थे। कबीर, रैदास, धन्ना, सेना, पीपा आदि इनके शिष्यों ने इस मत को प्रसिद्ध किया। रामनाम के मंत्र को लेकर चलने वाले अक्खड़-फक्कड़ संतों ने भेद-भाव भुला कर सबको प्रेमपूर्वक गले लगाने की बात कही। वैदिक कर्मकाण्ड के द्वारा फैले हुए आडंबरों एवं बाह्य विधि-विधानों के त्याग पर बल देते हुए राम नाम का प्रेम, श्रद्धा से स्मरण करने की सरल पद्धति और सहज समाधि का प्रसार किया। कबीर में तीन प्रमुख धाराएँ समाहित दिखाई देती हैं –
1. उत्तरपूर्व के नाथ-पंथ और सहजयान का मिश्रित रूप 2. पश्चिम का सूफ़ी मतवाद और 3. दक्षिण का वेदान्तभावित वैष्णवधर्म
हठयोग का कुछ प्रभाव इन पर अवश्य है परन्तु मुख्यत: प्रेम तत्त्व पर ही बल दिया गया है। सामाजिक सुधार के क्षेत्र में इन संतों का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इन संतों के साहित्य में हमें तत्कालीन युग की सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक समस्त स्थितियों के दर्शन हो जाते हैं। धार्मिक दृष्टि से भी इनका योग बहुत है। सहज प्रेम की भाषा पर बल देने के कारण लोगों का इन पर भी बहुत झुकाव रहा। कबीर कीमृत्यु के कुछ समय बाद इसमें भी सम्प्रदाय की स्थापना हो गई। अन्य शाखाओं के समान इसका महत्व भी भक्तिकाल को पूर्ण बनाने में है।
ये चारों शाखाएँ भक्तिकाल या मध्यकाल के पूर्व भाग में अपने उत्कर्ष में थीं। इन चारों ही शाखाओं ने हिन्दी साहित्य को बड़े-बड़े व्यक्तित्व प्रदान किए जैसे – सूर, तुलसी, कबीर आदि । अपने भक्तिभाव की चरम उत्कृष्टता के लिए भी ये जनता के मन-मानस पर आधिपत्य कर सके। आज भी ये श्रद्धा एवं आदर से देखे जाते हैं। यद्यपि कालान्तर में इन सम्प्रदायों में भी अनैतिकता के तत्त्वों के प्रवेश के कारण शुद्धता नहीं रह गई थी तथा इनका पतन भी धीरे-धीरे हो गया था तथापि जो अद्‌भुत मणियाँ इस काल में प्राप्त हुईं, वे किसी भी अन्य काल में प्राप्त नहीं हो सकीं, यह निस्संदेह कहा जा सकता है। भक्तिकाल में हर प्रकार से कला समृद्धि हुई, नवीन वातावरण का जन्म हुआ, जन-जन में भक्ति, प्रेम और श्रद्धा के स्रोत फूट पड़े, ऐसा काल वस्तुत: साहित्येतिहास का “स्वर्णकाल” कहलाने योग्य है।
सम्प्रदायों से मुक्त रूप में भी भक्ति का प्रचार था। मीरा, रसखान, रहीम का नाम उतनी ही श्रद्धा से लिया जाता है जितना कि किसी सम्प्रदायबद्ध संत कवि का। इस तरह कहा जा सकता है कि जनता में सम्प्रदाय से भी अधिक शुद्ध भक्ति-भाव की महत्ता थी। ऐकान्तिक भक्ति ने समष्टिगत रूप धारण किया और जन-जन के हृदय को आप्लावित कर दिया।
तुलसी की मृत्य (1680 ई.) के कुछ समय बाद ही रीतिकाल के आगमन के चिह्न दिखाई देने लगे थे। राम के मर्यादावादी रूप का सामान्यीकरण करके उसमें भी लौकिक लीलाओं का समावेश कर दिया गया। कृष्ण की प्रेम भक्ति (मूलक) जागृत करने वाी लीलाओं में से कृष्ण की श्रृंगारिक लीलाओं को ग्रहण करके उसका अश्लील चित्रण होने लगा था। यह स्थिति रीतिकाल में अपने घोरतम रूप में पहुँच गई थी। इसीलिए कहा गया था “राधिका कन्हाई सुमरिन को बहानो है।” रामभक्ति का जो रूप तुलसी ने अंकित किया था, यद्यपि वह धूमिल नहीं हुआ तथापि राजाओं के आश्रय में रहने वाले कवियों ने श्रृंगारिकता के वातावरण में उसे विस्मृत कर दिया था। इस तरह धीरे-धीरे ई.1680-90 के आसपास भक्तिकाल समाप्त हो गया।
कालांतर में यद्यपि जनता में भक्तिभाव विद्यमान रहे तथापि न तो इस (तुलसी आदि के समान) को महान विभूति पैदा हो सकी और न कोई बहुत अधिक लोकप्रिय ग्रंथ ही लिखा जा सका।
भक्ति युग का यह आन्दोलन बहुत बड़ा आन्दोलन था एवं ऐसा आन्दोलन भारत ने इससे पहले कभी नहीं देखा था। इस साहित्य ने जनता के हृदय में श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, जिजीविषा जागृत की, साहस, उल्लास, प्रेम भाव प्रदान किया, अपनी मातृभूमि, इसकी संस्कृति का विराट एवं उत्साहवर्धक चित्र प्रस्तुत किया, लोगों के हृदय में देशप्रेम भी प्रकारंतर से इसी कारण जागृत हुआ।
भक्तियुग में इस तरह मुख्यत: भक्तिपरक साहित्य की रचना हुई परन्तु यह भी पूर्णतया नहीं कहा जा सकता कि किसी अन्य प्रकार का साहित्य उस काल में था ही नहीं। यह अकबर का शासन काल था तथा उसके दरबार में अनेक कवि थे। अब्दुर्रहीम खानखाना आदि की राजप्रसस्तिपरक कुछ कविताएँ मिलती हैं। अकबर ने साहित्य की पारम्परिक धारा को भी प्रोत्साहन दिया था अत: काव्य का वह रूप भी कृपाराम की “हिततरंगिणी” बीरबल के फुटकर दोहों आदि में उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त नीति परक दोहे आदि लिखे गये।
एक और महान कवि आचार्य केशव को शुक्ल जी ने भक्तिकाल के फुटकर कवियों में रखा है। यह कार्य उन्होंने केशव के रचनाकाल के आधार पर किया है। केशव की अलंकार, छंद, रस के लक्षणों – उदाहरणों को प्रस्तुत करने वाली तीन महत्त्वपूर्ण रचनाओं – कवि प्रिया, रसिक प्रिया तथा रामचन्द्रिका को भक्ति से भिन्न मान कर भी उन्हें इस युग के फुटकर कवियों में शुक्ल जी ने रखा है परन्तु यह उचित नहीं है। केशव का आचार्यत्त्व पूरे रीतिकाल को गौरव प्रदान करता है। रीति – लक्षण -उदाहरण के निर्धारण की परम्परा भी सर्वप्रथम उन्हीं में दिखाई देती है चाहें रीतिकाल में इस निर्धारण के लिए केशव को रीतिकाल से पृथक करना अनुचित है अत: उन्हें भक्तियुग में रखना उचित नहीं है।
भक्तिकाल में ललित कलाओं का उत्कर्ष दिखाई देता है। श्रीकृष्ण-राधा की विभिन्न लीलाओं के चित्र इस काल में मिलते हैं, कोमल एवं सरस भावों को अभिव्यक्त करने वाली अनेक मूर्त्तियाँ इस काल में मिलती है। मूर्तिकला का बहुत विकास इस युग में बहुत अधिक हुआ था। वास्तुकला, चित्रकला में मुस्लिम (ईरानी) शैली का समन्वय भारतीय शैली में हुआ फलत: मेहराबें, गुम्बद आदि का प्रयोग अधिक दिखाई देने लगा। मध्यकाल में राजस्थानी शैली अधिक लोकप्रिय थी। मानवीय चित्रों के अतिरिक्त प्राकृतिक दृश्यों का अंकन, दरबारी जीवन के विविध प्रसंग भी भित्ति चित्र इस युग में प्राप्त होते हैं। ‘कुतुबमीनार’, ‘अढ़ाई दिन का झौंपड़ा’ आदि ऐतिहासिक वास्तुकला के अप्रतिम नमूने हैं।
इस तरह साहित्य के साथ ललित कलाओं का विकास भी बहुत अधिक हुआ था। संगीत के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई। कृष्णलीलाओं का गायन, साखी, रमैनी, पद को राग निबद्ध करने की जैसी योजना इस काल में है वैसी अन्यत्र प्राप्य नहीं है। सूर और तुलसी साहित्य में अनेक राग-रागनियों का वर्णन आता है।
निष्कर्षत: कह सकते हैं कि भक्ति के उद्‌भव एवं विकास के समय जो कुछ भी भारतीय साहित्य, भारतीय संस्कृति तथा इतिहास को प्राप्त हुआ, वह स्वयं में अद्‌भुत, अनुपम एवं दुर्लभ है। अंतत: हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में कह सकते है – “समूचे भारतीय इतिहास में यह अपने ‘ग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है। भक्ति का यह नया इतिहास मनुष्य जीवन के एक निश्चित लक्ष्य और आदर्श को लेकर चला। यह लक्ष्य है भगवद्‌भक्ति, आदर्श है शुद्ध सात्विक जीवन और साधन है भगवान के निर्मल चरित्र और सरस लीलाओं का गान।”

महात्मा कबीर का जन्म-काल


कबीरमहात्मा कबीर का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब भारतीय समाज और धर्म का स्वरुप अधंकारमय हो रहा था। भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्थाएँ सोचनीय हो गयी थी। एक तरफ मुसलमान शासकों की धमार्ंधता से जनता त्राहि- त्राहि कर रही थी और दूसरी तरफ हिंदूओं के कर्मकांडों, विधानों एवं पाखंडों से धर्म- बल का ह्रास हो रहा था। जनता के भीतर भक्ति- भावनाओं का सम्यक प्रचार नहीं हो रहा था। सिद्धों के पाखंडपूर्ण वचन, समाज में वासना को प्रश्रय दे रहे थे।
नाथपंथियों के अलखनिरंजन में लोगों का ऋदय रम नहीं रहा था। ज्ञान और भक्ति दोनों तत्व केवल ऊपर के कुछ धनी- मनी, पढ़े- लिखे की बपौती के रुप में दिखाई दे रहा था। ऐसे नाजुक समय में एक बड़े एवं भारी समन्वयकारी महात्मा की आवश्यकता समाज को थी, जो राम और रहीम के नाम पर आज्ञानतावश लड़ने वाले लोगों को सच्चा रास्ता दिखा सके। ऐसे ही संघर्ष के समय में, मस्तमौला कबीर का प्रार्दुभाव हुआ।
जन्ममहात्मा कबीर के जन्म के विषय में भिन्न- भिन्न मत हैं। “कबीर कसौटी’ में इनका जन्म संवत् १४५५ दिया गया है। “”भक्ति- सुधा- बिंदु- स्वाद” में इनका जन्मकाल संवत् १४५१ से संवत् १५५२ के बीच माना गया है। “”कबीर- चरित्र- बाँध” में इसकी चर्चा कुछ इस तरह की गई है, संवत् चौदह सौ पचपन (१४५५) विक्रमी ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार के दिन, एक प्रकाश रुप में सत्य पुरुष काशी के “लहर तारा” (लहर तालाब) में उतरे। उस समय पृथ्वी और आकाश प्रकाशित हो गया। समस्त तालाब प्रकाश से जगमगा गया। हर तरफ प्रकाश- ही- प्रकाश दिखने लगा, फिर वह प्रकाश तालाब में ठहर गया। उस समय तालाब पर बैठे अष्टानंद वैष्णव आश्चर्यमय प्रकाश को देखकर आश्चर्य- चकित हो गये। लहर तालाब में महा- ज्योति फैल चुकी थी। अष्टानंद जी ने यह सारी बातें स्वामी रामानंद जी को बतलायी, तो स्वामी जी ने कहा की वह प्रकाश एक ऐसा प्रकाश है, जिसका फल शीघ्र ही तुमको देखने और सुनने को मिलेगा तथा देखना, उसकी धूम मच जाएगी।
एक दिन वह प्रकाश एक बालक के रुप में जल के ऊपर कमल- पुष्पों पर बच्चे के रुप में पाँव फेंकने लगा। इस प्रकार यह पुस्तक कबीर के जन्म की चर्चा इस प्रकार करता है :-
“”चौदह सौ पचपन गये, चंद्रवार, एक ठाट ठये।
जेठ सुदी बरसायत को पूनरमासी प्रकट भये।।”
जन्म स्थानकबीर ने अपने को काशी का जुलाहा कहा है। कबीर पंथी के अनुसार उनका निवास स्थान काशी था। बाद में, कबीर एक समय काशी छोड़कर मगहर चले गए थे। ऐसा वह स्वयं कहते हैं :-
“”सकल जनम शिवपुरी गंवाया।
मरती बार मगहर उठि आया।।”
कहा जाता है कि कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। कबीर वहाँ जाकर दु:खी थे। वह न चाहकर भी, मगहर गए थे।
“”अबकहु राम कवन गति मोरी।
तजीले बनारस मति भई मोरी।।”
कहा जाता है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वह चाहते थे कि आपकी मुक्ति न हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थे :-
“”जौ काशी तन तजै कबीरा
तो रामै कौन निहोटा।”
कबीर के माता- पिताकबीर के माता- पिता के विषय में भी एक राय निश्चित नहीं है। “नीमा’ और “नीरु’ की कोख से यह अनुपम ज्योति पैदा हुई थी, या लहर तालाब के समीप विधवा ब्राह्मणी की पाप- संतान के रुप में आकर यह पतितपावन हुए थे, ठीक तरह से कहा नहीं जा सकता है। कई मत यह है कि नीमा और नीरु ने केवल इनका पालन- पोषण ही किया था। एक किवदंती के अनुसार कबीर को एक विधवा ब्राह्मणी का पुत्र बताया जाता है, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था।
एक जगह कबीर ने कहा है :-
“जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी।’कबीर के एक पद से प्रतीत होता है कि वे अपनी माता की मृत्यु से बहुत दु:खी हुए थे। उनके पिता ने उनको बहुत सुख दिया था। वह एक जगह कहते हैं कि उसके पिता बहुत “गुसाई’ थे। ग्रंथ साहब के एक पद से विदित होता है कि कबीर अपने वयनकार्य की उपेक्षा करके हरिनाम के रस में ही लीन रहते थे। उनकी माता को नित्य कोश घड़ा लेकर लीपना पड़ता था। जबसे कबीर ने माला ली थी, उसकी माता को कभी सुख नहीं मिला। इस कारण वह बहुत खीज गई थी। इससे यह बात सामने आती है कि उनकी भक्ति एवं संत- संस्कार के कारण उनकी माता को कष्ट था।
स्री और संतानकबीर का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या “लोई’ के साथ हुआ था। कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी। ग्रंथ साहब के एक श्लोक से विदित होता है कि कबीर का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था।
बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सिमरन छोडि के, घर ले आया माल।
कबीर की पुत्री कमाली का उल्लेख उनकी बानियों में कहीं नहीं मिलता है। कहा जाता है कि कबीर के घर में रात- दिन मुडियों का जमघट रहने से बच्चों को रोटी तक मिलना कठिन हो गया था। इस कारण से कबीर की पत्नी झुंझला उठती थी। एक जगह कबीर उसको समझाते हैं :-
सुनि अंघली लोई बंपीर।
इन मुड़ियन भजि सरन कबीर।।
जबकि कबीर को कबीर पंथ में, बाल- ब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं :-
“कहत कबीर सुनहु रे लोई।
हरि बिन राखन हार न कोई।।’
यह हो सकता हो कि पहले लोई पत्नी होगी, बाद में कबीर ने इसे शिष्या बना लिया हो। उन्होंने स्पष्ट कहा है :-
“”नारी तो हम भी करी, पाया नहीं विचार।
जब जानी तब परिहरि, नारी महा विकार।।”

कबीर कालीन राजनैतिक परिस्थितियाँ


कबीर का काल संक्राति का काल था। तत्कालीन राजनीतिक वातावरण पूर्ण रुप से विषाक्त हो चुका था। इस समय की राजनीतिक व्यवस्था को बहुत अंश तक मुल्ला और पुजारी प्रेरित करते थे। हिंदू- मुसलमानों के भीतर भी निरंतर ईर्ष्या और द्वेष का बोलबाला था। तत्कालीन समृद्ध धर्मों बौद्ध, जैन, शैव एवं वैष्णवों के अंदर विभिन्न प्रकार की शाखाएँ निकल रही थी। सभी धर्मों के ठेकेदार आपस में लड़ने एवं झगड़ने में व्यस्त थे।लोदी वंश का सर्वाधिक यशस्वी सुल्तान, सिकंदर शाह सन् १४८९ ई. में गद्दी पर बैठा। सिकंदर को घरेलू परिस्थिति एवं कट्टर मुसलमानों का कड़ा विरोध सहना पड़ा। दुहरे विरोध के कारण वह अत्यंत असहिष्णु हो उठा था। सिकंदर शाह के तत्कालीन समाज में आंतरिक संघर्षों एवं विविध धार्मिक मतभेदों के कारण, भारतीय संस्कृति की केंद्रीय दृष्टि समाप्तप्राय हो गयी थी। इसी जनशोषित समाज में लौह पुरुष महात्मा कबीर का जन्म हुआ। शक्तिशाली लोगों ने ऐसे- ऐसे कानून बना लिए थे, जो कानून से बड़ा था और इसके द्वारा वह लोगों का शोषण किया करते थे। धर्म की आड़ में ये शोषक वर्ग अपनी चालाकी को देवी विधान से जोड़ देता था। तत्कालीन शासन- तंत्र और धर्म- तंत्र को देखते हुए, महात्मा कबीर ने जो कहा, इससे उसकी बगावत झलकती है–
दर की बात कहो दरवेसा बादशाह है कौन भेसा
कहाँ कूच कर हि मुकाया, मैं तोहि पूछा मुसलमाना
लाल जर्द का ताना- बाना कौन सुरत का करहु सलामा।
नियमानुसार शासनतंत्र के कुछ वैधानिक नियम होते हैं, जिनके तहत सरकारी कार्यों को संपादित किया जाता है, लेकिन कबीर के काल में ऐसा कोई नियम नहीं था, इसी लिए वे कहते हैं “”बादशाह तुम्हारा वेश क्या है ? और तुम्हारा मूल्य क्या है ? तुम्हारी गति कहाँ है ? किस सूरत को तुम सलाम करते हो ? इस प्रकार राजनीतिक अराजकता तथा घोर अन्याय देखकर उनका हृदय वेदना से द्रवित हो उठता है। धार्मिक कट्टरता के अंतर्गत मनमाने रुप से शासन तंत्र चल रहा था, जिसमें साधारण जनता का शोषण बुरी तरह हो रहा था। कबीर के लिए यह स्थिति असहनीय हो रही थी।
काजी काज करहु तुम कैसा, घर- घर जब हकरा बहु बैठा।
बकरी मुरगी किंह फरमाया, किसके कहे तुम छुरी चलाया।
कबीर पूछते हैं “”काजी तुम्हारा क्या नाम है ? तुम घर पर जबह करते हो ? किसके हुक्म से तुम छुरी चलाते हो ?
दर्द न जानहु, पीर कहावहु, पोथा पढ़ी- पढ़ी जग भरमाबहु
काजी तुम पीर कहलाती हो, लेकिन दुसरों का दर्द नहीं समझते हो। गलत बातें पढ़- पढ़ कर और सुनाकर तुम समाज के लोगों को भ्रम में डालते हो।
उपयुर्क्त बातों से यह सिद्ध होता है कि तत्कालीन समाज में धर्म की आड़ में सब तरह के अन्याय और अनुचित कार्य हो रहे थे। निरीह जनता के पास इस शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की शक्ति नहीं थी। कबीर इस चालाक लोक वेद समर्पित देवी विधान के खिलाफ आवाज उठायी।
दिन को रोजा रहत है, राज हनत हो गया,
मेहि खून, वह वंदगी, क्योंकर खुशी खुदाय।
दिन में रोजा का व्रत रखते हो और रात में गाय की हत्या करते हो ? एक ओर खून जैसा पाप और दूसरी ओर इश बंदगी। इससे भगवान कभी भी प्रसन्न नहीं हो सकते। इस प्रकार एक गरीब कामगार कबीर ने शोषक वर्ग के शिक्षितों साधन संपन्नों के खिलाफ एक जंग को बिगुल बजाया।
इक दिन ऐसा होइगा, सब लोग परै बिछोई।
राजा रानी छत्रपति, सावधान किन होई।।
कबीर के कथनानुसार परिवर्तन सृष्टि का नियम है। राजा हमेशा बदलता रहता है। एक की तूती हमेशा नहीं बोलती है। मरण को स्वीकार करना ही पड़ता है, अतः राजभोग प्राप्त करके गर्व नहीं करना चाहिए, अत्याचार नहीं करना चाहिए। यह बात सर्वमान्य है कि एक दिन सब राज- पाठ छोड़कर यहाँ से प्रस्थान करना ही होगा।
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढि चले, एक बघें जंजीर।।
कबीर साहब मृत्यु के सम्मुख राजा, रंक और फकीर में कुछ भेदभाव नहीं मानते हैं। उनके अनुसार सभी को एक दिन मरना होगा।
कहा हमार गढि दृढ़ बांधों, निसिवासर हहियो होशियार
ये कलि गुरु बड़े परपंची, डोरि ठगोरी सब जगमार।
कबीर चाहते थे कि सभी व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार अपनी आँखों से करे। धर्म के नाम पर मनुष्य और मनुष्य के बीच गहरी खाई खोदने वालों से कबीर साहब को सख्त नफरत होती थी। उन्होंने ऐसे तत्वों को बड़ी निर्भयता से अस्वीकार कर दिया था।
ऐसा लोग न देखा भाई, भुला फिरै लिए गुफलाई।
महादेव को पंथ चलावै ऐसे बड़ै महंत कहावै।
हाट बजाए लावे तारी, कच्चे सिद्ध न माया प्यारी।
महात्मा कबीर हैरान होकर लोगों से कहा करते थे, भाई यह कैसा योग है। महादेव के नाम परपंथ चलाया जाता है। लोग बड़े- बड़े महंत बनते हैं। हाटे बजारे समाधि लगाते हैं और मौका मिलते ही लोगों को लूटने का प्रयास करते हैं। ऐसे पाखंडी लोगों का वे पर्दाफाश करते हैं।
भये निखत लोभ मन ढाना, सोना पहिरि लजावे बाना।
चोरा- चोरी कींह बटोरा, गाँव पाय जस चलै चकोरा।
लोगों को गलत बातें ठीक लगती थी और अच्छी बातें विष। सत्य की आवाज उठाने का साहस किसी के पास न रह गया था।
नीम कीट जस नीम प्यारा
विष को अमृत कहत गवारा।
वे कहते हैं, सत्य से बढकर कोई दूसरा तप नहीं है और झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं है। जिनका हृदय शुद्ध है, वहाँ ईश का निवास है।
सत बराबर तप नहीं, झूठ बराबर नहीं पाप,
ताके हृदय साँच हैं, जाके हृदय आप।
राजाओं की गलत और दोषपूर्ण नीति के कारण देश जर्जर हो गया और प्रजा असह्य कष्ट उठाने को बेबश थी। राज नेता धर्म की आड़ में अत्याचार करते थे। कबीर की दृष्टि में तत्कालीन शासक यमराज से कम नहीं थे।
राजा देश बड़ौ परपंची, रैयत रहत उजारी,
इतते उत, उतते इत रहु, यम की सौढ़ सवारी,
घर के खसम बधिक वे राजा,
परजा क्या छोंकौ, विचारा।
कबीर के समय में ही शासको की नादानी के चलते, राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद और पुनः दौलताबाद से दिल्ली बदलने के कारण अपार धन और जन को हानि हुई थी तथा प्रजा तबाह हो गई थी।
महात्मा कबीर साहब ने इस जर्जर स्थिति एवं विषम परिस्थिति से जनता को उबारने के लिए एक प्रकार जेहाद छेड़ दिया था। एक क्रांतिकारी नेता के रुप में कबीर समाज के स्तर पर अपनी आवाज को बुलंद करने लगे। काजी, मुल्लाओं एवं पुजारियों के साथ- साथ शासकों को धिक्कारते और अपना विरोध प्रकट किया, जिसके फलस्वरुप कबीर को राजद्रोह करने का आरोप लगाकर तरह- तरह से प्रताड़ित किया गया।
“”एकै जनी जन संसार” कहकर कबीर ने मानव मात्र में एकता का संचार किया तथा एक ऐसी समझदारी पैदा करने की चेष्टा की, कि लोग अपने उत्स को पहचान कर वैमन्षय की पीड़ा से मुक्ति पा सकें और मनुष्य को मनुष्य के रुप में प्रेम कर सकें।
आधुनिक राजनीतिक परिस्थितियों को देखकर ऐसा लगता है कि आग कबीर साहब होते, तो उनको निर्भीक रुप से राजनैतिक दलों एवं व्यक्तियों से तगड़ा विरोध रहता, क्योंकि आग की परिस्थिति अपेक्षाकृत अधिक नाजुक है। आज कबीर साहब तो नहीं है, मगर उनका साहित्य अवश्य है, आज की राजनैतिक स्थिति में अपेक्षाकृत सुधार लाने के लिए कबीर साहित्य से बढ़कर और कोई दूसरा साधन नहीं है। कबीर साहित्य का आधार नीति और सत्य है और इसी आधार पर निर्मित राजसत्ता से राष्ट्र की प्रगति और जनता की खुशहाली संभव है। उनका साहित्य सांप्रदायिक सहिष्णुता के भाव से इतना परिपूर्ण है कि वह हमारे लिए आज भी पथ प्रदर्शन का आकाश दीप बना हुआ है। आज कबीर साहित्य को जन- जन तक प्रसार एवं प्रचार करने की आवश्यकता है, ताकि सभी लोग इसको जान सकें और स्वयं को शोषण से मुक्ति एवं समाज में सहिष्णुता बना सकें।

कबीर:तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति




  कबीर मध्यकाल के क्रांतिपुरुष थे, जिन्होंने तत्कालीन समाज में हलचल पैदा करती थी। जर्जर हो चले समाज में कबीर का कार्य एक ऐसे चतुर एवं कुशल सर्जन का काम था, जिसके सामने समाज के हृदय के आपरेशन का प्रश्न था। उस आपरेशन के लिए कबीर साहब ने पूरी तैयार की थी।उस समय पूरे देश में एक उद्धम लू चल रही थी, जिसका दाह भयंकर एवं व्यापक था। उस दाह से सारी जनता, अमीर, गरीब सब पीड़ित थे। कड़ी मेहनत करने के बावजूद साधारण जनता का जीवन असुरक्षित था और वे नृशंसता का शिकार बन रहे थे। विभिन्न प्रकार के करों ने सामाजिक एकता को विशुद्ध करके रख दिया था। महात्मा कबीर साहब भी इसी पीड़ित समाज के एक अंग थे। पीड़ा ने उन्हें सचेत किया था और दलितों की कराहों ने उन्हें बल दिया था। उनकी भत्सनाओं में समाज का क्षोभ था।
चलती चक्की देख के कबीर दिया रोय।
दो पाटन के बीच में साबूत बचा न कोय।।
जैसे चक्की के भीतर चना टूट जाता है, उसी तरह सांसारिक चक्र में घिसते- टूटते जनता के दुख- दर्द को देख कर कबीर को काफी दुख होता था। एक पद :-
जी तू वामन वामनी जाया,
तो आन बाट हे काहे न आया,
जे तू तुरक तुरकनी जाया,
तो भीतरी खतरा क्यूँ न कराया।
तत्कालीन समाज में व्याप्त जाति का स्पष्टीकरण उपरोक्त पद से अच्छी तरह हो जाता है। एक स्थान पर उन्होंने इस पर भीषण प्रहार किया है।
सो ब्राह्मण जो कहे ब्रहमगियान,
काजी से जाने रहमान
कहा कबीर कछु आन न कीजै,
राम नाम जपि लाहा लीजै।
उनके कथानुरुप वैश्य जाति होने का तात्पर्य यह नहीं है कि इसका स्थान समाज में बहुत ऊँचा है। असल चरित्र ज्ञान है, विवेक है, जिससे मनुष्य की पहचान बनती है। आडंबरपूर्ण व्यवहार से छपा तिलक लगाकर लोगों को ठगने से मूर्ख बनाने से अपना अहित होता है।

कबीर का साहित्यिक परिचय



कबीर साहब निरक्षर थे। उन्होंने अपने निरक्षर होने के संबंध में स्वयं “कबीर- बीजक’ की एक साखी मे बताया है। जिसमें कहा गया है कि न तो मैं ने लेखनी हाथ में लिया, न कभी कागज और स्याही का ही स्पर्श किया। चारों युगों की बातें उन्होंने केवल अपने मुँह द्वारा जता दिया है :-
मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
चारिक जुग को महातम, मुखहिं जनाई बात।।
संत मत के समस्त कवियों में, कबीर सबसे अधिक प्रतिभाशाली एवं मौलिक माने जाते हैं। उन्होंने कविताएँ प्रतिज्ञा करके नहीं लिखी और न उन्हें पिंगल और अलंकारों का ज्ञान था। लेकिन उन्होंने कविताएँ इतनी प्रबलता एवं उत्कृष्टता से कही है कि वे सरलता से महाकवि कहलाने के अधिकारी हैं। उनकी कविताओं में संदेश देने की प्रवृत्ति प्रधान है। ये संदेश आने वाली पीढियों के लिए प्रेरणा, पथ- प्रदर्शण तथा संवेदना की भावना सन्निहित है। अलंकारों से सुसज्जित न होते हुए भी आपके संदेश काव्यमय हैं। तात्विक विचारों को इन पद्यों के सहारे सरलतापूर्वक प्रकट कर देना
ही आपका एक मात्र लक्ष्य था :-
तुम्ह जिन जानों गीत हे यहु निज ब्रह्म विचार
केवल कहि समझाता, आतम साधन सार रे।।
कबीर भावना की अनुभूति से युक्त, उत्कृष्ट रहस्यवादी, जीवन का संवेदनशील संस्पर्श करनेवाले तथा मर्यादा के रक्षक कवि थे। आप अपनी काव्य कृतियों के द्वारा पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना चाहते थे।
हरि जी रहे विचारिया साखी कहो कबीर।
यौ सागर में जीव हैं जे कोई पकड़ै तीर।।
कवि के रुप में कबीर जीव के अत्यंत निकट हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में सहजता को प्रमुख स्थान दिया है। सहजता उनकी रचनाओं की सबसे बड़ी शोभा और कला की सबसे बड़ी विशेषता मानी जाती है। उनके काव्य का आधार यथार्थ है। उन्होंने स्वयं स्पष्ट रुप से कहा है कि मैं आँख का देखा हुआ कहता हूँ और तू कागज की लेखी कहता है :-
मैं कहता हूँ आखिन देखी,
तू कहता कागद की लेखी।
वे जन्म से विद्रोही, प्रकृति से समाज- सुधारक एवं प्रगतिशील दार्शनिक तथा आवश्यकतानुसार कवि थे। उन्होंने अपनी काव्य रचनाएँ इस प्रकार कही है कि उसमें आपके व्यक्तित्व का पूरा- पूरा प्रतिबिंब विद्यमान है।
कबीर की प्रतिपाद्य शैली को मुख्य रुप से दो भागों में बाँटा गया है :- इनमें प्रथम रचनात्मक, द्वितीय आलोचनात्मक। रचनात्मक विषयों के अंतर्गत सतगुरु, नाम, विश्वास, धैर्य, दया, विचार, औदार्य, क्षमा, संतोष आदि पर व्यावहारिक शैली में भाव व्यक्त किया गया है। दूसरे पक्ष में वे आलोचक, सुधारक, पथ- प्रदर्शक और समन्वयकर्ता के रुप में दृष्टिगत होते हैं। इस पक्ष में उन्होंने चेतावनी, भेष, कुसंग, माया, मन, कपट, कनक, कामिनी आदि विषयों पर विचार प्रकट किये हैं।
काव्यरुप एवं संक्षिप्त परिचय :-
कबीर की रचनाओं के बारें में कहा जाता है कि संसार के वृक्षों में जितने पत्ते हैं तथा गंगा में जितने बालू- कण हैं, उतनी ही संख्या उनकी रचनाओं की है :-
जेते पत्र वनस्पति औ गंगा की रेन।
पंडित विचारा का कहै, कबीर कही मुख वैन।।
विभिन्न समीक्षकों तथा विचारकों ने कबीर के विभिन्न संग्रहों का अध्ययन करके निम्नलिखित काव्यरुप पाये हैं :-
  • 1.साखी
  • 2.पद
  • 3.रमेनी
  • 4.चौंतीसा
  • 5.वावनी
  • 6.विप्रमतीसी
  • 7.वार
  • 8.थिंती
  • 9.चाँवर
  • 10. बसंत
  • 11. हिंडोला
  • 12. बेलि
  • 13. कहरा
  • 14. विरहुली
  • 15. उलटवाँसी
साखी
साखी रचना की परंपरा का प्रारंभ गुरु गोरखनाथ तथा नामदेव जी के समय से प्राप्त होता है। साखी काव्यरुप के अंतर्गत प्राप्त होने वाली, सबसे प्रथम रचना गोरखनाथ की जोगेश्वरी साखी है। कबीर की अभिव्यंजना शैली बड़ी शक्तिशाली है। प्रतिपाद्य के एक- एक अंग को लेकर इस निरक्षर कवि ने सैकड़ों साखियों की रचना की है। प्रत्येक साखी में अभिनवता बड़ी कुशलता से प्रकट किया गया है। उन्होंने इसका प्रयोग नीति, व्यवहार, एकता, समता, ज्ञान और वैराग्य आदि की बातों को बताने के लिए किया है। अपनी साखियों में कबीर ने दोहा छंद का प्रयोग सर्वाधिक किया है।
कबीर की साखियों पर गोरखनाथ और नामदेव जी की साखी का प्रभाव दिखाई देता है। गोरखनाथ की तरह से कबीर ने भी अपनी सखियों में दोहा जैसे छोटे छंदों में अपने उपदेश दिये।
संत कबीर की रचनाओं में साखियाँ सर्वाधिक पायी जाती है। कबीर बीजक में ३५३ साखियाँ, कबीर ग्रंथ वाली में ९१९ साखियाँ हैं। आदिग्रंथ में साखियों की संख्या २४३ है, जिन्हें श्लोक कहा गया है।
प्राचीन धर्म प्रवर्त्तकों के द्वारा, साखी शब्द का प्रयोग किया गया। ये लोग जब अपने गुरुजनों की बात को अपने शिष्यों अथवा साधारणजनों को कहते, तो उसकी पवित्रता को बताने के लिए साखी शब्द का प्रयोग किया करते थे। वे साखी देकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि इस प्रकार की दशा का अनुभव अमुक- अमुक पूर्ववर्ती गुरुजन भी कर चुके हैं। अतः प्राचीन धर्म प्रवर्तकों द्वारा प्रतिपादित ज्ञान को शिष्यों के समक्ष, साक्षी रुप में उपस्थित करते समय जिस काव्यरुप का जन्म हुआ, वह साखी कहलाया।
संत कबीर की साखियाँ, निर्गुण साक्षी के साक्षात्कार से उत्पन्न भावोन्मत्तता, उन्माद, ज्ञान और आनंद की लहरों से सराबोर है। उनकी साखियाँ ब्रह्म विद्या बोधिनी, उपनिषदों का जनसंस्करण और लोकानुभव की पिटारी है। इनमें संसार की असारता, माया मोह की मृग- तृष्णा, कामक्रोध की क्रूरता को भली- भांति दिखाया गया है। ये सांसारिक क्लेश, दुख और आपदाओं से मुक्त कराने वाली जानकारियों का भण्डार है। संत कबीर के सिद्धांतों की जानकारी का सबसे उत्तम साधन उनकी साखियाँ हैं।
साखी आंखी ग्यान को समुझि देखु मन माँहि
बिन साखी संसार का झगरा छुटत नाँहि।।
विषय की दृष्टि से कबीर साहब की सांखियों को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है :-
१. लौकिक भाव प्रधान
२. परलौकिक भाव प्रधान
लौकिक भाव प्रधान साखियाँ भी तीन प्रकार की है :-
१. संतमत स्वरुप बताने वाली
२. पाखण्डों का विरोध करने वाली
३. व्यवहार प्रधान
संतमत का स्वरुप बताने वाली साखियाँ :-
कबीर साहब ने अपनी कुछ साखियों में संत और संतमत के संबंध में अपने विचार प्रकट किए हैं :-
निर बेरी निहकामता साई सेती नेह।
विषिया सूँन्यारा रहे संतरि को अंग एह।।
कबीर साहब की दृष्टि में संत का लक्ष्य धन संग्रह नहीं है :-
सौंपापन कौ मूल है एक रुपैया रोक।
साधू है संग्रह करै, हारै हरि सा थोक।
संत व बांधै गाँठरी पेट समाता लेई।
आगे पीछे हरि खड़े जब माँगै तब दई।
संत अगर निर्धन भी हो, तो उसे मन छोटा करने की आवश्यकता नहीं है :-
सठगंठी कोपीन है साधू न मानें संक।
राम अमल माता रहे गिठों इंद्र को रंक।
कबीर साहब परंपरागत रुढियों, अंधविश्वासों, मिथ्याप्रदर्शनों एवं अनुपयोगी रीति- रिवाजों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने हिंदू- मुसलमान दोनों में ही फैली हुई कुरीतियों का विरोध अपनी अनेक साखियों में किया है।
व्यवहार प्रधान साखियाँ :-
कबीर साहब की व्यवहार प्रधान साखियाँ, नीति और उपदेश प्रधान है। इसमें संसभू के प्रत्येक क्षेत्र में उचित व्यवहार की रीति बताई गई हैं। इन साखियों में मानव मात्र के कल्याणकारी अनुभव का अमृत छिपा हुआ है। पर निंदा, असत्य, वासना, धन, लोभ, क्रोध, मोह, मदमत्सर, कपट आदि का निषेध करके, वे सहिष्णुता, दया, अहिंसा, दान, धैर्य, संतोष, क्षमा, समदर्शिता, परोपकार तथा मीठे वाचन आदि के लिए आग्रह किया गया है। वे त्याज्य कुकर्मों को गिना कर बताते है :-
गुआ, चोरी, मुखबरी, व्याज, घूस, परमान।
जो चाहे दीदार को एती वस्तु निवार।।
विपत्ति में धैर्य धारण करने के लिए कहते है :-
देह धरे का दंड है सब काहू पै होय।
ज्ञानी भुगतै ज्ञानकरि मूरख भुगतै रोय।।
वह अपनी में बाबू संयम पर बल देते हुए कहते हैं :-
ऐसी बानि बोलिए मन का आपा खोय।
ओख को सीतल करै, आपहु सीतल होय।
पारलौकिक भाव प्रधान साखिया
संत कबीर साहब इस प्रकार की अपनी साखियों में नैतिक, अध्यात्मिक, सांसारिक, परलौकिक इत्यादि विषयों का वर्णन किया है।
कुछ साखियाँ :-
राम नाम जिन चीन्हिया, झीना पं तासु।
नैन न आवै नींदरी, अंग न जायें मासु।
बिन देखे वह देसकी, बात कहे सो कूर।
आपुहि खारी खात है, बैचत फिरे कपूर।
पद ( शब्द )
संत कबीर ने अपने अनुभवों, नीतियों एवं उपदेशों का वर्णन, पदों में भी किया है। पद या शब्द भी एक काव्य रुप है, जिसको प्रमुख दो भागों में बाँटा गया है :-
— लौकिक भाव प्रधान
— परलौकिक भाव प्रधान
लौकिक भाव प्रधान पदों में सांसारिक भावों एवं विचारों का वर्णन किया गया है। इनको भी दो भागों में विभाजित किया गया है :-
— धार्मिक पाखण्डों का खंडन करने वाले पद।
— उपदेशात्मक और नीतिपरक पद।
संत कबीर जातिवाद, ऊँच- नीच की भावना एवं दिखावटी धार्मिक क्रिया- कलापों के घोर विरोधी थे। उन्होंने विभिन्न धर्मों की प्रचलित मान्यताओं तथा उपासना पद्धतियों की अलग- अलग आलोचना की है। वे वेद और कुरान के वास्तविक ज्ञान और रहस्य को जानने पर बल देते हैं :-
वेद कितेब कहौ झूठा।
झूठा जो न विचारै।।
झंखत बकत रहहु निसु बासर, मति एकौ नहिं जानी।
सकति अनुमान सुनति किरतु हो, मैं न बदौगा भाई।।
जो खुदाई तेरि सुनति सुनति करतु है, आपुहि कटि कयों न आई।
सुनति कराय तुरुक जो होना, औरति को का कहिये।।
रमैनी
रमैनी भी संत कबीर द्वारा गाया गया काव्यरुप है। इसमें चौपाई दो छंदों का प्रयोग किया गया है। रमैनी कबीर साहब की सैद्धांतिक रचनाएँ हैं। इसमें परमतत्व, रामभक्ति, जगत और ब्रह्म इत्यादि के बारे में विस्तारपूर्वक विचार किया गया है।
जस तू तस तोहि कोई न जान। लोक कहै सब आनाहि आना।
वो है तैसा वोही जाने। ओही आहि आहि नहिं आने।।
संत कबीर राम को सभी अवतारों से परे मानते हैं :-
ना दसरथ धरि औतरि आवा।
ना लंका का राव सतावा।।
अंतर जोति सबद एक नारी। हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी।।
ते तिरिये भग लिंग अनंता। तेउ न जाने आदि औ अंतर।।
एक रमैनी में वे मुसलमानों से प्रश्न पूछते हैं।
दर की बात कहाँ दरबेसा। बादशाह है कवने भेष।
कहां कंच कहँ करै मुकाया। मैं तोहि पूंछा मुसलमाना।।
लाल गरेद की नाना बना। कवर सुरहि को करहु सलाया।।
काजी काज करहु तुम कैसा। घर- घर जबह करवाहु भैसा।।
चौंतीसा
चौंतीसा नामक काव्यरुप केवल “कबीर बीजक’ में ही प्रयोग किया गया है। इसमें देवनागरी वर्णमाला के स्वरों को छोड़कर, केवल व्यंजनों के आधार पर रचनाएँ की गई हैं :-
पापा पाप करै सम कोई। पाप के करे धरम नहिं होई।
पापा करै सुनहु रे भाई। हमरे से इन किछवो न पाई।
जो तन त्रिभुवन माहिं छिपावै। तत्तहि मिले तत्त सो पावै।
थाथा थाह थाहि नहिं जाई। इथिर ऊथिर नाहिं रहाई।
बावनी
बावनी वह काव्यरुप है, जिसकी द्विपदियों का प्रारंभ नागरी लिपि के बावन वर्णों में से प्रत्येक के साथ क्रमशः होता है। बावनी को इसके संगीतनुसार गाया जाने का रिवाज पाया जाता है। विषय की दृष्टि से यह रचनाएँ अध्यात्मिकता से परिपूर्ण ज्ञात होता है।
ब्राह्मण होके ब्रह्म न जानै। घर महँ जग्य प्रतिग्रह आनै
जे सिरजा तेहि नहिं पहचानैं। करम भरम ले बैठि बखानै।
ग्रहन अमावस अवर दुईजा।
सांती पांति प्रयोजन पुजा।।
विप्रमतीसी
विप्रमतीसी नामक काव्य रुप भी केवल “कबीर बीजक’ में पाया जाता है। इसमें ब्राह्मणों के दपं तथा मिथ्याभिमान की आलोचना की गई है। इसका संबंध विप्रमति ( ब्राह्मणों की बुद्धि ) से बताया जाता है।
ब्राह्मणों की मति की आलोचना करने के लिए, तीस पंक्तियों में गठित काव्यरुप को विप्रमतीसी कहा गया है।
वार
सप्ताह के सातों वारों ( दिनों ) के नामों को क्रमशः लेकर, की गई उपदेशात्मक रचनाओं वालों काव्यरुप को “वार” कहा गया है। यह काव्य रुप की रचना केवल आदिग्रंथ में ही प्राप्त होती है।
थिंती
इस काव्य रुप का प्रयोग तिथियों के अनुसार छंद रचना करके साधना की बातें बताने के लिए किया गया है। संत कबीर का यह काव्य रुप भी केवल आदिग्रंथ में पाया जा सकता है।
चाँचर
चाँचर बहुत प्राचीन काल से प्रचलित काव्यरुप है। कालीदास तथा बाणभ की रचनाओं में चर्चरी गान का उल्लेख मिलता है। प्राचीन काल में इसको चर्चरी या चाँचरी कहा जाता था। संत कबीर ने भी अपनी रचनाओं में इसको अपनाया है। “कबीर बीजक’ में यह काव्य रुप प्राप्त होता है। कहा जाता है कि कबीर के समय में इसका पूर्ण प्रचलन था। कबीर ने इसका प्रयोग अध्यात्मिक उपदेशों को साधारण जन को पहुँचनें के लिए किया है।
जारहु जगका नेहरा, मन का बौहरा हो।
जामें सोग संतान, समुझु मन बोरा हो।
तन धन सों का गर्वसी, मन बोरा हो।
भसम- किरिमि जाकि, समुझु मन बौरा हो।
बिना मेवका देव धरा, मन बौरा हो।
बिनु करगिल की इंट, समुझु मन बौरा हो।
बसंत
संत कबीर साहब का एक अन्य काव्यरुप बसंत है। “बीजक’, “आदिग्रंथ’ और “कबीर ग्रंथावली’ तीनों में इसको देखा जा सकता है। बसंत ॠतु में, अभितोल्लास के साथ गाई जाने वाली पद्यों को फागु, धमार, होली या बसंत कहा जाता है। लोकप्रचलित काव्यरुप को ग्रहण कर, अपने उद्देश्य को जनसाधारण तक पहुँचाने के लिए किया है। एक पत्नी अपने पति की प्रशंसा करते हुए कहती है :-
भाई मोर मनुसा अती सुजान, धद्य कुटि- कुटि करत बिदान।
बड़े भोर उठि आंगन बाढ़ु, बड़े खांच ले गोबर काढ़
बासि- भात मनुसे लीहल खाय, बड़ धोला ले पानी को गाय
अपने र्तृया बाधों पाट, ले बेचौंगी हाटे हाट
कहँहि कबिर ये हरिक काज, जोइया के डिंग रहिकवनि लाज
हिंडोला
सावन के महिने में महिलाएँ हिंडोला झुलने के साथ- साथ, गीत भी गाती है। इसी गीत को अनेक स्थानों पर हिंडोला के नाम से जाना जाता है। संत कबीर ने इसी जनप्रचलित काव्यरुप को अपने ज्ञानोपदेश का साधन बनाया है। वह पूरे संसार को एक हिंडोला मानते हैं। वे इस प्रकार वर्णन करते हैं :-
भ्रम का हिंडोला बना हुआ है। पाप पुण्य के खंभे हैं। माया ही मेरु हैं, लोभ का मरुषा है विषय का भंवरा, शुभ- अशुभ की रस्सी तथा कर्म की पटरी लगी हुई है। इस प्रकार कबीर साहब समस्त सृष्टि को इस हिंडोले पर झुलते हुए दिखाना चाहते हैं :-
भरम- हिंडोला ना, झुलै सग जग आय।
पाप- पुण्य के खंभा दोऊ मेरु माया मोह।
लोभ मरुवा विष भँवरा, काम कीला ठानि।
सुभ- असुभ बनाय डांडी, गहैं दोनों पानि।
काम पटरिया बैठिके, को कोन झुलै आनि।
झुले तो गन गंधर्व मुनिवर,झुलै सुरपति इंद
झुलै तो नारद सारदा, झुलै व्यास फनींद।
बेलि
संत कबीर की बेलि उपदेश प्रधान काव्यरुप है। इसके अंतर्गत सांसारिक मोह ममता में फँसे जीव को उपदेश दिया गया है। “कबीर बीजक’ में दो रचनाएँ बेलि नाम से जानी जाती है। इसकी पंक्ति के अंत में “हो रमैया राम’ टेक को बार- बार दुहराया गया है।
कबीर साहब की एक बेलि :-
हंसा सरवर सरीर में, हो रमैया राम।
जगत चोर घर मूसे, हो रमैया राम।
जो जागल सो भागल हो, रमैया राम।
सावेत गेल बिगोय, हो रमैया राम।
कहरा
कहरा काव्यरुप में क्षणिक संसार के मोह को त्याग का राम का भजन करने पर बल दिया जाता है। इसके अंतर्गत यह बताया जाता है कि राम के अतिरिक्त अन्य देवी- देवताओं की पूजा करना व्यर्थ है। यह कबीर की रचनाओं का जन- प्रचलित रुप है :-
रामनाम को संबहु बीरा, दूरि नाहिं दूरि आसा हो।
और देवका पूजहु बौरे, ई सम झूठी आसा हो।
उपर उ कहा भौ बौरे, भीटर अजदूँ कारो हो।
तनके बिरघ कहा भौ वौरे, मनुपा अजहूँ बारो हो।
बिरहुली
बिरहुली का अर्थ सर्पिणी है। यह शब्द बिरहुला से बना है, जिसका अर्थ सपं होता है। यह शब्द लोक में सपं के विष को दूर करने वाले गायन के लिए प्रयुक्त होता था। यह गरुड़ मंत्र का प्राकृत नाम है। गाँव में इस प्रकार के गीतों को विरहुली कहा जाता है। कबीर साहब की बिरहुली में विषहर और विरहुली दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है। मनरुपी सपं के डस लेने पर कबीर ने बिरहुली कहा :-
आदि अंत नहिं होत बिरहुली। नहिं जरि पलौ पेड़ बिरहुली।
निसु बासर नहिं होत बिरहुली। पावन पानि नहिं भूल बिरहुली।
ब्रह्मादिक सनकादि बिरहुली। कथिगेल जोग आपार बिरहुली।
बिषहा मंत्र ने मानै बिरहुली। गरुड़ बोले आपार बिरहुली।
उलटवाँसी
बंधी बधाई विशिष्ट अभिव्यंजना शैली के रुप में, उलटवाँसी भी एक काव्यरुप है। इसमें आटयात्मिक बातों का लोक विपरीत ढ़ंग से वर्णन किया जाता है। इसमें वक्तव्य विषय की प्रस्तुत करने का एक विशष ढ़ंग होता है :-
तन खोजै तब पावै रे।
उलटी चाल चले गे प्राणी, सो सरजै घर आवेरो
धर्म विरोध संबंधी उलटवाँसिया:
अम्बर बरसै धरती भीजे, यहु जानैं सब कोई।
धरती बरसे अम्बर भीजे, बूझे बिरला कोई।
मैं सामने पीव गोहनि आई।
पंच जना मिलिमंडप छायौ, तीन जनां मिलि लगन लिखाई।
सामान्यरुप में कबीर साहब ने जन- प्रचलित काव्यरुप को अपनाया है। जन- प्रचलित होने के कारण ही सिंहों, माथों, संतों और भक्तों के द्वारा इनको ग्रहण किया गया।
विचारों और भखों के साथ ही, काव्यरुपों के क्षेत्र में भी कबीर साहब को आदर्श गुरु तथा मार्गदर्शक माना गया है। परवर्ती संतों तथा भक्तों ने उनके विचारों और भावों के साथ- साथ काव्यरुपों को भी अपनाया। कबीर साहब ने इन काव्यरुपों को अपना करके महान और अमर बना दिया।
कबीर के काव्य में दाम्पत्य एवं वात्सल्य के द्योतक प्रतीक पाये जाते हैं। उनकी रचनाओं में सांकेतिक, प्रतीक, पारिभाषिक प्रतीक, संख्यामूलक प्रतीक, रुपात्मक प्रतीक तथा प्रतीकात्मक उलटवाँसियों के सुंदर उदाहरण पाए जाते हैं।

कबीर साहित्य: कबीर चिंतन


 
 
 
कबीर साहित्य में जहाँ दर्शन, अध्यात्म, ज्ञान, वैराग्य की गूढता मिलती है, वहीं उनके साहित्य में समाज सुधार का शंखनाद भी है। वह दार्शनिक होने के साथ-साथ, समाज सुधारक भी थे। समाज सुधार अर्थात् जन जीवन का उत्थान कबीर के जीवन की साधना थी। सुधार का समन्वित स्वरूप कि उन्होंने भक्ति के आडम्बरों पर चोट की, वहीं अंधविश्वासों, रूढ, प्रथा, परम्पराओं, अंधविश्वासों पर भी निर्भीकता से लिखा। भक्ति में सुधार, समाज की कुप्रथाओं में सुधार, जीवन के हर क्षेत्र में सुधार, कबीर के जीवन की साधना रही है। कबीर कवि होने के साथ ही साधक थे, दर्शनिक थे, तत्त्वान्वेषी थे, भक्त और ज्ञानी थे। वस्तुतः कबीर का जीवन उच्चतम मानवीय व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है।
प्रचलित धारणाओं के अनुसार, मस्तमोला संत कबीर रामानन्द जी के शिष्य थे। कबीर की जन्म तिथि में विभिन्न मतमतांतर हैं, पर विक्रमी सम्वत् के अनुसार पन्द्रवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध, सोलहवीं का प्रारम्भ व १४५५-५६ के आसपास ही इनका जन्मकाल रहा। जन्मस्थान कोई काशी, कोई मगहर तथा कोई बलहरा गाँव आजमगढ के पास मानता है।
कबीर जब हुए देश में उथल-पुथल का समय था। मुसलमानों का आगमन, उनका आक्रमण, राज्य स्थापन और यहीं बस जाना, देश के इतिहास की बडी महत्त्वपूर्ण घटना थी। मुसलमानों का आक्रमण राजनीतिक वर्चस्व कायम करना ही नहीं बल्कि इस्लाम का प्रचार अधिक था। अलग सांस्कृतिक एवं सामाजिक इकाई के रूप में कट्टर विरोधी होकर रहना, हिन्दू समाज को अपने में आत्मसात् करने की भावना से सारा हिन्दू समाज आतंकित एवं भयभीत था। मूर्तियाँ व मंदिर खण्डित होते रहे। इस विषमतापूर्ण समय में हिन्दुओं के समक्ष, अपनी सांस्कृतिक आत्मरक्षा का प्रश्न था। ऐसे में पुनरुत्थान कार्य, साम्प्रदायिक एवं जातीय भावनाओं को सामने रखकर किया जाना सम्भव नहीं था। हिन्दुओं में भी विभिन्न मतमतांतर, पंथ, सम्प्रदाय बन चुके थे, जो हिन्दू समाज में अन्तर्विरोध दर्शाते थे। मानना होगा, ऐसी विपरीत स्थितियों के समय में जब हिन्दू संस्कृति, धर्म, जाति को झकझोर दिया गया था – कबीर की समन्वय साधना ने, समाज में पुनरुत्थान का कार्य किया। पुनरुत्थान भक्ति साधना से ही सम्भव था। कबीर का साहित्य इस बात का साक्षी है।
कबीर के पहले तथा समसामयिक युग में भक्ति साधनाओं में सबसे प्रमुख भक्ति साधना ही है। भक्ति आन्दोलन ने भगवान की दृष्टि में सभी के समान होने के सिद्धान्त को फिर दोहराया। कबीर की भक्ति भावना तथ्य से जुडी है। भक्तिपथ में भक्ति के द्वारा प्राण स्पंदन देने वालों में कबीर भी प्रमुख हैं। अनेकानेक साधनाओं के अन्तर्विरोध के युग में कबीर जन्मे थे। कबीर के व्यक्तित्व को सभी अन्तर्विरोधों ने प्रभावित किया, इस पर कबीर ने समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया। कबीर में परिस्थितिजन्य निर्णय की अभूतपूर्व क्षमता थी। वह आत्मचिंतन से प्राप्त निष्कर्षों को कसौटी पर कसने में कुशल थे। कबीर ने मानवतावादी तत्त्वग्राही व्यक्तित्व से अपने दृष्टिकोण में मजहबी, वर्गगत अहंकार तथा आचार संहिता की जडकारा में उलझा देने वाले तत्त्वों को भुला त्याग दिया। कबीर नैतिकता से विकसित भगवत्प्रेम में मानव कल्याण समझते हैं। कबीर की दृष्टि में यही मानवता का मूल आधार है। कबीर जीवन का चरम लक्ष्य परम तत्त्व की प्राप्ति मानते हैं। इस तत्त्व को प्राप्त करने का प्रमुख साधन ज्ञान और प्रेम है। कबीर के अनुसार ज्ञान से मतलब शास्त्र ज्ञान के अहंकार से मुक्त व्यक्ति को सहज रूप से ज्ञान होता है। ऐसे ही प्रेम का सहज रूप ही कबीर को मान्य है। कबीन ने आध्यात्मिक, धार्मिक, दार्शनिक एवं साधना के स्तर पर समन्वय का संदेश दिया है। कबीर संत हैं-भक्त हैं। कबीर ने अपने साहित्य में, भक्ति, प्रेम व सदाचरण से भगवान को प्राप्त करने का संदेश दिया। वस्तुतः कबीर की व्यथा किसी वर्ग विशेष की व्यथा नहीं थी, वह व्यापक मानवता की व्यथा थी। वर्तमान संदर्भों में उन्होंने आज की तरह प्रतिष्ठा दिलाने के लिए साधना नहीं की। क्योंकि कबीर के अनुसार साधना से ही मूलतः मानव व प्राणी मात्र का आध्यात्मिक कल्याण है।
कबीर के अनुसार पिंड और ब्रह्माण्ड से भी परे, निर्विशेष तत्त्व है, वही सबसे परे परम तत्त्व है, जिसका अनुभव होने पर भी वाणी में अवर्णनीय है। वह अलख है, उसे कहा नहीं जा सकता। पिंड और ब्रह्माण्ड से परे का जो तत्त्व है वही हरि है। उसका कोई रूप नहीं, वह घट -घट में समाया है। कबीर ने इस तत्त्व को कई नामों से व्यक्त किया है। अलख, निरंजन, निरर्भ, निजपद, अभैपद, सहज, उनमन तथा और भी। “गुन में निरगुन, निरगुन में गुन हैं बाट छाड क्यो जहिए। अजर अमर कथै सब कोई अलख न कथणां जाई।।” इसी चिंतन में कबीर कहते हैं – “जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है – बाहर भीतर पानी। फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तत कथौ गियानी।।” तथा – ”पानी ही से हिम भया हिम है गया बिलाई।।‘‘
प्रेम साध्य भी है – साधन भी। प्रेम स्वयं ही प्रेम का वरण करता है। अर्थात् केवल प्रेम के अनुग्रह से प्रेम प्राप्त होता है। प्रेम लौकिक, अलौकिक दोनों स्तर पर एक-सा रहता है। प्रेम वस्तुतः आत्मरति रूप है, अहेतुक होता है। आत्मबोध की सहज स्थिति आत्मरति है। कबीर ने आध्यात्मिक प्रेम को लौकिक माध्यम से व्यक्त किया – ”कबीर यह घर प्रेम का खाला का घर नाहिं। सीस उतारे हाथि करि, सो पैसे घर मांहि।।‘‘ कबीर का सौन्दर्य ब्रह्म सविशेष ब्रह्म है, इससे उनके अन्तःकरण में भगवान का प्रेम जागा तो कबीर ने कहा, ”संतो भाई आई ज्ञान की आंधी रे। भ्रम की टाटी सबै उडानी, माया रहे न बाँधी रे।।” कबीर के अनुसार लौकिक और आध्यात्मिक का भेद प्रेम की दिव्यता में बाधक नहीं है।
रहस्यवाद की तीन अवस्थाएँ होती हैं, अनुराग उदय, परिचय, मिलन। कबीर साहित्य में भावनात्मक तथा साधनात्मक दोनों तरह का रहस्यवाद मिलता है। कबीर में भावनात्मक रहस्यवाद की प्रथम अवस्था से ही साधनात्मक रहस्यवाद के भी दर्शन होते हैं। “पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान। कहिये कूँ साोभा नहीं – देख्या ही परमान।।” वह और भी आगे लिखते हैं – ”सुरति समांणी निरति में, निरति रही निरधार। सुरति निरति परचा भया तब खुले स्वयं दुवार।।” और भी ”जो काटो तौ डहडही, सींचौ तौ कुमिलाइ।।‘‘
कबीर साहित्य में साखी कबीर का जीवनदर्शन है। साखी कबीर साहित्य का बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंश है। साखियों में कबीर का व्यक्तित्व समग्र रूप से व्यक्त हुआ है। ”साखी आँखी ज्ञान की समुझि लेहु मनमाहिं। बिनु साखी संसार का झगडा छूटै नाहिं।।‘‘ कबीर साहित्य में गुरु का स्थान सर्वोपरि ईश्वर समकक्ष है। कबीर के अनुसार गुरु शिष्य को मनुष्य से देवता कर देता है। ”गुरु गोविन्द दोउ खडे-काके लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो मिलाय।” सद्गुरु के बारे में कबीर लिखते हैं ”ग्यान प्रकास्या गुरु मिल्या, सो जन बीसरि जाइ। जब गोविन्द कृपा करी, तब गुरू मिलिया आई।।” इसके विपरीत अज्ञानी गुरु के बारे में कबीर कहते हैं – “जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध। अंधे अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पडंत।।” आज के संदर्भों में दार्शनिक कबीर की व्यक्त हुई कुछ-कुछ सटीक-सी लगती भावना ”नां गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव। दुन्यूं बूडे धार में – चढ पाथर की नाव।‘‘
जैसे ही सुमिरण को अंग, यानी मनन की अवस्था, विनती को अंग अर्थात् भगवान के समक्ष अपनी लघुता की अनुभूति तथा पति परमेश्वर के भाव की अभिव्यक्ति है। कबीर ने इस तरह ‘अंग‘ के माध्यम में पचासों अंगों के तहत ज्ञान की अभिव्यक्ति हुई है। कबीर पर वैदिक विचारधारा, वैष्णव विचारधारा का प्रभाव था, उन्होंने अपने साहित्य में एकात्मक अद्वैतवाद, ज्ञान तत्त्व, गुरु भक्ति, भगवद्भक्ति, अध्यात्म योग, प्रणवोपासना, जन्मान्तरवाद, भगवान के विविध वैष्णवी नाम, ब्रह्म स्वरूपों में श्रद्धा, भक्ति उपासना तथा प्रपत्ति, योग के भेद, माया तत्त्व आदि के माध्यम से काव्य रचना को संजोया। निर्भीक सुधारवादी संत कबीर ने, भक्ति ही क्या हर क्षेत्र में अंधविश्वासों पर चोट कर, रूढ परम्पराओं आडम्बरों से अलग हट, सामाजिक सुधार भरपूर किया। हिन्दू- मुसलमान दोनों के ही साम्प्रदायिक, रूढग्रस्त विचारों की उन्होंने आलोचना की। अपनी सहज अभिव्यक्ति में कबीर ने लिखा – ”कंकर पत्थर जोड के मस्जिद दी बनाय। ता पर मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाय।।” इतना ही नहीं इससे भी बढकर लिखा ”दिन में रोजा रखत हो, रात हनत हो गाय। यह तो खून औ बंदगी, कैसे खुशी खुदाय।।” ऐसे ही हिन्दुओं के अंधविश्वासों पर उन्होंने चोट की। धर्म के क्षेत्र में आडम्बरों का कबीर ने खुला विरोध किया। ”पाहन पूजे हरि मिले – तो मैं पूजूं पहार। ताते तो चाकी भली, पीस खाय संसार।।” कबीर का दृष्टिकोण सुधारवादी था उन्होंने बताया ”मूंड मुंडाए हरि मिले, सबही लेऊँ मुंडाए। बार-बार के मूंड ते भेड न बैकुंठ जाए।।” कबीर ने हिन्दुओं के जप-तप, तिलक, छापा, व्रत, भगवा वस्त्र, आदि की व्यर्थता बताते हुए लिखा-”क्या जप क्या तप संयमी, क्या व्रत क्या अस्नान। जब लगि मुक्ति न जानिए, भाव भक्ति भगवान।।” मरणोपरांत गंगा में अस्थि विसर्जन पर कबीर ने लिखा – ”जारि वारि कहि आवे देहा, मूआ पीछे प्रीति सनेहा। जीवित पित्रहि मारे डंडा, मूआ पित्र ले घालै गंगा।।” समाज में कई अस्वस्थ लोकाचारों पर कबीर ने प्रहार किए। वे कहते हैं – यदि मन में छल कपट की गर्द भरी है तो योग भी व्यर्थ है। ”हिरदे कपट हरिसँ नहिं सांचो, कहा भयो जो अनहद नाच्यौ।।‘‘
कबीर ने ब्रह्म को करुणामय माना है। ब्रह्म माया, और जीव के सम्बन्ध में कबीर के दार्शनिक विचारों का वर्णन है। कबीर निर्गुणोपासक थे। उन्होंने राम के गुणातीत, अगम्य, अगोचर, निरंजन ब्रह्म का वर्णन किया है। मानना होगा भक्ति आन्दोलन के सुधारवादी भक्त कवियों में कबीर का अपना अलग ही स्थान व नाम है। भगवा वस्त्र पहन कर जंगलों की खाक छानने के पक्ष में कबीर नहीं थे। उन्होंने धर्म एवं भक्ति में दिखावे को त्याग, तीर्थांटन, मूर्तिपूजा आदि को धर्म परिधि से बाहर रखा। कबीर कहते हैं, ”काम-क्रोध, तृष्णा तजै, ताहि मिले भगवान।।” राम अर्थात् उनके ब्रह्म में अपने खुद के समर्पण की चरमसीमा देखने योग्य है। ”लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल। लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।‘‘ कबीर के बारे में किसी ने यह सही लिखा प्रतीत होता है, ”ज्ञान में कबीर परम हंस, कल्पना में योगी, और अनुभूति में प्रिय के प्रेम की भिखारिणी पतिव्रता नारी हो।‘‘ कबीर में अतिवाद कहीं भी नहीं। ब्रह्म परमसत्ता को कबीर ने सहजता से सर्वव्यापी बताते हुए कहा – ”ना मैं गिरजा ना मैं मंदिर, ना काबे कैलास में। मौको कहाँ ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में।।‘‘
कबीर का दृष्टिकोण सुधारवादी ही रहा। कबीर ने किसी धर्म विशेष एवं दर्शन की पताका ऊँची नहीं की। वस्तुतः उन्होंने तो अपने को मानवीय तत्त्वों से सम्बद्ध रखा। धर्म व सुधार के नाम पर कबीर ने जनता को उलझाया नहीं, उन्होंने तो खण्डन कर उलझनों से दूर रखा। जनमानस को अभेद की ओर प्रेरित कर भ्रम-माया से दूर रहने की प्रेरणा दी, इसीलिए कबीर मानवतावादी सुधारक माने जाते हैं। कबीर ने ईश्वर प्रेम, भक्ति व साधना में माया को बाधक माना। कबीर ने कहा माया आकर्षक व मनमोहक है। माया आचरण के कारण ही आत्मा अपने परमात्म रूप को नहीं पहचान पाती। माया ब्रह्म से मिलने नहीं देती। ”कबीर माया पापणी, हरि सूं करे हराम। मुख कडया को कुमति, कहने न देई राम।।

कबीर : एक सांप्रदायिक विश्लेषण


 
पंद्रहवीं शताब्दी में संतकाल के प्रारंभ में सारा भारतीय वातावरण क्षुब्ध था। बहुत से पंडित जन इस क्षोभ का कारण खोजो में व्यस्त थे और अपने- अपने ढ़ंग पर समाज और धर्म को संभालने का प्रयत्न कर रहे थे। इस अराजकता का कारण इस्लाम जैसे एक सुसंगठित संप्रदाय का आगमन था। इसके बाद देश के उथल- पुथल वातावरण में महात्मा कबीर ने काफी संघर्ष किया और अपने कड़े विरोधों तथा उपदेशों से समाज को बदलने का पूरा प्रयास किया। सांप्रदयिक भेद- भाव को समाप्त करने और जनता के बीच खुशहाली लाने के लिए निमित्त संत- कबीर अपने समय के एक मजबूत स्तंभ साबित हुए। वे मूलतः आध्यात्मिक थे। इस कारण संसार और सांसारिकता के संबंध में उन्होंने अपने काल में जो कुछ कहा, उसमें भी आध्यात्मिक स्वर विशेष रुप से मुखर है।
इनके काजी मुल्ला पीर पैगम्बर रोजा पछिम निवाज।
इनके पूरब दिसा देव दिज पूजा ग्यारिसि गंगदिवाजा।
कहे कबीर दास फकीरा अपनी राह चलि भाई।
हिंदू तुरुक का करता एकै ता गति लखी न जाई।
कबीर- व्यवहार में भेद- भाव और भिन्नता रहने के कारण सांप्रदायिक कटुता बराबर बनी रही। कबीर दास इसी कटुता को मिटाकर, भाई चारे की भावना का प्रसार करना चाहते थे। उन्होंने जोरदार शब्दों में यह घोषणा की कि राम और रहीम में जरा भी अंतर नहीं है :-
कबीर ने अल्लाह और राम दोनों को एक मानकर उनकी वंदना की है, जिससे यह सिद्ध होता है कि उन्होंने अध्यात्म के इस चरम शिखर की अनुभूति कर ली थी, जहाँ सभी भिन्नता, विरोध- अवरोध तथा समग्र द्वेैत- अद्वेैत में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। प्रमुख बात यह है कि वे हिंदू- मुसलमान के जातीय और धार्मिक मतों के वैमनष्य को मिटाकर उन्हें उस मानवीय अद्वेैत धरातल पर प्रतिष्ठित करने में मानवता और आध्यात्म के एक महान नेता के समान प्रयत्नशील हैं। उनका विश्वास था कि “”सत्य के प्रचार से ही वैमनष्य की भावना मिटाई जा सकती है। इस समस्या के समाधान हेतु, कबीर ने जो रास्ता अपनाया था, वह वास्तव में लोक मंगलकारी और समयानुकूल था। अल्लाह और राम की इसी अद्वेैत अभेद और अभिन्न भूमिका की अनुमति के माध्यम से उन्होंने हिदूं- मुसलमान दोनों को गलत कार्य पर चलने के लिए वर्जित किया और लगातार फटकार लगाई।
ना जाने तेरा साहब कैसा है,
मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारे, क्या साहब तेरा बहिरा है,
पंडित होय के आसन मारे लंबी माला जपता है।
अंतर तेरे कपट कतरनी, सो भी साहब लखता है।
हिंदू- मुसलमान दोनों का विश्वास भगवान में है। कबीर ने इसी विश्वास के बल पर दोनों जातियों को एक करने का प्रयत्न किया। भाईचारे की भावना उत्पन्न करने की चेष्टा की।
सबद सरुपी जिव- पिव बुझों,
छोड़ो भय की ढेक।
कहे कबीर और नहिं दूज।
जुग- जुग हम तुम एक।
कबीर शब्द- साधना पर जोर दे रहे हैं। इनका कथन है, तुम श्रम तज कर शब्द साधना करो और अमृत रस का पान करो, हम तुम कोई भेद नहीं हैं, हम दोनों इसी एक पिता की संतान हैं। इसी अर्थ में कबीर दास हिंदू और मुसलमान के स्वयं विधायक हैं।
बड़े कठोर तप, त्याग, बलिदान और संकल्प शक्ति को अपना कवच बनाकर भारत की जनता ने अपनी खोई हुई स्वतंत्रता को प्राप्त कर ली, लेकिन इसके साथ ही सांप्रदायिकता की लहर ने इस आनंद बेला में विष घोल दिया। भारत का विभाजन हुआ। इस विभाजन के बाद असंख्य जानें गई, लाखों घर तबाह हुए और बूढ़े, बच्चे, जवान, हिंदू, मुस्लिम सब समाज विरोधी तत्वों के शिकार हुए। इन तमाम स्थितियों से निबटने के लिए मानवतावादी सुधार की आवश्यकता थी, यह काम अध्यात्म से ही संभव था। कबीर ने अपने समय और अब हमलोग भी एक दिन चले जाएँगे। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन अल्प है। इस अवधि का सदुपयोग इस स्मरण में करना चाहिए। सांसारिक हर्ष- विषाद को विशेष महत्व नहीं देना चाहिए।
पंडितों का ढोंगपूर्ण रवैया देखकर उन्हें चेतावनी देते हुए कहते हैं :-
पंडित होय के आसन मारे, लंबी माला जपता है,
अंतर तेरे कपट कतरनी, सो सो भी साहब लगता है,
ऊँचा निचा महल बनाया, गहरी नेव जमाता है,
कहत कबीर सुनो भाई साधो हरि जैसे को तैसा है।
कबीर शोषणकर्ता को रोषपूर्ण आगाह करते है कि भगवान के दरबार में न्याय होने पर उन्हें अपने किए का फल अवश्य भुगतना पड़ेगा। दूसरी ओर निरीह जनता को वे समझाते हुए कहते हैं :-
कबीर नौवति आपणी, दिन दस लेहु बजाई,
ऐ पुर पारन, एक गली, बहुरि न देखें आई।
महात्मा कबीर कहते हैं कि यह जीवन कुछ ही दिनों के लिए मिला है, अतः इसका उपयोग सार्थक ढंग से खुब आनंदपूर्वक करना चाहिए।
जो करेंगे सो भरेंगे, तू क्यों भयो उदास,
कछु लेना न देना, मगन रहना,
कहे कबीर सुनो भाई साधो,
गुरु चरण में लपटे रहना।
“”महात्मा कबीर साहब संतप्त जनता को समझाते हुए कहते हैं कि कर्तव्य निर्विकार रुप से करो, व्यर्थ के प्रपंच में मत पड़ो, सर्वदा अपने मन को गुरु में लगाए रहो।”
जीवित ही कछु कीजै,
हरि राम रसाइन पीजै।
महात्मा कबीर दास ने पीड़ित जनता के दुख- दर्द को दूर करने के लिए “”राम रसायन” का आविष्कार किया। कबीर साहब ने पहली बार जनता को उसकी विपलता में ही खुश रहने का संदेश दिया।
कबीर मध्यकाल के क्रांतिपुरुष थे। उन्होंने देश की अंदर और बाहर की परिस्थितियों पर एक ही साथ धावा बोलकर, समाज और भावलोक को जो प्रेरणा दी, उसे न तो इतिहास भुला सकता है और न ही साहित्य इतनी बलिष्ठ रुढियों पर जिस साहस और शक्ति से प्रहार किया, यह देखते ही बनता है।
संतों पांडे निपुण कसाई,
बकरा मारि भैंसा पर धावै, दिल में दर्द न आई,
आतमराम पलक में दिन से, रुधिर की नदी बहाई।
कबीर ने समाज की दुर्बलता और अद्योगति को बड़ी करुणा से देखकर, उसे ऊपर उठाने के मौलिक प्रयत्न किया। उन्होंने भय, भत्र्सना और भक्ति जैसे अस्रों का उपयोग राजनैतिक विभिषिकाओं और सामाजिक विषमताओं जैसे शत्रु को परास्त करने के लिए किया। कबीर साहब यह बात समझ चुके थे कि इन शत्रुओं के विनाश होने पर ही जनता का त्राण मिल सकता है। अतः उनका सारा विरोध असत्य, हिंसा और दुराग्रह से था। उनका उद्देश्य जीवन के प्रति आशा पैदा करना था।
कबीर का तू चित वे, तेरा च्यता होई,
अण च्यता हरि जो करै, जो तोहि च्यंत नहो।
महात्मा कबीर शोकग्रस्त जनता को सांत्वना देते हैं “”तुम चिंता क्यों करते हो ? सारी चिंता छोड़कर प्रभु स्मरण करो।”
केवल सत्य विचारा, जिनका सदा अहार,
करे कबीर सुनो भई साधो, तरे सहित परिवार।
कब उनके अनुसार जो सत्यवादी होता है, उसका तो भला होता ही है, साथ- साथ उसके सारे परिवार का भी भला होता है और वे लोग सुख पाते हैं। वह कहते हैं, सारे अनर्थों की जड़, असत्य और अन्याय है, इनका निर्मूल होने पर ही शुभ की कल्पना की जा सकती है। इसी अध्यात्म का सहारा लेकर हिंदू- मुस्लिम के भेद- भाव को मिटाने का प्रयत्न किया था, इसके साथ- साथ ही उन्होंने अपने नीतिपरक पदों के द्वारा जनता का मनोबल बढ़ाने का प्रयत्न किया था। इसके साथ- साथ ही उन्होंने अपने नीतिपरक पदों के द्वारा जनता का मनोबल बढ़ाने का प्रयत्न किया था। आज के परिवेश में भी इन्हीं उपायों की आवश्यकता है।
सांप्रदायिक मतभेदों या दंगों का कारण अज्ञान या नासमझी है। इस नासमझी या अज्ञान को दूर करने के लिए कबीर दास द्वारा बताए गए उपायों का प्रयोग किया जाना आवश्यक है। कबीर की वाणी ही समस्त समस्याओं का निवारण करने में समर्थ है।
ऊँच- नीच, जाति- पाति का भेद मिटाकर सबको एक समान सामाजिक स्तर देने का कार्य किया। आज के संदर्भ में भी इसी चीज की जरुरत है।
गुप्त प्रगट है एकै दुधा, काको कहिए वामन- शुद्रा
झूठो गर्व भूलो मति कोई, हिंदू तुरुक झूठ कुल दोई।।
वर्तमान समस्याएँ चाहे सांप्रदायिक हो चाहे वैयक्तिक, सबका समुचित समाधान नैतिक मूल्य प्रस्तुत करते हैं।
कबीर दर्शन में जाति- धर्म का कोई बंधन स्वीकार नहीं है। सारे अलगाववादी विधानों को तोड़कर वह एक शुद्र मानव जाति का निर्माण करता है, इसलिए आज के संदर्भ में इसकी उपयोगिता बढ़ गई है।

कबीर : एक सामाजिक विश्लेषण


 
जिन दिनों कबीर दास का आविर्भाव हुआ था, उन दिनों हिंदूओं में पौराणिक मत ही प्रबल था। देश में नाना प्रकार की साधनाएँ प्रचलित थी। कोई वेद का दिवाना था, तो कोई उदासी और कई तो ऐसे थे, जो दीन बनाए फिर रहा था, तो कोई दान- पुण्य में लीन था। कई व्यक्ति ऐसे थे, जो मदिरा के सेवन ही में सब कुछ पाना चाहता था तथा कुछ लोग तंत्र- मंत्र, औषधादि की करामात को अपनाए हुआ था।
इक पठहि पाठ, इक भी उदास,
इक नगन निरन्तर रहै निवास,
इक जीग जुगुति तन खनि,
इक राम नाम संग रहे लीना।
कबीर ने अपने चतुर्दिक जो कुछ भी देखा- सुना और समझा, उसका प्रचार अपनी वाणी द्वारा जोरदार शब्दों में किया :-
ऐसा जो जोग न देखा भाई, भुला फिरे लिए गफिलाई
महादेव को पंथ चलावे, ऐसा बड़ो महंत कहावै।।
कबीर दास ने जब अपने तत्कालीन समाज में प्रचलित विडम्बना देखकर चकित रह गए। समाज की इस दुहरी नीति पर उन्होंने फरमाया :-
पंडित देखहु मन मुंह जानी।
कछु धै छूति कहां ते उपजी, तबहि छूति तुम मानी।
समाज में छुआछूत का प्रचार जोरों पर देखकर कबीर साहब ने उसका खंडन किया। उन्होंने पाखंडी पंडित को संबोधित करके कहा कि छुआछूत की बीमारी कहाँ से उपजी।
तुम कत ब्राह्मण हम कत सूद,
हम कत लौहू तुम कत दूध,
जो तुम बाभन बाभनि जाया,
आन घाट काहे नहि आया।
महात्मा कबीर साहब ब्राह्मण के अभिमान यह कहकर तोड़ते हैं कि अगर तुम उच्च जाति के खुद को मानते हो, तो तुम किसी दूसरे मार्ग से क्यों नहीं आए ? इस प्रकार कबीर ने समाज व्यवस्था पर नुकीले एवं मर्मभेदी अंदाज से प्रहार किया। समाज में व्याप्त आडंबर, कुरीति, व्याभिचार, झूठ और पाखंड देखकर वे उत्तेजित हो जाते और चाहते कि जन- साधारण को इस प्रकार के आडम्बर एवं विभेदों से मुक्ति मिले और उनके जीवन में सुख- आनंद का संचार हो।
महात्मा कबीर के पास अध्यात्मिक ज्ञान था और इसी ज्ञान के द्वारा वे लोगों को आगाह करते थे :-
आया है सो जाएगा, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढि चलें, एक बंधे जंजीर।
अपने कर्तव्य के अनुसार हर व्यक्ति को फल मिलना निश्चित है। हर प्राणी को यहाँ से जाना है। समाज व्याप्त कुरीतियों करने और जन- समुदाय में सुख- शान्ति लाने के लिए कबीर एक ही वस्तु को अचूक औषधि मानते हैं, वह है आध्यात्म। वे चाहते हैं कि मानव इसका सेवन नियमित रुप से करे।
महात्मा कबीर दास के सुधार का प्रभाव जनता पर बड़ी तेजी से पड़ रहा था और वह वर्ण- व्यवस्था के तंत्र को तोड़ रहे थे, उतने ही तेजी से व्यवस्था के पक्षधरों ने उनका विरोध भी किया। संत के आस- पास, तरह- तरह के विरोधों और चुनौतियों की एक दुनिया खड़ी कर दी। उन्होंने सभी चुनौतियों का बड़ी ताकत के साथ मुकाबला किया। इसके साथ ही अपनी आवाज भी बुलंद करते रहे और विरोधियों को बड़ी फटकार लगाते रहे।
तू राम न जपहि अभागी,
वेद पुरान पढ़त अस पांडे,
खर चंदन जैसे भारा,
राम नाम तत समझत नाहीं,
अति पढ़े मुखि छारा।।
इसी प्रकार कबीर अपने नीति परक, मंगलकारी सुझावों के द्वारा जनता को आगाह करते रहे ओर चेतावनी देते रहे कि मेरी बात ध्यान से सुनो और उस पर अमल करो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा।
घर- घर हम सबसों कही, सवद न सुने हमारा।
ते भव सागर डुबना, लख चौरासी धारा।।
कबीर साहब समाज में तुरंत परिवर्तन चाहते थे। आशानुकूल परिवर्तन नहीं होते देखकर वे व्यथित हो उठते थे। उन्हें दुख होता था कि उनकी आवाज पर उनके सुझाव पर कोई ध्यान नहीं
दे रहा है।
आधुनिक संदर्भ में भी यही बात कही जा सकती है। आज भी भारतीय समाज की वही स्थिति है, जो कबीर काल में थी। सामाजिक आडंबर, भेद- भाव, ऊँच- नीच की भावना आज भी समाज में व्याप्त है। व्याभिचार और भ्रष्टाचार का बाजार गर्म है। आए दिन समाचार पत्रों आग लगी, दहेज मौत, लूट, हत्या और आत्महत्या की खबरें छपती रहती हैं।
समाज के सब स्तर पर यही स्थिति है। “”राजकीय अस्पतालों में जो रोगी इलाज के लिए भर्ती होते हैं, उन्हें भर पेट भोजन और साधारण औषधि भी नहीं मिलती। इसके अलावे अस्पताल में कई तरह की अव्यवस्था और अनियमितता है।”
देश के संतों, चिंतकों तथा बुद्धिजीवियों ने बराबर इस बात की उद्घोषणा की है कि “”नीति- विहीन शासन कभी सफल नहीं हो सकता। नीति और सदाचार अध्यात्म की जड़ है। देश की अवनति तथा सामाजिक दूरव्यवस्था का मुख्य कारण यही है कि आज हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर को भूल कर पाश्चात्य चकाचौंध की ओर आकर्षित हो गए हैं। ऊपरी आडंबर और शान- शौकत को ही मुख्य वस्तु मान कर हम अपनी शालीनता, गरिमा तथा जीवन मूल्यों को भूल गए हैं, जिसका फल है – पतन, निराशा और दुख। आज के संसार में सब कुछ उल्टा हो रहा है और इसीलिए लोग सत्य का दर्शन नहीं कर पाते। कबीर- पंथ की परंपरा में स्वामी अलखानंद लिखते हैं :-
सिंह ही से स्यार लड़ाई में जीति।
साधु करे चोरि चोर को नीति।
लड्डू लेई खात स्वाद आवे तीति।
मरीच के खात स्वाद मीठ मीति।
ऐसी ही ज्ञान देखो उल्टा रीति।।
इस नाजुक परिस्थिति से अध्यात्मिकता तथा नैतिकता ही हमें उबार सकती है। कबीर- साहित्य ऐसे ही विचारों, भावनाओं और शिक्षाओं की गहरी है। उसमें अनमोल मोती गुंथे हैं। उन्होंने मानव जीवन के सभी पक्षों को स्पर्श किया है। अतः आज की स्थिति में कबीर साहित्य हमारा मार्ग दर्शन करने में पूर्ण रुप से सक्षम है।
एक बूंद से सृष्टि रची है, को ब्रह्ममन को सुद्र।
हमहुं राम का, तुमहुं राम का, राम का सब संसार।।
कबीर का उपदेश सार्वभौम, सार्वजनिक, मानवतावादी तथा विश्वकल्याणकारी है। उन्होंने सामान्य मानव धर्म अथवा समाज की प्रतिष्ठा के लिए जिस साधन का प्रयोग किया था, वह सांसारिक न होकर आध्यात्मिक था।
आधुनिक संदर्भ में कबीर का कहा गया उपदेश सभी दृष्टियों से प्रासंगिक है। जिस ज्ञान और अध्यात्म की चर्चा आज के चिंतक और संत कर रहे हैं, वही उद्घोषणा कबीर ने पंद्रहवीं शताब्दी में की थी। अतः आज भी कबीर साहित्य की सार्थकता और प्रासंगिकता बनी हुई है। आज के परिवेश में जरुरी है कि इसका प्रसार किया जाए, ताकि देश और समाज के लोग इससे लाभांवित हो सके।

कबीर : एक सामाजिक विश्लेषण


 
जिन दिनों कबीर दास का आविर्भाव हुआ था, उन दिनों हिंदूओं में पौराणिक मत ही प्रबल था। देश में नाना प्रकार की साधनाएँ प्रचलित थी। कोई वेद का दिवाना था, तो कोई उदासी और कई तो ऐसे थे, जो दीन बनाए फिर रहा था, तो कोई दान- पुण्य में लीन था। कई व्यक्ति ऐसे थे, जो मदिरा के सेवन ही में सब कुछ पाना चाहता था तथा कुछ लोग तंत्र- मंत्र, औषधादि की करामात को अपनाए हुआ था।
इक पठहि पाठ, इक भी उदास,
इक नगन निरन्तर रहै निवास,
इक जीग जुगुति तन खनि,
इक राम नाम संग रहे लीना।
कबीर ने अपने चतुर्दिक जो कुछ भी देखा- सुना और समझा, उसका प्रचार अपनी वाणी द्वारा जोरदार शब्दों में किया :-
ऐसा जो जोग न देखा भाई, भुला फिरे लिए गफिलाई
महादेव को पंथ चलावे, ऐसा बड़ो महंत कहावै।।
कबीर दास ने जब अपने तत्कालीन समाज में प्रचलित विडम्बना देखकर चकित रह गए। समाज की इस दुहरी नीति पर उन्होंने फरमाया :-
पंडित देखहु मन मुंह जानी।
कछु धै छूति कहां ते उपजी, तबहि छूति तुम मानी।
समाज में छुआछूत का प्रचार जोरों पर देखकर कबीर साहब ने उसका खंडन किया। उन्होंने पाखंडी पंडित को संबोधित करके कहा कि छुआछूत की बीमारी कहाँ से उपजी।
तुम कत ब्राह्मण हम कत सूद,
हम कत लौहू तुम कत दूध,
जो तुम बाभन बाभनि जाया,
आन घाट काहे नहि आया।
महात्मा कबीर साहब ब्राह्मण के अभिमान यह कहकर तोड़ते हैं कि अगर तुम उच्च जाति के खुद को मानते हो, तो तुम किसी दूसरे मार्ग से क्यों नहीं आए ? इस प्रकार कबीर ने समाज व्यवस्था पर नुकीले एवं मर्मभेदी अंदाज से प्रहार किया। समाज में व्याप्त आडंबर, कुरीति, व्याभिचार, झूठ और पाखंड देखकर वे उत्तेजित हो जाते और चाहते कि जन- साधारण को इस प्रकार के आडम्बर एवं विभेदों से मुक्ति मिले और उनके जीवन में सुख- आनंद का संचार हो।
महात्मा कबीर के पास अध्यात्मिक ज्ञान था और इसी ज्ञान के द्वारा वे लोगों को आगाह करते थे :-
आया है सो जाएगा, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढि चलें, एक बंधे जंजीर।
अपने कर्तव्य के अनुसार हर व्यक्ति को फल मिलना निश्चित है। हर प्राणी को यहाँ से जाना है। समाज व्याप्त कुरीतियों करने और जन- समुदाय में सुख- शान्ति लाने के लिए कबीर एक ही वस्तु को अचूक औषधि मानते हैं, वह है आध्यात्म। वे चाहते हैं कि मानव इसका सेवन नियमित रुप से करे।
महात्मा कबीर दास के सुधार का प्रभाव जनता पर बड़ी तेजी से पड़ रहा था और वह वर्ण- व्यवस्था के तंत्र को तोड़ रहे थे, उतने ही तेजी से व्यवस्था के पक्षधरों ने उनका विरोध भी किया। संत के आस- पास, तरह- तरह के विरोधों और चुनौतियों की एक दुनिया खड़ी कर दी। उन्होंने सभी चुनौतियों का बड़ी ताकत के साथ मुकाबला किया। इसके साथ ही अपनी आवाज भी बुलंद करते रहे और विरोधियों को बड़ी फटकार लगाते रहे।
तू राम न जपहि अभागी,
वेद पुरान पढ़त अस पांडे,
खर चंदन जैसे भारा,
राम नाम तत समझत नाहीं,
अति पढ़े मुखि छारा।।
इसी प्रकार कबीर अपने नीति परक, मंगलकारी सुझावों के द्वारा जनता को आगाह करते रहे ओर चेतावनी देते रहे कि मेरी बात ध्यान से सुनो और उस पर अमल करो, इससे तुम्हारा कल्याण होगा।
घर- घर हम सबसों कही, सवद न सुने हमारा।
ते भव सागर डुबना, लख चौरासी धारा।।
कबीर साहब समाज में तुरंत परिवर्तन चाहते थे। आशानुकूल परिवर्तन नहीं होते देखकर वे व्यथित हो उठते थे। उन्हें दुख होता था कि उनकी आवाज पर उनके सुझाव पर कोई ध्यान नहीं
दे रहा है।
आधुनिक संदर्भ में भी यही बात कही जा सकती है। आज भी भारतीय समाज की वही स्थिति है, जो कबीर काल में थी। सामाजिक आडंबर, भेद- भाव, ऊँच- नीच की भावना आज भी समाज में व्याप्त है। व्याभिचार और भ्रष्टाचार का बाजार गर्म है। आए दिन समाचार पत्रों आग लगी, दहेज मौत, लूट, हत्या और आत्महत्या की खबरें छपती रहती हैं।
समाज के सब स्तर पर यही स्थिति है। “”राजकीय अस्पतालों में जो रोगी इलाज के लिए भर्ती होते हैं, उन्हें भर पेट भोजन और साधारण औषधि भी नहीं मिलती। इसके अलावे अस्पताल में कई तरह की अव्यवस्था और अनियमितता है।”
देश के संतों, चिंतकों तथा बुद्धिजीवियों ने बराबर इस बात की उद्घोषणा की है कि “”नीति- विहीन शासन कभी सफल नहीं हो सकता। नीति और सदाचार अध्यात्म की जड़ है। देश की अवनति तथा सामाजिक दूरव्यवस्था का मुख्य कारण यही है कि आज हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर को भूल कर पाश्चात्य चकाचौंध की ओर आकर्षित हो गए हैं। ऊपरी आडंबर और शान- शौकत को ही मुख्य वस्तु मान कर हम अपनी शालीनता, गरिमा तथा जीवन मूल्यों को भूल गए हैं, जिसका फल है – पतन, निराशा और दुख। आज के संसार में सब कुछ उल्टा हो रहा है और इसीलिए लोग सत्य का दर्शन नहीं कर पाते। कबीर- पंथ की परंपरा में स्वामी अलखानंद लिखते हैं :-
सिंह ही से स्यार लड़ाई में जीति।
साधु करे चोरि चोर को नीति।
लड्डू लेई खात स्वाद आवे तीति।
मरीच के खात स्वाद मीठ मीति।
ऐसी ही ज्ञान देखो उल्टा रीति।।
इस नाजुक परिस्थिति से अध्यात्मिकता तथा नैतिकता ही हमें उबार सकती है। कबीर- साहित्य ऐसे ही विचारों, भावनाओं और शिक्षाओं की गहरी है। उसमें अनमोल मोती गुंथे हैं। उन्होंने मानव जीवन के सभी पक्षों को स्पर्श किया है। अतः आज की स्थिति में कबीर साहित्य हमारा मार्ग दर्शन करने में पूर्ण रुप से सक्षम है।
एक बूंद से सृष्टि रची है, को ब्रह्ममन को सुद्र।
हमहुं राम का, तुमहुं राम का, राम का सब संसार।।
कबीर का उपदेश सार्वभौम, सार्वजनिक, मानवतावादी तथा विश्वकल्याणकारी है। उन्होंने सामान्य मानव धर्म अथवा समाज की प्रतिष्ठा के लिए जिस साधन का प्रयोग किया था, वह सांसारिक न होकर आध्यात्मिक था।
आधुनिक संदर्भ में कबीर का कहा गया उपदेश सभी दृष्टियों से प्रासंगिक है। जिस ज्ञान और अध्यात्म की चर्चा आज के चिंतक और संत कर रहे हैं, वही उद्घोषणा कबीर ने पंद्रहवीं शताब्दी में की थी। अतः आज भी कबीर साहित्य की सार्थकता और प्रासंगिकता बनी हुई है। आज के परिवेश में जरुरी है कि इसका प्रसार किया जाए, ताकि देश और समाज के लोग इससे लाभांवित हो सके।

कबीर और आधुनिक सांप्रदायिक स्थिति



 
सांप्रदायिक तनाव की स्थिति आज देश में सर्वाधिक चिंतनीय है। देश में संप्रदाय के नाम पर लोगों को आपस में खूब लड़ाया जाता है। राजनैतिक दल एवं राजनेता स्वयं जातिवाद या सांप्रदायवाद के प्रतीक बन गए हैं। आज हर वर्ष देश के कुछ भागों में सांप्रदायिक दंगे का भड़क जाना और सैकड़ों बेगुनाहों का खून बह जाना, सामान्य बात हो गई है।
१९४७ ई. में सांप्रदायिकता को आधार बनाकर देश का विभाजन कर दिया गया। यही सांप्रदायिकता की आग लगातार बढ़ती ही गई, अब तो स्थिति इतनी अधिक उत्तेजक हो गई है कि इस ओर सभी बुद्धिजीवियों और शुभ- चिंतकों का ध्यान आकृष्ट होने लगा है। प्रत्येक साल कही- न- कहीं दंगा होता रहता है। हजारों लोग हर दंगे में मारे जाते हैं। हजारों गिरफ्तारियाँ होती हैं। लाखों- करोड़ों की संपत्ति जला दी जाती है। यह सब आपसी धार्मिक मतभेदों की वजह से होता है। आवश्यकता है कि सभी धर्मों के प्रति आदर की भावना रखकर, भारत के समस्त नागरिकों को बंधुत्व की भावना सहयोगपूर्वक रहने के प्रति जागरुक किया जाए।
हिंदू तुरुक की एक राह में, सतगुरु है बताई।
कहै कबीर सुनहू हो संतों, राम न कहेउ खुदाई।।
संत महात्मा कबीर ने सांप्रदायिकता का विरोध कड़े शब्दों में किया है। कबीर साहब से अधिक जोरदार शब्दों में सांप्रदायिक एकता का प्रतिपादन किसी ने नहीं किया।
सोई हिंदू सो मुसलमान, जिनका रहे इमान।
सो ब्राह्मण जो ब्राह्म गियाला, काजी जो जाने रहमान।।
महात्मा के अनुसार सच्चा हिंदू या मुसलमान वही है, जो इमानदार है और निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता है। सारे अनर्थों की जड़ यही बेईमानी है। आदमी बईमान हुआ, तब सब अनर्थ कामों की शुरुआत हो गई। आज समाज में चारों तरफ बेईमानी के कारण ही वातावरण दुखी और असहनीय हो रहा है। आज का मनुष्य एक ओर ईश्वर की पूजा करता है और दूसरी ओर मनुष्य का तिरस्कार करता है। प्रेम के महत्व को कबीर साहब इस प्रकार बताते हैं :-
पोथी पढि- पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई अच्छर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।
कबीर के अनुसार प्रेम ही ऐसा तत्व है, जो पारस्परिक मैत्री का भाव लाता है और कटुता को समाप्त करता है।
काहि कबीर वे दूनों भूले, रामहि किन्हु न पायो।
वे खस्सी वे गाय कटावै, वादाहि जन्म गँवायो।।
जेते औरत मरद उवासी, सो सब रुप तुम्हारा।
कबीर अल्ह राम का, सो गुरु पीर हमारा।।
हिंदू- मुस्लिम एकता के लिए कबीर के उपदेश और उनके द्वारा किया गया कार्य आज सामान्य लोगों के अंदर फैलाने और बताने आवश्यक है। कबीर ने धार्मिक रुढियों उपासना संबंधी मूढ मान्यताओं तथा मंदिर- मस्जिद विष्यक अंध आस्थाओं के अंतर्विरोधों को निर्ममतापूर्वक अस्वीकार कर दिया था।
हिंदू कहे वह राम हमारा, तुरुक कहे रहिमाना

कबीर का ब्राह्मण व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह




 
संत कबीर स्वयं ऐसे परिवार में जन्में थे, जो तत्कालीन समाज व्यवस्था में अस्पृश्य था। उन्होंने स्वयं वर्ण- व्यवस्था की कटुताओं को झेला था। कबीर साहब मध्यकाल में ब्राह्मण- व्यवस्था के विरुद्ध इस विद्रोह के सबसे बड़े नेता माने जाते हैं। आपने सर्वप्रथम भक्ति परंपराओं का प्रचार किया, जोकि ब्राह्मण- व्यवस्था के विरुद्ध थी। आपने जिस तरह ब्राह्मण- व्यवस्था के गढ में काशी में रहकर, इस व्यवस्था पर प्रहार करते रहे, यह अति सराहनीय माना जाता है। यहाँ के ब्राह्मणों ने तपस्थली को ब्राह्मण और क्षत्रियों तक ही सीमित कर दिया था। कबीर साहब ने इसके खिलाफ नया मूल्य स्थापित किया। उन्होंने वहाँ, “हरिजन सई न जाति’ भक्त से समान कोई दूसरी जाति नहीं है। उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि जो भक्त है, वह यदि अस्पृश्य है, तब भी ब्राह्मणों से श्रेष्ठ है। उन्होंने इस प्रकार भक्ति के हथियार से वर्णाश्रम अन्यायपूर्ण व्यवस्था पर प्रहार किया। वह नया मूल्य स्थापित करते हुए कहते हैं :-
“”जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान।।”
तत्कालीन समाज व्यवस्था में जो व्यक्ति स्वयं नहीं पाता था, उसे अंग्रेज विचारक कीलिन विल्सन ने “”आउट साइडर” कहा था। भक्ति काल का प्रत्येक कवि “”आउट साइंडर” कहलाया, क्योंकि ये कवि रुढियों अन्यायपूर्ण व्यवस्थाओं एवं परंपराओं को छोड़कर चलना चाहते थे। कबीर साहब मध्य काल के ऐसे पहले कवि थे, जिन्हें “”आउट साइडर” कहा गया। कबीर लोक, वेद, शास्र तथा मंत्र को छोड़कर चलना चाहते थे। कबीर साहब को संग्राम का योद्धा कहा जाए, तो अच्छा होगा। कबीर का मानना था कि अगर भगवान को वर्ण- विचार कहना होता, तो वह जन्म से ही तीन विभाजक खींच देते। उत्पत्ति की दृष्टि से समस्त जीव समान है।
“”जौ पै करता बरण बिचारै।
तौं जनमत तीनि डांडी किन सारे।।
उत्पत्ति ब्यंद कहाँ थै आया, जोति धरि अरु लगी माया।
नहिं कोइ उँचा नहिं कोइ नीचे, जाका लंड तांही का सींचा।।
जो तू वामन वमनीं जाया, तो आने बाट हवे काहे न आया।
जो तू तुरक तुरकनीं जाया तो भीतरि खतना क्यूनें करवाया।।
पंडित को वह वटूक्ति सुनाते हुए कहते हैं, जैसे गदहा चंदन का भार वहन करता है, पर उसकी सुगंधि से अभिमूढ नहीं होता। उसी तरह पंडित भी वेद पुराण पढ़कर राम नाम के वास्तविक तत्व नहीं पाता।
पांडे कौन कुमति तोहि लगि, तू राम न जपहि आभागा।
वेद पुराण पढ़त अस पांडे, खर चंदन जैसे भारा।।
राम नाम तत समझत नाहीं, अति अरे मुखि धारा।
वेद पढता का यह फल पाडै राबधटि देखौ रामा।।
कबीर के अनुसार ब्राह्मण को तत्वानुभव नहीं होने के कारण उसकी बात कोई नहीं मानता है।
पंडित संति कहि रहे, कहा न मानै कोई।
ओ अशाध एका कहै, भारी अचिरज होई।।
कबीर साहब ब्राह्मण को जाति- पाति बाँटने का जिम्मेदार मानते हुए कहते हैं कि ब्राह्मण का ज्ञान बासी है और उसका व्यक्तित्व पाखंडपूर्ण है :-
लिखा लिखी की है नहीं , देखा देखी बात।
दुल्हा- दुल्हिन मिल गए, फीको पड़ी बारात।
तत्कालीन ब्राह्मण समाज के लोला ज्ञान पर प्रहार करते हुए वे कहते हैं :-
चार यूं वेद पढ़ाई करि, हरि सूंन लाया हेत।
बाँलि कबीरा ले गया, पंडित ढूँढै खेत।।
कबीर के अनुसार मनुष्य जन्म से समान है, लेकिन समाज ने उसे रुढियों में जकड़ लिया है तथा भाँति- भाँति की क्यारियाँ गढ़ ली गई है। इस प्रकार एक क्यारी का बिखरा, दूसरी क्यारी में नहीं जा सकता है, इस प्रकार कवि जातिवाद और छुआ- छूत सबको पाखंड मानते हैं और कहते हैं :-
पाड़ोसी सू रुसणां, तिल- तिल सुख की होणि।
पंडित भए सरखगी, पाँणी पीवें छाँणि।।
पंडित सरावगी हो गए हैं और पानी को छान कर पीने लगे हैं, अर्थात वे ढ़ोंग करते हैं और दूसरे के धर्म की अनावश्यक नुक्ता- चीनी और छान- बीन करते रहते हैं। आपके अनुसार पंडित का गोरख धंधा बटमारी और डकैती है। पंडित ने इस संसार को पाषाण- मूर्तियों से भर दिया है और इसी के आधार पर पैसा कमाता है।
काजल केरि कोठरी, मसिके कर्म कपाट।
पाहनि बोई पृथमी, पंडित पाड़ी बाट।।
कबीर साहब जात- पात की तुलना में कर्म को श्रेष्ट मानते हैं :-
ऊँचे कुल क्या जनमियाँ, जेकरणी उँच न होई
सोवन कलस सुरै भरया, साधू निंधा सोई।।
अपनी पूरी जिंदगी में कबीर ने सामाजिक कुरीतियों के झाड़- झंखाड़ को साफ करने और उच्चतर मानव का पथ प्रशस्त करने का प्रयास किया।
कबीर साहब का भक्ति में अत्याधिक विश्वास था। भक्ति से युक्त व्यक्ति न तो ब्राह्मण होता है और न चंडाल, बल्कि वह सिर्फ भक्त होता है। कबीर साहब ने समाज के आपसी मतभेद को मिटाकर इस प्रकार का संदेश दिया है, जैसे हल्दी पीली होती है और चुना श्वेत, पर दोनों मिलकर अपना रंग मिलाकर लाल रंग की होली में परिणत हो जाते हैं :-
कबीर हरदी पीयरी, चुना उजल भाय।
राम सनेही यूँ मिले, दन्यूं बस गमाय।।
कबीर की उपर्युक्त रमैनी के अनुसार, राम के भक्त विभिन्न जातियों का परित्याग का एकाकार हो जाते हैं और वे अपने विभिन्न सांप्रदायिक भाव ईश्वर प्रेम की लालिमा में समाहित कर देते हैं। इस प्रकार कावा और काशी या राम और रहीम का भेद मिट जाता है, सब एक ही हो जाते हैं :-
कावा फिर काशी भया, राम भया रहीम।
मोठ चून मैदा भया, बैठो कबीरा जीम।।
इस प्रकार कबीर साहब भक्ति के द्वारा सामाजिक पाथेवय को मिटाते हैं और मन के विधान का अतिक्रमण करने का उपदेश देते हैं।


कबीर:गुरु भक्ति


 
सत गहे, सतगुरु को चीन्हे, सतनाम विश्वासा,
कहै कबीर साधन हितकारी, हम साधन के दासा।
वे कहते, प्रत्येक मानव को गुरु भक्ति और साधन का अभ्यास करना चाहिए। इस सत्य की प्राप्ति से सब अवरोध समाप्त हो जाते हैं।
जो सुख राम भजन में, वह सुख नहीं अमीरी में।
सुख का आधार धन- संपत्ति नहीं है। इसके अभाव में भी मानव सुख- शांति का जीवन जी सकता है।
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह,
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह।
वे कहते हैं, धरती पर सभी कष्टों की जड़ वासना है, इसके मिटते ही चिंता भी समाप्त हो जाती है और शांति स्वमेव आने लगती है। कबीर के कहने का तात्पर्य है कि पूजा- पाठ साधना कोई शुष्क चीज नहीं है, बल्कि इसमें आनंद है, तृप्ति है और साथ ही सभी समस्याओं का समाधान। इसलिए इसको जीवन में सर्वोपरि स्थान देना चाहिए। साधना के प्रति लोगों के हृदय में आकर्षण भाव लाने हेतु उन्होंने अपना अनुभव बताया।
इस घट अंतर बाग बगीचे, इसी में सिरजन हारा,
इस घट अंतर सात समुदर इसी में नौ लख तारा।
गुरु के बताए साधन पर चलकर ध्यान का अभ्यास करने को वे कहते हैं। इससे दुखों का अंत होगा और अंतर प्रकाश मिलेगा। गुरु भक्ति रखकर साधन पथ पर चलनेवाले सभी लोगों को आंतरिक अनुभूति मिलती है।
कबीर का प्रेम
कंलि खोटा जग अंधेरा, शब्द न माने कोय,
जो कहा न माने, दे धक्का दुई और।
महात्मा कबीर किसी भी स्थिति में हार मानने वाले नहीं थे। वे गलत लोगों को ठीक रास्ते पर लाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने दो- चार धक्के खाना भी पसंद था। इस प्रकार कहा जाता है कि कबीर लौह पुरुष थे। वे मानव को प्रेम को अपनाने कहते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर का दूसरा नाम प्रेम है। इसी तत्व को अपनाने पर जीवन की बहुत सारी समस्याएँ स्वतः सुलझ जाती है।
मैं कहता सुरजनहारी, तू राख्यो अरुझाई राखे
कबीर साहब सदा सीधे ढ़ग से जीवन जीने की कला बताते थे। उनका कहना था कि प्रेम के अभाव में यह जीवन नारकीय बन जाता है।
कबीर प्याला प्रेम का अंतर दिया लगाया,
रोम- रोम से रमि रम्या और अमल क्या लाय,
कबीर बादल प्रेम का हम पर वरस्या आई,
अतरि भीगी आत्मा, हरी भई बन आई।
यही “प्रेम’ सब कुछ है, जिसे पान कर कबीर धन्य हो गये। इस बादल रुपी प्रेम की वर्षा में स्नान कर कबीर की आत्मा तृप्त हो गई और उसका मन आनंद विभोर हो उठा। वे कहते हैं, प्रेम ही सर्व है। उसी के आधार पर व्यक्ति एक दूसरे के साथ बंधुत्व की भावना को जागृत कर सकता है। आज के परिवेश में इसी बंधुत्व की भावना के प्रसार की नितांत आवश्यकता है। कबीर साहब की वाणी आज भी हमें संदेश दे रही है कि संसार में कामयाब होने का एक मात्र मार्ग धर्म और समाज की एकता है।

कबीर भक्ति की साधना




कबीर के विचार से यह जीवन, संसार तथा उसके संपूर्ण सुख क्षणिक है। इनके पीछे भागना व्यर्थ में समय को गुजारना है। कबीर के अनुसार यह संसार दुखों का मूल है। सुख का वास्तविक मूल केवल आनंदस्वरुप राम है। इसकी कृपा के बिना, जन्म- मरण तथा तज्जन्य सांसारिक दुखों से मुक्ति नहीं मिल सकती। यही कारण है कि कबीर साहब राम की भक्ति पर अत्यधिक बल देते हैं और कहते हैं कि सब कुछ त्याग का राम का भजन करना चाहिए।
सरबु तिआगि भजु केवल राम कबीर कहते हैं कि राम या परमात्मा की भक्ति से ही माया का प्रभाव नष्ट हो सकता है तथा बिना हरि की भक्ति के कभी दुखों से मुक्ति नहीं हो सकती है।
बिनु हरि भगति न मुक्ति हाइ, इउ कहि रमें कबीर
परंतु कबीर की दृष्टि से भक्ति पूर्णतः निष्काम होनी चाहिए, वे हरि से धन, संतान कोई अन्य सांसारिक सुख माँगने के विरुद्ध हैं, वे तो भक्ति के द्वारा स्वर्ग भी नहीं माँगना चाहते हैं।
कबीर के राम से मुराद राजा दशरथ के पुत्र राजा राम नहीं हैं, बल्कि घट- घट में निवास करने वाले निगुर्ण, निरंजन, निराकार, सत्यस्वरुप एवं आनंदस्वरुप राम हैं। उन्हें परमात्मा, हरि, गोविंद, मुरारी, अल्लाह, खुदा किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है। उन्हें ढ़ुढ़ने के लिए वन में भटकने की आवश्यकता नहीं है, भक्ति और युक्ति से उनका हृदय में साक्षात्कार किया जा सकता है। कबीर के मतानुसार आनंदस्वरुप राम और मनुष्य का आत्मा कोई दो भिन्न तत्व नहीं हैं :-
जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहरि भीतरि पानी।
फुटा कुंभ जल जलाहि समाना यहुतत कघैं गियानी।
कबीर कहते हैं :- साधक अपना अहंभाव खोकर सागर में बूँद की तरह परमात्मा से मिल सकता है :-
हंरत हंरत हे सखी, गया कबीर हिराई।
बूँद समानी समद में, सोकत हरि जाइ।।
कबीर के अनुसार मनुष्य को स्वयं यह विचार करना चाहिए कि दुख का वास्तविक कारण क्या है? सुख का मूल क्या है और उसको पाने का उपाय क्या है ?
ज्ञानदाता गुरु को कबीरदास अत्यंत पूज्य मानते हैं, वो तो गुरु और गोविंद में कोई अंतर नहीं मानते हैं :-
गुर गोविंद तौ एक है, दूजा यहू आकार।
आपा भेट जीवत मरै, तौ पावै करतार।।
कबीर की भक्ति साधना में वेद शास्र के ज्ञान यज्ञ, तीर्थ, व्रत, मूर्ति पूजा आदि की कोई आवश्यकता नहीं है।

कबीर की प्रेम साधना


 
मध्यकालीन कवियों ने प्रेम को सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना था। समाज में व्याप्त क्यारियों को ध्वस्त करने के लिए इन कवियों ने प्रेम की शरण ली थी। कबीर साहब ने इस समस्त काल में प्रेम को प्रतिष्ठा प्रदान किया एवं शास्र- ज्ञान को तिरस्कार किया।
मासि कागद छूओं नहिं,
कलम गहयों नहिं हाथ।
कबीर साहब पहले भारतीय व हिंदी कवि हैं, जो प्रेम की महिमा का बखान इस प्रकार करते हैं :-
पोथी पढ़ी- पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोई।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।।
कबीर के अनुसार ब्राह्मण और चंडाल की मंद- बुद्धि रखने वाला व्यक्ति परमात्मा की अनुभूति नहीं कर सकता है, जो व्यक्ति इंसान से प्रेम नहीं कर सकता, वह भगवान से प्रेम करने का सामर्थ्य नहीं हो सकता। जो व्यक्ति मनुष्य और मनुष्य में भेद करता है, वह मानव की महिमा को तिरस्कार करता है। वे कहते हैं मानव की महिमा अहम् बढ़ाने में नहीं है, वरन् विनीत बनने में है :-
प्रेम न खेती उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाय।
कबीर साहब ने प्रेम की जो परंपरा चलाई, वह बाद के सभी भारतीय कहीं- न- कहीं प्रभावित करता रहा है। इसी पथ पर चलकर रवीन्द्रनाथ टैगोर एक महान व्यक्तित्व के मालिक हुए।
कबीर भक्ति की साधना
कबीर के विचार से यह जीवन, संसार तथा उसके संपूर्ण सुख क्षणिक है। इनके पीछे भागना व्यर्थ में समय को गुजारना है। कबीर के अनुसार यह संसार दुखों का मूल है। सुख का वास्तविक मूल केवल आनंदस्वरुप राम है। इसकी कृपा के बिना, जन्म- मरण तथा तज्जन्य सांसारिक दुखों से मुक्ति नहीं मिल सकती। यही कारण है कि कबीर साहब राम की भक्ति पर अत्यधिक बल देते हैं और कहते हैं कि सब कुछ त्याग का राम का भजन करना चाहिए।
सरबु तिआगि भजु केवल राम कबीर कहते हैं कि राम या परमात्मा की भक्ति से ही माया का प्रभाव नष्ट हो सकता है तथा बिना हरि की भक्ति के कभी दुखों से मुक्ति नहीं हो सकती है।
बिनु हरि भगति न मुक्ति हाइ, इउ कहि रमें कबीर
परंतु कबीर की दृष्टि से भक्ति पूर्णतः निष्काम होनी चाहिए, वे हरि से धन, संतान कोई अन्य सांसारिक सुख माँगने के विरुद्ध हैं, वे तो भक्ति के द्वारा स्वर्ग भी नहीं माँगना चाहते हैं।
कबीर के राम से मुराद राजा दशरथ के पुत्र राजा राम नहीं हैं, बल्कि घट- घट में निवास करने वाले निगुर्ण, निरंजन, निराकार, सत्यस्वरुप एवं आनंदस्वरुप राम हैं। उन्हें परमात्मा, हरि, गोविंद, मुरारी, अल्लाह, खुदा किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है। उन्हें ढ़ुढ़ने के लिए वन में भटकने की आवश्यकता नहीं है, भक्ति और युक्ति से उनका हृदय में साक्षात्कार किया जा सकता है। कबीर के मतानुसार आनंदस्वरुप राम और मनुष्य का आत्मा कोई दो भिन्न तत्व नहीं हैं :-
जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहरि भीतरि पानी।
फुटा कुंभ जल जलाहि समाना यहुतत कघैं गियानी।
कबीर कहते हैं :- साधक अपना अहंभाव खोकर सागर में बूँद की तरह परमात्मा से मिल सकता है :-
हंरत हंरत हे सखी, गया कबीर हिराई।
बूँद समानी समद में, सोकत हरि जाइ।।
कबीर के अनुसार मनुष्य को स्वयं यह विचार करना चाहिए कि दुख का वास्तविक कारण क्या है? सुख का मूल क्या है और उसको पाने का उपाय क्या है ?
ज्ञानदाता गुरु को कबीरदास अत्यंत पूज्य मानते हैं, वो तो गुरु और गोविंद में कोई अंतर नहीं मानते हैं :-
गुर गोविंद तौ एक है, दूजा यहू आकार।
आपा भेट जीवत मरै, तौ पावै करतार।।
कबीर की भक्ति साधना में वेद शास्र के ज्ञान यज्ञ, तीर्थ, व्रत, मूर्ति पूजा आदि की कोई आवश्यकता नहीं है।

कबीर का प्रभाव



 
कबीर ने अपने जीवन के निजी अनुभवों से जो कुछ सीखा था, उसके आलोक में तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, सांप्रदायिक तथा राष्ट्रीय व्यवस्था को देखकर हतप्रभ थे। वे इन स्थितियों में अमूल परिवर्तन लाना चाहते थे, लेकिन उनकी बातों को सुनने और मानने को कोई उत्सुक नहीं था। उनको सारा संसार बौराया हुआ लग रहा था।जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान,
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्याना।
वे फरमाते हैं कि साधू जाति से नहीं, ज्ञान से पुज्यनीय बनता है।
कबीर बराबर प्रयत्नशील रहे कि दुखी, असहाय और पीड़ित जनता के बीच सुख- शांति का प्रसार हो एवं उनका जीवन सुरक्षित और आनंदमय हो। तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर उन्होंने अनुभव किया कि भक्ति के मार्ग पर मोड़कर ही जनता को खुशी प्रदान की जा सकती है। उन्होंने इस अस्र का ही सहारा लिया :-
कहे कबीर सुनो हो साधो, अमृत वचन हमार,
जो भल चाहो आपनी, परखो करो विचार,
आप अपन पो चीन्हहू, नख सिखा सहित कबीर,
आनंद मंगल गाव हु, होहिं अपनपो थीर।
कबीर संतप्त जनजीवन के बीच शांत बना देते थे। वे सुखी जीवन की कला भक्ति को बताते थे। कबीर के पास यही ज्ञान था, इसी ज्ञान के सहारे वे जनजीवन में हरियाली लाने का प्रयास करते रहे। वे कहते हैं कि अगर तुम अपनी भलाई चाहते हो, तो मेरी बातों को ध्यान से सुनो और उन पर अमल भी करो। वे हम मानव को सर्वप्रथम स्वयं को स्थिर करने, शांत होने, अपने को पहचानने एवं आनंद में रहने को कहते हैं। उनके अनुसार जब मानव मन के सारे विकारों को दूर करके शांत स्थिर चित्त से बैठेगा, तो वह हर प्रकार की विषम परिस्थिति से बचा रहेगा। इस प्रकार कबीर मानवतावादी है। मानव के सच्चे शुभचिंतक हैं :-
ओ मन धीरज काहे न धरै,
पशु- पक्षी जीव कीट पतंगा, सबकी सुध करे,
गर्भवास में खबर सेतु है, बाहा ओं विसरै।
रे मन, धैर्य रखो। भगवान सब जीव की सुध लेते हैं, तुम्हारी भी लेंगे। जब तुम नौ मास गर्भ में थे, तब भगवान ही रक्षा कर रहे थे। फिर अब वह तुम्हें कैसे भूल सकते हैं ? कबीर इस बात को महसूस का चुके थे कि जनता को सद्भावना, सहानुभूति और प्यार की जरुरत है। किसी भी मूल्य पर वह गरीब जनता के जीवन से रस घोलना चाहते हैं।
पानी बिच मीन प्यासी, मोहि सुन- सुन आवें हांसी।
घर में वस्तु न नहीं आवत, वन- वन फिरत उदसी।
कबीर साहब कहते हैं, भला जल में मछली रहकर प्यासी रह सकती है ? प्रत्येक मानव के भीतर ईश का वास है, जहाँ निरंतर आनंद- ही- आनंद है। इसी की खोज करना चाहिए। अन्यंत्र बारह घूमने या परेशान होने की कतई जरुरत नहीं है।
कस्तुरी कुंडल वसै, मृग ढ़ूढे वन माहिं,
ऐसे घर- घर राम हैं, दुनियां देखे नाहिं।
कस्तूरी मृग की नाभि में रहता है, लेकिन मृग अज्ञान- वश इसे जंगल में खोजता- फिरता है। इसी तरह सर्वशक्तिमान भगवान और आनंद मनुष्य के अपने अंतर हृदय में ही अवस्थित है, लेकिन अज्ञानी मानव सुख शांति की तलाश में बाहर अंदर घूमता रहता है, जो कि व्यर्थ है। कबीर भक्ति को आकर्षण दिखाकर लोगों के हृदय में शांति का संचार करना चाहते हैं।
दुरलभ दरसन दूर है, नियरे सदा सुख वास,
कहे कबीर मोहि समापिया, मत दुख पावै दास।
कबीर साहब व्यावहारिकता पर बल देते हैं। उनका सब सुझाव सीधा और अनुकरणीय है। वे मानव को सांसारिक प्रपंच से हटाकर अंतर्मुखी होने का सुझाव देते हैं। वे कहते हैं कि दूर का सोचना व्यर्थ है। समीपता में ही सुख का वास है।
परमातम गुरु निकट विराजै,
जाग- जाग मन मेरे,
धाय के पीतम चरनन् लागे,
साई खड़ा सिर तेरे।
उनकी उक्तिनुसार परमात्मा का वास अपने निकट ही है, अतः घबराने की कोई जरुरत नहीं है। आवश्यकता सिर्फ मन को जगाकर परमात्मा में लगाने की है। मानव को दौड़कर भगवान का चरण पकड़ लेना चाहिए, क्योंकि वे सिर के पास ही खड़े हैं। कबीर कहते हैं, आस्था और विश्वास में बहुत बल है। निर्बल जनता के बीच इसी भक्ति का बीजारोपण करने का प्रयास महात्मा कबीर ने किया है।
देह धरे का दण्ड है, सब काहु को होय,
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मुरख भुगते रोय।
सब काहू को होय।
महात्मा कबीर साहब कहते हैं कि सभी शरीर धारियों को इस संसार में अपने कर्मानुसार दुख उठाना ही पड़ता है। दुख की इस घड़ी में कतई घबड़ाना नहीं चाहिए, बल्कि शांतिपूर्वक दुख का सहन करना चाहिए। ज्ञानी जन अपने ज्ञान के बल पर इस दुख की मार को स्थिर चित्त से शांति पूर्वक भोग लेते हैं, लेकिन अज्ञानीजन दुख की मार से तिलमिला जाते हैं और रुदन करने लगते हैं। तत्कालीन परिस्थितियों के परिवेश में जनता को वे समझाते हैं कि तुम जिस भी स्थिति में हो, उसी में रहकर शांतिपूर्वक भगवान का ध्यान लगाओ। तुम्हारा दुख- दर्द सब दूर हो जाएगा। अपने मन को शुद्ध करने की आवश्यकता पर बल दो।
जब लग मनहि विकारा, तब लागि नहीं छूटे संसारा,
जब मन निर्मल भरि जाना, तब निर्मल माहि समाना।
जब तक मन में विकार है, तब तक सांसारिक प्रपंच से छुटकारा पाना संभव नहीं है। शुद्धि के पश्चात ही भक्ति रस में मन रमता है और सांसारिक प्रपंच से मन शनै: शनै: हटने लगता है। वे कहते हैं, मन निर्मल होने पर आचरण निर्मल होगा और आचरण निर्मल होने से ही आदर्श मनुष्य का निर्माण हो सकेगा।
सबसे हिलिया, सबसे मिलिया, सबसे लिजिए
नोहा जी सबसे कहिऐ, वसिये अपने भावा जी।
वे कहते हैं सबसे मिलो जुलो, वर्तालाप करो, सबसे प्रेम करो, लेकिन अपना वास स्थान प्रभु में रखो।
कर से कर्म करो विधि नाना,
मकन राखो जहाँ कृपा निधाना।
संत तुलसी दास भी कहते हैं, “”हाथ से कर्तव्य करो, अपना कर्तव्य पूरा करो, लेकिन मन सर्वदा भगवान में लगाए रखो। आदर्श जीवन जीने की यहीं कला है, जिसकी ओर प्रायः सभी संतों ने आगाह किया है।
सुख सागर में आये के , मत जा रे प्यारा,
अजहुं समझ नर बावरे, जम करत निरासा।
महात्मा कबीर चेतावनी देते हैं कि इस संसार में आकर अपना जीवन व्यर्थ मत करो, रामरस पीकर अपने को तृप्त कर लो। कबीर साहब थोड़ा आक्रोश में आकर कहते हैं, अब भी संभल जाओ, होश में आओ और भक्ति में लग जाओ। भक्ति ही कल्याण का मार्ग मात्र है।
दास कबीर यो कहै, जग नाहि न रहना,
संगति हमरे चले गये, हमहूँ को चलाना।
महात्मा कबीर अपनापन के साथ हमें बतलाते हैं :-
यह संसार हम सबों के लिए चिरस्थायी निवास स्थान नहीं है। यहाँ से प्रत्येक मानव को एक न एक दिन जाना ही पड़ता है। हमारे बहुत संगी चले गए। कबीर के अनुसार मनुष्य कितना भी यशस्वी हो, कितना ही विद्वान हो, कितना ही व्यक्तित्व मुक्त हो, कितना ही समुद्धशाली हो, कितना ही विद्वान हो, मगर जब तक वह अपने अंदर छिपे हुए उस सुक्ष्मातिसुक्ष्म तत्व का अन्वेषण नहीं करता, उसकी प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करता, जब तक उसका जीवन व्यर्थ है :-
हरि बिन झूठे सब त्योहार, केते कोई करी गंगवार।
झूठा जप- तप झूठा गमान, राम नाम बिन झूठा ध्यान।
वे फरमाने हैं कि विवेक के निर्देशों का पालन करने वाले जीवन में असीम आनंद का प्रवाह होता है। विवेकी व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता, क्योंकि उसे अच्छी तरह ज्ञात है कि संसार की समस्त स्थितियाँ नश्वर एवं क्षणिक हैं। विवेक के संबंध में कबीर को स्पष्ट निर्देश है :-
मन सागर मनसा लहरि बूड़े बहे अनेक,
कह “”कबीर” तो बाचहि, जिनके हृदय विवेक।
वे कहते हैं कि आनंद दूसरों को दुख देकर नहीं, बल्कि इच्छापूर्वक स्वंय दुख झेलने से ही प्राप्त होता है :-
आप ठग्या सुख उपजै,
और ठगया दुख होय।
उनके अनुसार “”धर्म में अभी भी इतनी क्षमता है कि मानव जाति को ऐसी बहुमुखी संपूर्णता की ओर ले जा सकते हैं, जिसमें हिंदू धर्म की आध्यात्मिक ज्योति, यहुदी धर्म की आस्था और आज्ञाकारिता, युनानी देवार्चन की सुंदरता, बौद्ध धर्म की काव्य करुणा, इसाई धर्म की दिव्य प्रीति और इस्लाम धर्म की त्याग भावना सम्मिलित हो।”
आज हमारा देश जिस संकट में घिरा है, उसका मूल कारण धर्म से विमुखता हो, जिसकी वजह से लोगों का सदाचार भी समाप्त हो गया है।

मीराबाई



जीवन परिचय
कृष्णभक्ति शाखा की हिंदी की महान कवयित्री मीराबाई का जन्म संवत् १५७३ में जोधपुर में चोकड़ी नामक गाँव में हुआ था। इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं।

विवाह के थोड़े ही दिन के बाद आपके पति का स्वर्गवास हो गया था। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन- प्रति- दिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।

मीराबाई का घर से निकाला जाना

मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग आपको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखा था :-
स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।
मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया:-

जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।
मीरा द्वारा रचित ग्रंथ
मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की–

बरसी का मायरा
गीत गोविंद टीका
राग गोविंद
राग सोरठ के पद

इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावलीनामक ग्रन्थ में किया गया है।

मीराबाई की भक्ति
मीरा की भक्ति में माधुर्य- भाव काफी हद तक पाया जाता था। वह अपने इष्टदेव कृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रुप में करती थी। उनका मानना था कि इस संसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं। कृष्ण के रुप की दीवानी थी–

बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरति, साँवरि, सुरति नैना बने विसाल।।
अधर सुधारस मुरली बाजति, उर बैजंती माल।
क्षुद्र घंटिका कटि- तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल।।
मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं –
गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।
इन्होंने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी मिश्रित भाषा में ही है। इसके अलावा कुछ विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में भी लिखा है। इन्होंने जन्मजात कवियित्री न होने के बावजूद भक्ति की भावना में कवियित्री के रुप में प्रसिद्धि प्रदान की। मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविकता पाई जाती है। इन्होंने अपने पदों में श्रृंगार और शांत रस
का प्रयोग विशेष रुप से किया है।
इनके एक पद —
मन रे पासि हरि के चरन।
सुभग सीतल कमल- कोमल त्रिविध – ज्वाला- हरन।
जो चरन प्रह्मलाद परसे इंद्र- पद्वी- हान।।
जिन चरन ध्रुव अटल कींन्हों राखि अपनी सरन।
जिन चरन ब्राह्मांड मेंथ्यों नखसिखौ श्री भरन।।
जिन चरन प्रभु परस लनिहों तरी गौतम धरनि।
जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।।
दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।

सूरदास का जीवन


सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। “साहित्य लहरी’ सूर की लिखी रचना मानी जाती है। इसमें साहित्य लहरी के रचना-काल के सम्बन्ध में निम्न पद मिलता है –
मुनि पुनि के रस लेख ।
दसन गौरीनन्द को लिखि सुवल संवत् पेख ।।
इसका अर्थ विद्वानों ने संवत् १६०७ वि० माना है, अतएव “साहित्य लहरी’ का रचना काल संवत् १६०७ वि० है। इस ग्रन्थ से यह भी प्रमाण मिलता है कि सूर के गुरु श्री बल्लभाचार्य थे –
सूरदास का जन्म सं० १५३५ वि० के लगभग ठहरता है, क्योंकि बल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख् कृष्ण एकादशी को हुआ था। इसलिए सूरदास की जन्म-तिथि वैशाख शुक्ला पंचमी, संवत् १५३५ वि० समीचीन जान पड़ती है। अनेक प्रमाणों के आधार पर उनका मृत्यु संवत् १६२० से १६४८ वि० के मध्य स्वीकार किया जाता है।
 
रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत् १५४० वि० के सन्निकट और मृत्यु संवत् १६२० वि० के आसपास माना जाता है।
 
श्री गुरु बल्लभ तत्त्व सुनायो लीला भेद बतायो।
सूरदास की आयु “सूरसारावली’ के अनुसार उस समय ६७ वर्ष थी। ‘चौरासी वैष्णव की वार्ता’ के आधार पर उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरान्तर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। “भावप्रकाश’ में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे। “आइने अकबरी’ में (संवत् १६५३ वि०) तथा “मुतखबुत-तवारीख’ के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है।
जन्म स्थान
 
अधिक विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे।
 
खंजन नैन रुप मदमाते ।
अतिशय चारु चपल अनियारे,
पल पिंजरा न समाते ।।
चलि – चलि जात निकट स्रवनन के,
उलट-पुलट ताटंक फँदाते ।
“सूरदास’ अंजन गुन अटके,
नतरु अबहिं उड़ जाते ।।
क्या सूरदास अंधे थे ?
सूरदास श्रीनाथ भ की “संस्कृतवार्ता मणिपाला’, श्री हरिराय कृत “भाव-प्रकाश”, श्री गोकुलनाथ की “निजवार्ता’ आदि ग्रन्थों के आधार पर, जन्म के अन्धे माने गए हैं। लेकिन राधा-कृष्ण के रुप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।
 
श्यामसुन्दरदास ने इस सम्बन्ध में लिखा है – “”सूर वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे, क्योंकि श्रृंगार तथा रंग-रुपादि का जो वर्णन उन्होंने किया है वैसा कोई जन्मान्ध नहीं कर सकता।” डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है – “”सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अन्धा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।
 
 
 
सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं –
१ सूरसागर
२ सूरसारावली
३ साहित्य-लहरी
४ नल-दमयन्ती और
५ ब्याहलो।
उपरोक्त में अन्तिम दो अप्राप्य हैं।
नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के १६ ग्रन्थों का उल्लेख है। इनमें सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी, आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इनमें प्रारम्भ के तीन ग्रंथ ही महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, साहित्य लहरी की प्राप्त प्रति में बहुत प्रक्षिप्तांश जुड़े हुए हैं।
 
सूरसागर
सूरसागर में लगभग एक लाख पद होने की बात कही जाती है। किन्तु वर्तमान संस्करणों में लगभग पाँच हजार पद ही मिलते हैं। विभिन्न स्थानों पर इसकी सौ से भी अधिक प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनका प्रतिलिपि काल संवत् १६५८ वि० से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक है इनमें प्राचीनतम प्रतिलिपि नाथद्वारा (मेवाड़) के “सरस्वती भण्डार’ में सुरक्षित पायी गई हैं।
 
सूरसागर सूरदासजी का प्रधान एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें प्रथ्#ंम नौ अध्याय संक्षिप्त है, पर दशम स्कन्ध का बहुत विस्तार हो गया है। इसमें भक्ति की प्रधानता है। इसके दो प्रसंग “कृष्ण की बाल-लीला’ और “भ्रमर-गीतसार’ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
 
सूरसागर की सराहना करते हुए डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है – “”काव्य गुणें की इस विशाल वनस्थली में एक अपना सहज सौन्दर्य है। वह उस रमणीय उद्यान के समान नहीं जिसका सौन्दर्य पद-पद पर माली के कृतित्व की याद दिलाता है, बल्कि उस अकृत्रिम वन-भूमि की भाँति है जिसका रचयिता रचना में घुलमिल गया है।” दार्शनिक विचारों की दृष्टि से “भागवत’ और “सूरसागर’ में पर्याप्त अन्तर है।
 
सूर सारावली
इसमें ११०७ छन्द हैं। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ एक “वृहद् होली’ गीत के रुप में रचित हैं। इसकी टेक है – “”खेलत यह विधि हरि होरी हो, हरि होरी हो वेद विदित यह बात।” इसका रचना-काल संवत् १६०२ वि० निश्चित किया गया है, क्योंकि इसकी रचना सूर के ६७वें वर्ष में हुई थी।
 
साहित्य लहरी
यह ११८ पदों की एक लघु रचना है। इसके अन्तिम पद में सूरदास का वंशवृक्ष दिया है, जिसके अनुसार सूरदास का नाम सूरजदास है और वे चन्दबरदायी के वंशज सिद्ध होते हैं। अब इसे प्रक्षिप्त अंश माना गया है ओर शेष रचना पूर्ण प्रामाणिक मानी गई है। इसमें रस, अलंकार और नायिका-भेद का प्रतिपादन किया गया है। इस कृति का रचना-काल स्वयं कवि ने दे दिया है जिससे यह संवत् विक्रमी में रचित सिद्ध होती है। रस की दृष्टि से यह ग्रन्थ विशुद्ध श्रृंगार की कोटि में आता है।

सूरदास की रचनाएँ

1  
अंखियां हरि-दरसन की प्यासी।
देख्यौ चाहति कमलनैन कौ¸ निसि-दिन रहति उदासी।।
आए ऊधै फिरि गए आंगन¸ डारि गए गर फांसी।
केसरि तिलक मोतिन की माला¸ वृन्दावन के बासी।।
काहू के मन को कोउ न जानत¸ लोगन के मन हांसी।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ¸ करवत लैहौं कासी।।
—————————————————————————————————————-
2
निसिदिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहत पावस ऋतु हम पर, जबते स्याम सिधारे।।
अंजन थिर न रहत अँखियन में, कर कपोल भये कारे।
कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहुँ, उर बिच बहत पनारे॥
आँसू सलिल भये पग थाके, बहे जात सित तारे।
‘सूरदास’ अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे॥
—————————————————————————————————————-
3
मधुकर! स्याम हमारे चोर।
मन हरि लियो सांवरी सूरत¸ चितै नयन की कोर।।
पकरयो तेहि हिरदय उर-अंतर प्रेम-प्रीत के जोर।
गए छुड़ाय छोरि सब बंधन दे गए हंसनि अंकोर।।
सोबत तें हम उचकी परी हैं दूत मिल्यो मोहिं भोर।
सूर¸ स्याम मुसकाहि मेरो सर्वस सै गए नंद किसोर।।
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4
बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं।
तब ये लता लगति अति सीतल¸ अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं।
बृथा बहति जमुना¸ खग बोलत¸ बृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं।
पवन¸ पानी¸ धनसार¸ संजीवनि दधिसुत किरनभानु भई भुंजैं।
ये ऊधो कहियो माधव सों¸ बिरह करद करि मारत लुंजैं।
सूरदास प्रभु को मग जोवत¸ अंखियां भई बरन ज्यौं गुजैं।
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5
प्रीति करि काहू सुख न लह्यो।
प्रीति पतंग करी दीपक सों आपै प्रान दह्यो।।
अलिसुत प्रीति करी जलसुत सों¸ संपति हाथ गह्यो।
सारंग प्रीति करी जो नाद सों¸ सन्मुख बान सह्यो।।
हम जो प्रीति करी माधव सों¸ चलत न कछू कह्यो।
‘सूरदास’ प्रभु बिन दुख दूनो¸ नैननि नीर बह्यो।।
 
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6 राग गौरी
 
कहियौ, नंद कठोर भये।
हम दोउ बीरैं डारि परघरै, मानो थाती सौंपि गये॥
तनक-तनक तैं पालि बड़े किये, बहुतै सुख दिखराये।
गो चारन कों चालत हमारे पीछे कोसक धाये॥
ये बसुदेव देवकी हमसों कहत आपने जाये।
बहुरि बिधाता जसुमतिजू के हमहिं न गोद खिलाये॥
कौन काज यहि राजनगरि कौ, सब सुख सों सुख पाये।
सूरदास, ब्रज समाधान करु, आजु-काल्हि हम आये॥
भावार्थ :- श्रीकृष्ण अपने परम ज्ञानी सखा उद्धव को मोहान्ध ब्रजवासियों में ज्ञान प्रचार करने के लिए भेज रहे हैं। इस पद में नंद बाबा के प्रति संदेश भेजा है। कहते है:- “बाबा , तुम इतने कठोर हो गये हो कि हम दोनों भाइयों को पराये घर में धरोहर की भांति सौंप कर चले गए। जब हम जरा-जरा से थे, तभी से तुमने हमें पाल-पोसकर बड़ा किया, अनेक सुख दिए। वे बातें भूलने की नहीं। जब हम गाय चराने जाते थे, तब तुम एक कोस तक हमारे पीछे-पीछे दौड़ते चले आते थे। हम तो बाबा, सब तरह से तुम्हारे ही है। पर वसुदेव और देवकी का अनधिकार तो देखो। ये लोग नंद-यशोदा के कृष्ण-बलराम को आज “अपने जाये पूत” कहते हैं। वह दिन कब होगा, जब हमें यशोदा मैया फिर अपनी गोद में खिलायेंगी। इस राजनगरी, मथुरा के सुख को लेकर क्या करें ! हमें तो अपने ब्रज में ही सब प्रकार का सूख था। उद्धव, तुम उन सबको अच्छी तरह से समझा-बुझा देना, और कहना कि दो-चार दिन में हम अवश्य आयेंगे।”
 
शब्दार्थ :- बीरैं =भाइयों को। परघरै =दूसरे के घर में। थाती = धरोहर। तनक-तनक तें =छुटपन से। कोसक =एक कोस तक। समाधान =सझना, शांति
 
 
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7 राग सारंग
 
नीके रहियौ जसुमति मैया।
आवहिंगे दिन चारि पांच में हम हलधर दोउ भैया॥
जा दिन तें हम तुम तें बिछुरै, कह्यौ न कोउ `कन्हैया’।
कबहुं प्रात न कियौ कलेवा, सांझ न पीन्हीं पैया॥
वंशी बैत विषान दैखियौ द्वार अबेर सबेरो।
लै जिनि जाइ चुराइ राधिका कछुक खिलौना मेरो॥
कहियौ जाइ नंद बाबा सों, बहुत निठुर मन कीन्हौं।
सूरदास, पहुंचाइ मधुपुरी बहुरि न सोधौ लीन्हौं॥
 
भावार्थ :- `कह्यौ न कोउ कन्हैया’ यहां मथुरा में तो सब लोग कृष्ण और यदुराज के नाम से पुकारते है, मेरा प्यार का `कन्हैया’ नाम कोई नहीं लेता। `लै जिनि जाइ चुराइ राधिका’ राधिका के प्रति 12 बर्ष के कुमार कृष्ण का निर्मल प्रेम था,यह इस पंक्ति से स्पष्ट हो जाता है।राधा कहीं मेरा खिलौना न चुरा ले जाय, कैसी बालको-चित सरलोक्ति है।
 
शब्दार्थ :- नीके रहियौ = कोई चिम्ता न करना। न पीन्हीं पैया = ताजे दूध की धार पीने को नहीं मिली। बिषान = सींग, (बजाने का)। अबेर सबेरी = समय-असमय, बीच-बीच में जब अवसर मिले। सोधौ =खबर भी
 
 
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8 राग देश
 
जोग ठगौरी ब्रज न बिकहै।
यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥
यह जापे लै आये हौ मधुकर, ताके उर न समैहै।
दाख छांडि कैं कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै॥
मूरी के पातन के कैना को मुकताहल दैहै।
सूरदास, प्रभु गुनहिं छांड़िकै को निरगुन निरबैहै॥
 
भावार्थ :- उद्धव ने कृष्ण-विरहिणी ब्रजांगनाओं को योगभ्यास द्वारा निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए जब उपदेश दिया, तो वे ब्रजवल्लभ उपासिनी गोपियां कहती हैं कि इस ब्रज में तुम्हारे योग का सौदा बिकने का नहीं। जिन्होंने सगुण ब्रह्म कृष्ण का प्रेम-रस-पान कर लिया, उन्हें तुम्हारे नीरस निर्गुण ब्रह्म की बातें भला क्यों पसन्द आने लगीं ! अंगूर छोड़कर कौन मूर्ख निबोरियां खायगा ? मोतियों को देकर कौन मूढ़ बदले में मूली के पत्ते खरीदेगा ? योग का यह ठग व्यवसाय प्रेमभूमि ब्रज में चलने का नहीं।
 
शब्दार्थ :- ठगौरी = ठगी का सौदा। एसोइ फिरि जैहैं = योंही बिना बेचे वापस ले जाना होगा। जापै = जिसके लिए। उर न समैहै = हृदय में न आएगा। निबौरी =नींम का फल। मूरी = मूली। केना =अनाज के रूप में साग-भाजी की कीमत, जिसे देहात में कहीं-कहीं देकर मामूली तरकारियां खरीदते थे। मुकताहल = मोती। निर्गुन =सत्य, रज और तमोगुण से रहित निराकार ब्रह्म
 
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9 राग टोडी
 
ऊधो, होहु इहां तैं न्यारे।
तुमहिं देखि तन अधिक तपत है, अरु नयननि के तारे॥
अपनो जोग सैंति किन राखत, इहां देत कत डारे।
तुम्हरे हित अपने मुख करिहैं, मीठे तें नहिं खारे॥
हम गिरिधर के नाम गुननि बस, और काहि उर धारे।
सूरदास, हम सबै एकमत तुम सब खोटे कारे॥
भावार्थ :- `तुमहि…..तारे,’ तुम जले पर और जलाते हो, एक तो कृष्ण की विरहाग्नि से हम योंही जली जाती है उस पर तुम योग की दाहक बातें सुना रहे हो। आंखें योंही जल रही है। हमारे जिन नेत्रों में प्यारे कृष्ण बस रहे हैं, उनमें तुम निर्गुण निराकार ब्रह्म बसाने को कह रहे हो। `अपनो….डारें’, तुम्हारा योग-शास्त्र तो एक बहुमूल्य वस्तु है, उसे हम जैसी गंवार गोपियों के आगे क्यों व्यर्थ बरबाद कर रहे हो। `तुम्हारे….खारे,’ तुम्हारे लिए हम अपने मीठे को खारा नहीं कर सकतीं, प्यारे मोहन की मीठी याद को छोड़कर तुम्हारे नीरस निर्गुण ज्ञान का आस्वादन भला हम क्यों करने चलीं ?
 
शब्दार्थ :- न्यारे होहु = चले जाओ। सैंति = भली-भांति संचित करके।खोटे = बुरे
 
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10 राग केदारा
फिर फिर कहा सिखावत बात।
प्रात काल उठि देखत ऊधो, घर घर माखन खात॥
जाकी बात कहत हौ हम सों, सो है हम तैं दूरि।
इहं हैं निकट जसोदानन्दन प्रान-सजीवनि भूरि॥
बालक संग लियें दधि चोरत, खात खवावत डोलत।
सूर, सीस नीचैं कत नावत, अब नहिं बोलत॥
 
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11 राग रामकली
 
उधो, मन नाहीं दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥
 
टिप्पणी :- गोपियां कहती है, `मन तो हमारा एक ही है, दस-बीस मन तो हैं नहीं कि एक को किसी के लगा दें और दूसरे को किसी और में। अब वह भी नहीं है, कृष्ण के साथ अब वह भी चला गया। तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की उपासना अब किस मन से करें ?” `स्वासा….बरीस,’ गोपियां कहती हैं,”यों तो हम बिना सिर की-सी हो गई हैं, हम कृष्ण वियोगिनी हैं, तो भी श्याम-मिलन की आशा में इस सिर-विहीन शरीर में हम अपने प्राणों को करोड़ों वर्ष रख सकती हैं।” `सकल जोग के ईस’ क्या कहना, तुम तो योगियों में भी शिरोमणि हो। यह व्यंग्य है।
 
शब्दार्थ :- हुतो =था। अवराधै = आराधना करे, उपासना करे। ईस =निर्गुण ईश्वर। सिथिल भईं = निष्प्राण सी हो गई हैं। स्वासा = श्वास, प्राण। बरीश = वर्ष का अपभ्रंश। पुरवौ मन = मन की इच्छा पूरी करो
 
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12 राग टोडी
 
अंखियां हरि-दरसन की भूखी।
कैसे रहैं रूप-रस रांची ये बतियां सुनि रूखी॥
अवधि गनत इकटक मग जोवत तब ये तौ नहिं झूखी।
अब इन जोग संदेसनि ऊधो, अति अकुलानी दूखी॥
बारक वह मुख फेरि दिखावहुदुहि पय पिवत पतूखी।
सूर, जोग जनि नाव चलावहु ये सरिता हैं सूखी॥
भावार्थ :- `अंखियां… रूखी,’ जिन आंखों में हरि-दर्शन की भूल लगी हुई है, जो रूप- रस मे रंगी जा चुकी हैं, उनकी तृप्ति योग की नीरस बातों से कैसे हो सकती है ? `अवधि…..दूखी,’ इतनी अधिक खीझ इन आंखों को पहले नहीं हुई थी, क्योंकि श्रीकृष्ण के आने की प्रतीक्षा में अबतक पथ जोहा करती थीं। पर उद्धव, तुम्हारे इन योग के संदेशों से इनका दुःख बहुत बढ़ गया है। `जोग जनि…सूखी,’ अपने योग की नाव तुम कहां चलाने आए हो? सूखी रेत की नदियों में भी कहीं नाव चला करती है? हम विरहिणी ब्रजांगनाओं को क्यों योग के संदेश देकर पीड़ित करते हो ? हम तुम्हारे योग की अधिकारिणी नहीं हैं।
 
शब्दार्थ :- रांची =रंगी हुईं अनुरूप। अवधि = नियत समय। झूखी = दुःख से पछताई खीजी। दुःखी =दुःखित हुई। बारक =एक बार। पतूखी =पत्तेश का छोटा-सा दाना
 
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13 राग मलार
 
ऊधो, हम लायक सिख दीजै।
यह उपदेस अगिनि तै तातो, कहो कौन बिधि कीजै॥
तुमहीं कहौ, इहां इतननि में सीखनहारी को है।
जोगी जती रहित माया तैं तिनहीं यह मत सोहै॥
कहा सुनत बिपरीत लोक में यह सब कोई कैहै।
देखौ धौं अपने मन सब कोई तुमहीं दूषन दैहै॥
चंदन अगरु सुगंध जे लेपत, का विभूति तन छाजै।
सूर, कहौ सोभा क्यों पावै आंखि आंधरी आंजै॥
 
भावार्थ :- `हम लायक,’ हमारे योग्य, हमारे काम की। अधिकारी देखकर उपदेश दो। `कहौ …कीजै,’ तुम्हीं बताओ, इसे किस तरह ग्रहण करे ? `विपरीत’ उलटा, स्त्रियों को भी कठिन योगाभ्यास की शिक्षा दी जा रही है, यह विपरीत बात सुनकर संसार क्या कहेगा ? `आंखि आंधरी आंजै’ अंधी स्त्री यदि आंखों में काजल लगाए तो क्या वह उसे शोभा देगा ? इसी प्रकार चंदन और कपूर का लेप करने वाली कोई स्त्री शरीर पर भस्म रमा ले तो क्या वह शोभा पायेगी ?
 
शब्दार्थ :- सिख = शिक्षा, उपदेश। तातो =गरम। जती =यति, संन्यासी। यह मत सोहै = यह निर्गुणवाद शोभा देता है। कैहै =कहेगा। चंदन अगरु = मलयागिर चंदन विभूति =भस्म, भभूत। छाजै =सोहती है
 
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14 राग सारंग
 
ऊधो, मन माने की बात।
दाख छुहारो छांड़ि अमृतफल, बिषकीरा बिष खात॥
जो चकोर कों देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात।
मधुप करत घर कोरि काठ में, बंधत कमल के पात॥
ज्यों पतंग हित जानि आपुनो दीपक सो लपटात।
सूरदास, जाकौ जासों हित, सोई ताहि सुहात॥
 
टिप्पणी :- `अंगार अघात,’ तजि अंगार न अघात’ भी पाठ है उसका भी यही अर्थ होता है, अर्थात अंगार को छोड़कर दूसरी चीजों से उसे तृप्ति नहीं होती। `तजि अंगार कि अघात’ भी एक पाठान्तर है। उसका भी यही अर्थ है।
 
शब्दार्थ :- `अंगार अघात,’ =अंगारों से तृप्त होता है , प्रवाद है कि चकोर पक्षी अंगार चबा जाता है। कोरि =छेदकर। पात =पत्ता
 
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15 राग काफी
 
निरगुन कौन देश कौ बासी।
मधुकर, कहि समुझाइ, सौंह दै बूझति सांच न हांसी॥
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी।
कैसो बरन, भेष है कैसो, केहि रस में अभिलाषी॥
पावैगो पुनि कियो आपुनो जो रे कहैगो गांसी।
सुनत मौन ह्वै रह्यौ ठगो-सौ सूर सबै मति नासी॥
 
 
टिप्पणी :- गोपियां ऐसे ब्रह्म की उपासिकाएं हैं, जो उनके लोक में उन्हीं के समान रहता हो, जिनके पिता भी हो, माता भी हो और स्त्री तथा दासी भी हो। उसका सुन्दर वर्ण भी हो, वेश भी मनमोहक हो और स्वभाव भी सरस हो। इसी लिए वे उद्धव से पूछती हैं, ” अच्छी बात है, हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म से प्रीति जोड़ लेंगी, पर इससे पहले हम तुम्हारे उस निर्गुण का कुछ परिचय चाहती हैं। वह किस देश का रने वाला है, उसके पिता का क्या नाम है, उसकी माता कौन है, कोई उसकी स्त्री भी है, रंग गोरा है या सांवला, वह किस देश में रहता है, उसे क्या-क्या वस्तुएं पसंद हैं, यह सब बतला दो। फिर हम अपने श्यामसुन्दर से उस निर्गुण की तुलना करके बता सकेंगी कि वह प्रीति करने योग्य है या नहीं।” `पावैगो….गांसी,’ जो हमारी बातों का सीधा-सच्चा उत्तर न देकर चुभने वाली व्यंग्य की बाते कहेगा, उसे अपने किए का फल मिल जायगा।
 
शब्दार्थ :- निरगुन = त्रिगुण से रहित ब्रह्म। सौंह =शपथ, कसम। बूझति =पूछती हैं। जनक =पिता। वरन =वर्ण, रंग। गांसी = व्यंग, चुभने वाली बात
 
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16 राग नट
 
कहियौ जसुमति की आसीस।
जहां रहौ तहं नंदलाडिले, जीवौ कोटि बरीस॥
मुरली दई, दौहिनी घृत भरि, ऊधो धरि लई सीस।
इह घृत तौ उनहीं सुरभिन कौ जो प्रिय गोप-अधीस॥
ऊधो, चलत सखा जुरि आये ग्वाल बाल दस बीस।
अबकैं ह्यां ब्रज फेरि बसावौ सूरदास के ईस॥
 
टिप्पणी :- `जहां रहौं…बरीस,’ “प्यारे नंदनंदन, तुम जहां भी रहो, सदा सुखी रहो और करोड़ों वर्ष चिरंजीवी रहो। नहीं आना है, तो न आओ, मेरा वश ही क्या ! मेरी शुभकामना सदा तुम्हारे साथ बनी रहेगी, तुम चाहे जहां भी रहो।” `मुरली…सीस,’ यशोदा के पास और देने को है ही क्या, अपने लाल की प्यारी वस्तुएं ही भेज रही हैं- बांसुरी और कृष्ण की प्यारी गौओं का घी। उद्धव ने भी बडे प्रेम से मैया की भेंट सिरमाथे पर ले ली।
शब्दार्थ कोटि बरीस =करोड़ों वर्ष। दोहिनी =मिट्टी का बर्तन, जिसमें दूध दुहा जाता है, छोटी मटकिया। सुरभिन =गाय। जो प्रिय गोप अधीस = जो गोएं ग्वाल-बालों के स्वामी कृष्ण को प्रिय थीं। जुरि आए = इकट्ठे हो गए
 
 
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17 राग गोरी
 
कहां लौं कहिए ब्रज की बात।
सुनहु स्याम, तुम बिनु उन लोगनि जैसें दिवस बिहात॥
गोपी गाइ ग्वाल गोसुत वै मलिन बदन कृसगात।
परमदीन जनु सिसिर हिमी हत अंबुज गन बिनु पात॥
जो कहुं आवत देखि दूरि तें पूंछत सब कुसलात।
चलन न देत प्रेम आतुर उर, कर चरननि लपटात॥
पिक चातक बन बसन न पावहिं, बायस बलिहिं न खात।
सूर, स्याम संदेसनि के डर पथिक न उहिं मग जात॥
 
भावार्थ :- `परमदीन…पात,’ सारे ब्रजबासी ऐसे श्रीहीन और दीन दिखाई देते है, जैसे शिशिर के पाले से कमल कुम्हला जाता है और पत्ते उसके झुलस जाते हैं। `पिक ….पावहिं,’ कोमल और पपीहे विरहाग्नि को उत्तेजित करते हैं अतः बेचारे इतने अधिक कोसे जाते हैं कि उन्होंने वहां बसेरा लेना भी छोड़ दिया है। `बायस….खात,’ कहते हैं कि कौआ घर पर बैठा बोल रहा हो और उसे कुछ खाने को रख दिया जाय, तो उस दिन अपना कोई प्रिय परिजन या मित्र परदेश से आ जाता है। यह शकुन माना जाता है। पर अब कोए भी वहां जाना पसंद नहीं करते। वे बलि की तरफ देखते भी नहीं। यह शकुन भी असत्य हो गया।
 
शब्दार्थ :- विहात =बीतते हैं। मलिन बदन = उदास। सिसिर हिमी हत = शिशिर ऋतु के पाले से मारे हुए। बिनु पात = बिना पत्ते के। कुसलात = कुशल-क्षेम। बायस =कौआ। बलि भोजन का भाग
 
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18 राग मारू
 
ऊधो, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
बृंदावन गोकुल तन आवत सघन तृनन की छाहीं॥
प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत।
माखन रोटी दह्यो सजायौ अति हित साथ खवावत॥
गोपी ग्वाल बाल संग खेलत सब दिन हंसत सिरात।
सूरदास, धनि धनि ब्रजबासी जिनसों हंसत ब्रजनाथ॥
शब्दार्थ :- गोकुल तन = गोकुल की तरफ। तृनन की = वृक्ष-लता आदि की। हित =स्नेह। सिरात = बीतता था।
भावार्थ :- निर्मोही मोहन को अपने ब्रज की सुध आ गई। व्याकुल हो उठे, बाल्यकाल का एक-एक दृष्य आंखों में नाचने लगा। वह प्यारा गोकुल, वह सघन लताओं की शीतल छाया, वह मैया का स्नेह, वह बाबा का प्यार, मीठी-मीठी माखन रोटी और वह सुंदर सुगंधित दही, वह माखन-चोरी और ग्वाल बालों के साथ वह ऊधम मचाना ! कहां गये वे दिन? कहां गई वे घड़ियां

भ्रमरगीतसार परिचय


हिन्दी काव्यधारा में सगुण भक्ति परंपरा में कृष्णभक्ति शाखा में सूरदासजी सूर्य के समान दैदिप्तमान हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूरदासजी की भक्ति और श्रीकृष्ण-कीर्तन की तन्मयता के बारे में उचित ही लिखा है – ‘आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएं श्रीकृष्ण की प्रेमलीला का कीर्तन करने उठीं जिनमें सबसे उंची, सुरीली और मधुर झनकार अंधे कवि सूरदासजी की वीणा की थी।’
भागवत की प्रेरणा से सूरदासजी ने सूरसागर ग्रंथ की रचना की है। इसमें भी भ्रमरगीत-सार प्रसंग द्वारा सूरदासजी ने अपनी अनन्य श्रीकृष्ण प्रीति को गोपियों की उपालंभ स्थिति द्वारा अभिव्यक्त किया है –
मुख्य रूप से सूरदासजी के पदों को हम तीन प्रकार से बांट सकते हैं –
1. विनय के पद (भगवद् विषयक रति)
2. बाल लीला के पद (वात्सल्य रस वाले)
3. गोपियों के प्रेम-संबंधी पद (दाम्पत्य रति वाले)
1. विनय के पद :
श्रीकृष्ण भक्ति में डूबे सूर ने सूरसागर मे तुलसीदास की भांति विनय के पद भी लिखे हैं। गीताप्रेस-गोरखपुर द्वारा संपादित संग्रह ‘सूर-विनय-पत्रिका’ में 309 ऐसे विनय के पद संग्रहीत हैं जिनमें सूरदासजी के वैराग्य, संसार की अनित्यता, विनय प्रबोध एवं चेतावनी के सुंदर पदों का संग्रह है। विनय के पदों का सिरमौर पद यह है जिसमें सूरदासजी की कृष्ण-चरित्र में कितनी श्रद्धा-भक्ति है, उसका परिचय मिलता है –
 
चरन-कमल बंदो हरि-राई।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे, अंधे को सब कुछ दरसाई।
बहिरो सुनै, मूक पुनि बोले, रंक चलै सिर छत्र धराई।
सूरदासजी स्वामी करूणामय बार-बार बंदौं तिहि पाई।
(सूर, विनय-पत्रिका पद-1)
 
सूरदासजी श्रीकृष्ण की भक्त वत्सलता के बारे में बताते हैं – आप जगत के पिता होने पर भी अपने भक्तों की धृष्टता सह लेते हैं –
 
वासुदेव की बड़ी बड़ाई।
जगत-पिता, जगदीश, जगत-गुरू
निज भक्तन की सहत ढिठाई।
बिनु दीन्हें ही देत सूर-प्रभु
ऐसे हैं जदुनाथ गुसाई॥
(सूर, विनय-पत्रिका, पद 4)
 
सूरदासजी अपने आराध्य की छवि को बिना पलक गिरते देखते रहना चाहते हैं। मन को नंदनंदन का ध्यान करने को कहते हैं कि हे मन! विषय-रस का पान नहीं करना है, जैसे –
 
करि मन, नंदनंदन-ध्यान।
सेव चरन सरोज सीतल, तजि विषय-रस पान॥
सूर श्री गोपाल की छवि, दृष्टि भरि-भरि लेहु।
प्रानपति की निरखि शोभा, पलक परन न देहुं॥
(सूर, विनय-पत्रिका, पद 307)
 
बाल-लीला के पद :
कृष्ण जन्म की आनंद बधाई से ही बाल-लीला का प्रारंभ होता है। भागवत कथा के अनुसार बकी (पूतना) उद्धार से यमलार्जुन उद्धार तक में कृष्ण का गोकुल जीवन और वत्सासुर तथा बकासुर उद्धार से प्रलंबासुर उद्धार एवं गोपों का दावानल से रक्षण तक की कथा वृंदावन बिहारी की बाल-लीला में ले सकते हैं।
सूरदासजी ने श्रीकृष्ण की बाल-लीला से संबंधित अनेक पद लिखे हैं। बालकों की अंत:प्रकृति में भी प्रवेश करके बाल्य-भावों की सुंदर-सुंदर स्वाभाविक व्यंजना की है। बाल-चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का जितना भंडार सूरसागर में भरा है उतना और कहीं नहीं। जैसे कृष्ण बाल सहज भाव से जशोदा मैया से पूछते हैं –
मैया कबहुं बढ़ेगी चोटी?
किती बार मोहि दूध पियत भई यह अजहूं है छोटी।
(भ्रमरगीत-सार, पृ.16)
 
श्रीकृष्ण की माखन मंडित मूर्ति और रेणु मंडित तन तथा घुटरून चलने की स्थिति का वर्णन सूर सुंदर ढंग से करते हैं –
 
शोभित कर नवनीत लिए।
घुटरुअन चलत, रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किये।
(भ्रमरगीत-सार, पृ.16)
 
3. गोपियों के प्रेम संबंधी पद :
श्रीमदभागवत में दशम स्कंध के अंतर्गत प्रख्यात पांच गीतों की रचना वेद व्यास की अमर उपलब्धियां हैं – 1. वेणुगीत 2.गोपीगीत 3. युगलगीत 4. भ्रमरगीत और 5. महिषीगीत। 11 वें स्कंध में छठा गीत भिक्षुगीत भी मिलता है।
भक्ति की दृष्टि से गोपीगीत और उद्धवगोपी के संवाद स्वरूप भ्रमरगीत का अनन्य मूल्य है। सूरदासजी ने भी भागवत की प्रेरणा से भ्रमरगीत प्रसंग को सूरसागर में लिखकर अपनी कृष्ण भक्ति को चरितार्थ किया है। गोपियों के प्रेम संबंधी पद भ्रमरगीत प्रसंग में अधिक हैं। वृंदावन के सुखमय जीवन में गोपियों के प्रेम का उदय होता है। श्रीकृष्ण के सौंदर्य और मनोहर चेष्टाओं को देखकर गोपियां मुग्ध होती हैं और कृष्ण की कौमार्यावस्था की स्वाभाविक चपलतावश उनकी छेड़छाड़ प्रारंभ करती हैं। सूर ने ऐसे प्रेम-व्यापार का स्वाभाविक प्रारंभ भी दिखाया है। सूर के कृष्ण और गोपियां मुक्त और स्वछंद तथा उनका जीवन सहज और स्वाभाविक है। कृष्ण बाल्य काल से ही गोपियों के साथ है। सुंदरता, चपलता में वे अद्वितीय थे। अत: गोपियों के प्रेम का क्रमश: विकास दो प्राकृतिक शक्तियों के प्रभाव से होने से बहुत स्वाभाविक प्रतीत होता है। श्रीकृष्ण-राधा का प्रथम मिलन सूरदासजी बाल-सहज निर्दोषता से प्रस्तुत करते हैं –
 
बूझत श्याम, कौन तू गौरी।
कहां रहति, काकी तू बेटी? देखी नहिं कहुं ब्रज खोरी।
काहे को हम ब्रज तनु आवति, खेलति रहति आपनी पौरी।
सुनत रहति नंद करि झोटा, करत रहत माखन दधि चोरी।
तुमरो कहा चारी लेंहे हम, खेलन चलो संग मिलि जोरी।
सूरदासजी प्रभु रसिक-सिरोमनि बातन भुरई राधिका भोरी
(भ्रमरगीत-सार, पृ.18)
 
श्रीकृष्ण के मथुरा जाने से समग्र ब्रज-प्रांत का जीवन दु:खमय हो गया, सबसे अधिक दयनीय दशा गोपियों की होती है। सूर ने भ्रमरगीत प्रसंग द्वारा गोपियों की विप्रलंभ-श्रृंगार की ऐसी दशा का विस्तार से वर्णन किया है। उद्धव-उपदेश से गोपियों की हालत और दु:खमय बनती है। वे उपालंभ द्वारा कृष्ण-उद्धव को खरी-खोटी सुनाकर अपनी कृष्ण-भक्ति सिद्ध करती हैं –
 
हम तो नंदघोस की बासी।
नाम गोपाल, जाति कुल गोपहि,
गोप-गोपाल दया की।
गिरवरधारी, गोधनचारी, वृंदावन -अभिलाषी।
राजानंद जशोदा रानी, जलधि नदी जमुना-सी।
प्रान हमारे परम मनोहर कमलनयन सुखदासी।
सूरदासजी प्रभु कहों कहां लौ अष्ट महासिधि रासी।
 
यहां गोकुल का जीवन और श्रीकृष्ण की भक्ति में ही गोपियां अपने जीवन की धन्यता बताती हैं, नहीं कि अष्ट महासिद्धि की। उद्धव की निरर्थक ज्ञान वार्ता की गोपियां हंसी उड़ाकर मूल सेठ (श्रीकृष्ण) के मिलन की मुंहमांगी कीमत देना चाहती हैं। जैसे –
 
आयो घोष बड़ो व्यापारी
लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आन उतारी।
 
गोपियां स्त्री-सहजर् ईष्या से ‘कुब्जानाथ’ कहकर कृष्ण को उपालंभ देती हैं –
काहे को गोपीनाथ कहावत?
जो पै मधुकर कहत हमारे गोकुल काहे न आवत?
कहन सुनन को हम हैं उधो सूर अनत बिरमावत।
(भ्रमरगीत-सार, पद 45)
 
यहां ‘मधुकर’ शब्द में तीनों शक्तियां मौजूद हैं। जिसका अभिधा में भौरा, लक्षणा में उद्धव और व्यंजना में कृष्ण अर्थ सूर ने दिया है। गोपियां हरिकथा की प्यासी हैं। उद्धव से विनती करती हैं –
 
हम को हरि की कथा सुनाव।
अपनी ज्ञानकथा हो उधो! मथुरा ही ले जाव।
 
उद्धव द्वारा श्याम-चिटठी से जो गोपियाेंं की दशा होती है उसका सूर ने अद्भुत कौशल से वर्णन किया है –
निरखत अंक श्याम सुंदर के,
बार-बार लावति छाती।
प्राननाथ तुम कब लौं मिलोगे सूरदासजी प्रभु बाल संघाती।
‘अंक श्याम’ में श्लेष प्रयोग हुआ है। एक अर्थ अक्षर काला और दूसरा गोप-कृष्ण अर्थ व्यंजित हुआ है। इस प्रकार सूर के पदों में कृष्ण भक्ति का अनन्य और आकर्षण रूप श्रृंगार और वात्सल्य रस द्वारा प्रस्तुत हुआ है। वे श्रीकृष्ण की कृपा को ही जीवनाश्रम मानते थे।
 
भ्रमर गीत में सूरदासजी ने उन पदों को समाहित किया है जिनमें मथुरा से कृष्ण द्वारा उद्धव को ब्रज संदेस लेकर भेजा जाता है और उद्धव जो हैं योग और ब्रह्म के ज्ञाता हैं उनका प्रेम से दूर दूर का कोई सरोकार नहीं है। जब गोपियाँ व्याकुल होकर उद्धव से कृष्ण के बारे में बात करती हैं और उनके बारे में जानने को उत्सुक होती हैं तो वे निराकार ब्रह्म और योग की बातें करने लगते हैं तो खीजी हुई गोपियाँ उन्हें काले भँवरे की उपमा देती हैं। बस इन्हीं करीब 100 से अधिक पदों का संकलन भ्रमरगीत या उद्धव-संदेश कहलाया जाता है।
 
कृष्ण जब गुरु संदीपन के यहाँ ज्ञानार्जन के लिये गए थे तब उन्हें ब्रज की याद सताती थी। वहाँ उनका एक ही मित्र था उद्धव, वह सदैव रीति-नीति की, निगुर्ण ब्रह्म और योग की बातें करता था। तो उन्हें चिन्ता हुई कि यह संसार मात्र विरक्तियुक्त निगुर्ण ब्रह्म से तो चलेगा नहीं, इसके लिये विरह और प्रेम की भी आवश्यकता है। और अपने इस मित्र से वे उकताने लगे थे कि यह सदैव कहता है, कौन माता, कौन पिता, कौन सखा, कौन बंधु। वे सोचते इसका सत्य कितना अपूर्ण और भ्रामक है। भला कहाँ यशोदा और नंद जैसे माता-पिता होने का सुख और राधा के साथ बीते पलों का आनंद। और तीनों लोकों में ब्रज के गोप-गोपियों के साथ मिलकर खेलने जैसा सुख कहाँ? ऐसा नहीं है कि द्वारा उद्धव को ब्रज संदेस लेकर भेजते समय कृष्ण संशय में न थे, वे स्व्यं सोच रहे थे यह कैसे संदेस ले जाएगा जो कि प्रेम का मर्म ही नहीं समझता, कोरा ब्रर्ह्मज्ञान झाडता है।
 
तबहि उपंगसुत आई गए।
सखा सखा कछु अंतर नाहिं, भरि भरि अंक लए।।
अति सुन्दर तन स्याम सरीखो, देखत हरि पछताने ।
ऐसे कैं वैसी बुधी होती, ब्रज पठऊं मन आने।।
या आगैं रस कथा प्रकासौं, जोग कथा प्रकटाऊं।
सूर ज्ञान याकौ दृढ क़रिके, जुवतिन्ह पास पठाऊं।।
 
तभी उपंग के पुत्र उद्धव आ जाते हैं। कृष्ण उन्हें गले लगाते हैं।
 
दोनों सखाओं में खास अन्तर नहीं। उद्धव का रंग-रूप कृष्ण के समान ही है। पर कृष्ण उन्हें देख कर पछताते हैं कि इस मेरे समान रूपवान युवक के पास काश, प्रेमपूर्ण बुध्दि भी होती। तब कृष्ण मन बनाते हैं कि क्यों न उद्धव को ब्रज संदेस लेकर भेजा जाए, संदेस भी पहुँच जाएगा और इसे प्रेम का पाठ गोपियाँ भली भाँति पढा देंगी। तब यह जान सकेगा प्रेम का मर्म।
 
उधर उद्धव सोचते हैं कि वे विरह में जल रही गोपियों को निगुर्ण ब्रह्म के प्रेम की शिक्षा दे कर उन्हें इस सांसारिक प्रेम से की पीडा मुक्ति से मुक्ति दिला देंगे। कृष्ण मन ही मन मुस्का कर उन्हें अपना पत्र थमाते हैं कि देखते हैं कि कौन किसे क्या सिखा कर आता है।
 
उद्धव पत्र गोपियों को दे देते हैं और कहते हैं कि कृष्ण ने कहा है कि –
 
सुनौ गोपी हरि कौ संदेस।
करि समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनको उपदेस।।
वै अविगत अविनासी पूरन, सब घट रहे समाई।
तत्वज्ञान बिनु मुक्ति नहीं, वेद पुराननि गाई।।
सगुन रूप तजि निरगुन ध्यावहु, इक चित्त एक मन लाई।
वह उपाई करि बिरह तरौ तुम, मिले ब्रह्म तब आई।।
दुसह संदेस सुन माधौ को, गोपि जन बिलखानी।
सूर बिरह की कौन चलावै, बूडतिं मनु बिन पानी।।
 
हे गोपियों, हरि का संदेस सुनो। उनका यही उपदेस है कि समाधि लगा कर अपने मन में निगुर्ण निराकार ब्रह्म का ध्यान करो। यह अज्ञेय, अविनाशी पूर्ण सबके मन में बसा है। वेद पुराण भी यही कहते हैं कि तत्वज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं। इसी उपाय से तुम विरह की पीडा से छुटकारा पा सकोगी। अपने कृष्ण के सगुण रूप को छोड उनके ब्रह्म निराकार रूप की अराधना करो। उद्धव के मुख से अपने प्रिय का उपदेश सुन प्रेममार्गी गोपियाँ व्यथित हो जाती हैं। अब विरह की क्या बात वे तो बिन पानी पीडा के अथाह सागर डूब गईं।
 
तभी एक भ्रमर वहाँ आता है तो बस जली-भुनी गोपियों को मौका मिल जाता है और वह उद्धव पर काला भ्रमर कह कर खूब कटाक्ष करती हैं।
 
रहु रे मधुकर मधु मतवारे।
कौन काज या निरगुन सौं, चिरजीवहू कान्ह हमारे।।
लोटत पीत पराग कीच में, बीच न अंग सम्हारै।
भारम्बार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे।।
तुम जानत हो वैसी ग्वारिनी, जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबहिनी बिरनावत, जैसे आवत कारे।।
सुंदर बदन, कमल-दल लोचन, जसुमति नंद दुलारे।
तन-मन सूर अरपि रहीं स्यामहि, का पै लेहिं उधारै।।
 
गोपियाँ भ्रमर के बहाने उद्धव को सुना-सुना कर कहती र्हैं हे भंवरे। तुम अपने मधु पीने में व्यस्त रहो, हमें भी मस्त रहने दो। तुम्हारे इस निरगुण से हमारा क्या लेना-देना। हमारे तो सगुण साकार कान्हा चिरंजीवी रहें। तुम स्वयं तो पराग में लोट लोट कर ऐसे बेसुध हो जाते हो कि अपने शरीर की सुध नहीं रहती और इतना मधुरस पी लेते हो कि सनक कर रस के विरुध्द ही बातें करने लगते हो। हम तुम्हारे जैसी नहीं हैं कि तुम्हारी तरह फूल-फूल पर बहकें, हमारा तो एक ही है कान्हा जो सुन्दर मुख वाला, नीलकमल से नयन वाला यशोदा का दुलारा है। हमने तो उन्हीं पर तन-मन वार दिया है अब किसी निरगुण पर वारने के लिये तन-मन किससे उधार लें?
 
उधौ जोग सिखावनि आए।
सृंगी भस्म अथारी मुद्रा, दै ब्रजनाथ पठाए।।
जो पै जोग लिख्यौ गोपिन कौ, कत रस रास खिलाए।
तब ही क्यों न ज्ञान उपदेस्यौ, अधर सुधारस लाए।।
मुरली शब्द सुनत बन गवनिं, सुत पतिगृह बिसराए।
सूरदासजी संग छांडि स्याम कौ, हमहिं भये पछताए।।
 
गोपियाँ कहती र्हैं हे सखि! आओ, देखो ये श्याम सुन्दर के सखा उद्धव हमें योग सिखाने आए हैं। स्वयं ब्रजनाथ ने इन्हें श्रृंगी, भस्म, अथारी और मुद्रा देकर भेजा है। हमें तो खेद है कि जब श्याम को इन्हें भेजना ही था तो, हमें अदभुत रास का रसमय आनंद क्यों दिया था? जब वे हमें अपने अथरों का रस पिला रहे थे तब ये ज्ञान और योग की बातें कहाँ गईं थीं? तब हम श्री कृष्ण की मुरली के स्वरों में सुधबुध खो कर अपने बच्चों और पति के घर को भुला दिया करती थीं। श्याम का साथ छोडना हमारे भाग्य में था ही तो हमने उनसे प्रेम ही क्यों किया अब हम पछताती हैं।
 
मधुबनी लोगि को पतियाई।
मुख औरै अंतरगति औरै, पतियाँ लिख पठवत जु बनाई।।
ज्यौं कोयल सुत काग जियावै, भाव भगति भोजन जु खवाई।
कुहुकि कुहुकि आएं बसंत रितु, अंत मिलै अपने कुल जाई।।
ज्यौं मधुकर अम्बुजरस चाख्यौ, बहुरि न बूझे बातें आई।
सूर जहँ लगि स्याम गात हैं, तिनसौं कीजै कहा सगाई।।
 
कोई गोपी उद्धव पर व्यंग्य करती है।मथुरा के लोगों का कौन विश्वास करे? उनके तो मुख में कुछ और मन में कुछ और है। तभी तो एक ओर हमें स्नेहिल पत्र लिख कर बना रहे हैं दूसरी ओर उद्धव को जोग के संदेस लेके भेज रहे हैं। जिस तरह से कोयल के बच्चे को कौआ प्रेमभाव से भोजन करा के पालता है और बसंत रितु आने पर जब कोयलें कूकती हैं तब वह भी अपनी बिरादरी में जा मिलता है और कूकने लगता है। जिस प्रकार भंवरा कमल के पराग को चखने के बाद उसे पूछता तक नहीं। ये सारे काले शरीर वाले एक से हैं, इनसे सम्बंध बनाने से क्या लाभ?
 
निरगुन कौन देस को वासी।
मधुकर कहि समुझाई सौंह दै, बूझतिं सांचि न हांसी।।
को है जनक, कौन है जननि, कौन नारि कौन दासी।
कैसे बरन भेष है कैसो, किहिं रस मैं अभिलाषी।।
पावैगो पुनि कियौ आपनो, जो रे करेगौ गांसी।
सुनत मौन ह्वै रह्यौ बावरो, सूर सबै मति नासी।।
 
अब गोपियों ने तर्क किर्या हाँ तो उद्धव यह बताओ कि तुम्हारा यह निर्गुण किस देश का रहने वाला है? सच सौगंध देकर पूछते हैं, हंसी की बात नहीं है। इसके माता-पिता, नारी-दासी आखिर कौन हैं? कैसा है इस निरगुण का रंग-रूप और भेष? किस रस में उसकी रुचि है? यदि तुमने हमसे छल किया तो तुम पाप और दंड के भागी होगे। सूरदासजी कहते हैं कि गोपियों के इस तर्क के आगे उद्धव की बुध्दि कुंद हो गई। और वे चुप हो गए। लेकिन गोपियों के व्यंग्य खत्म न हुए वे कहती रहीं –
 
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहे।
मूरि के पातिन के बदलै, कौ मुक्ताहल देहै।।
यह ब्यौपार तुम्हारो उधौ, ऐसे ही धरयौ रेहै।
जिन पें तैं लै आए उधौ, तिनहीं के पेट समैंहै।।
दाख छांडि के कटुक निम्बौरी, कौ अपने मुख देहै।
गुन करि मोहि सूर साँवरे, कौ निरगुन निरवेहै।।
 
हे उद्धव ये तुम्हारी जोग की ठगविद्या, यहाँ ब्रज में नहीं बिकने की। भला मूली के पत्तों के बदले माणक मोती तुम्हें कौन देगा? यह तुम्हारा व्यापार ऐसे ही धरा रह जाएगा। जहाँ से ये जोग की विद्या लाए हो उन्हें ही वापस सिखा दो, यह उन्हीं के लिये उचित है। यहाँ तो कोई ऐसा बेवकूफ नहीं कि किशमिश छोड क़र कडवी निंबौली खाए! हमने तो कृष्ण पर मोहित होकर प्रेम किया है अब तुम्हारे इस निरगुण का निर्वाह हमारे बस का नहीं।
 
काहे को रोकत मारग सूधो।
सुनहु मधुप निरगुन कंटक तै, राजपंथ क्यौं रूंथौ।।
कै तुम सिखि पठए हो कुब्जा, कह्यो स्यामघनहूं धौं।
वेद-पुरान सुमृति सब ढूंढों, जुवतिनी जोग कहूँ धौं।।
ताको कहां परैंखों की जे, जाने छाछ न दूधौ।
सूर मूर अक्रूर गयौ लै, ब्याज निवैरत उधौ।।
 
गोपियां चिढ क़र पूछती हैं कि कहीं तुम्हें कुबजा ने तो नहीं भेजा? जो तुम स्नेह का सीधा साधा रास्ता रोक रहे हो। और राजमार्ग को निगुर्ण के कांटे से अवरुध्द कर रहे हो! वेद-पुरान, स्मृति आदि ग्रंथ सब छान मारो क्या कहीं भी युवतियों के जोग लेने की बात कही गई है? तुम जरूर कुब्जा के भेजे हुए हो। अब उसे क्या कहें जिसे दूध और छाछ में ही अंतर न पता हो। सूरदासजी कहते हैं कि मूल तो अक्रूर जी ले गए अब क्या गोपियों से ब्याज लेने उद्धव आए हैं?
 
उधौ मन ना भए दस बीस।
एक हुतौ सौ गयौ स्याम संग, को आराधे ईस।।
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस।
आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस।
सूर हमारै नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस।।
 
अब थक हार कर गोपियाँ व्यंग्य करना बंद कर उद्धव को अपने तन मन की दशा कहती हैं। उद्धव हतप्रभ हैं, भक्ति के इस अद्भुत स्वरूप से। हे उद्धव हमारे मन दस बीस तो हैं नहीं, एक था वह भी श्याम के साथ चला गया। अब किस मन से ईश्वर की अराधना करें? उनके बिना हमारी इंद्रियां शिथिल हैं, शरीर मानो बिना सिर का हो गया है, बस उनके दरशन की क्षीण सी आशा हमें करोडों वर्ष जीवित रखेगी। तुम तो कान्ह के सखा हो, योग के पूर्ण ज्ञाता हो। तुम कृष्ण के बिना भी योग के सहारे अपना उध्दार कर लोगे। हमारा तो नंद कुमार कृष्ण के सिवा कोई ईश्वर नहीं है।
 
गोपी उद्धव संवाद के ऐसे कई कई पद हैं जो कटाक्षों, विरह दशाओं, राधा के विरह और निरगुण का परिहास और तर्क-कुतर्क व्यक्त करते हैं। सभी एक से एक उत्तम हैं पर यहाँ सीमा है लेख की।
 
अंतत: गोपियाँ राधा के विरह की दशा बताती हैं, ब्रज के हाल बताती हैं। अंतत: उद्धव का निरगुण गोपियों के प्रेममय सगुण पर हावी हो जाता है और उद्धव कहते हैं –
 
अब अति चकितवंत मन मेरौ।
आयौ हो निरगुण उपदेसन, भयौ सगुन को चैरौ।।
जो मैं ज्ञान गह्यौ गीत को, तुमहिं न परस्यौं नेरौ।
अति अज्ञान कछु कहत न आवै, दूत भयौ हरि कैरौ।।
निज जन जानि-मानि जतननि तुम, कीन्हो नेह घनेरौ।
सूर मधुप उठि चले मधुपुरी, बोरि जग को बेरौ।।
 
कृष्ण के प्रति गोपियों के अनन्य प्रेम को देख कर उद्धव भाव विभोर होकर कहते र्हैं मेरा मन आश्चर्यचकित है कि मैं आया तो निर्गुण ब्रह्म का उपदेश लेकर था और प्रेममय सगुण का उपासक बन कर जा रहा हूँ। मैं तुम्हें गीता का उपदेश देता रहा, जो तुम्हें छू तक न गया। अपनी अज्ञानता पर लज्जित हूँ कि किसे उपदेश देता रहा जो स्वयं लीलामय हैं। अब समझा कि हरि ने मुझे यहाँ मेरी अज्ञानता का अंत करने भेजा था। तुम लोगों ने मुझे जो स्नेह दिया उसका आभारी हूँ। सूरदासजी कहते हैं कि उद्धव अपने योग के बेडे क़ो गोपियों के प्रेम सागर में डुबो के, स्वयं प्रेममार्ग अपना मथुरा लौट गए।

भ्रमरगीत:गोपी-उद्धव


ऊधौ मन ना भये दस-बीस
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस॥1॥
 
 
 
भ्रमर गीत में सूरदास ने उन पदों को समाहित किया है जिनमें मथुरा से कृष्ण द्वारा उद्धव को ब्रज संदेस लेकर भेजा जाता है और उद्धव जो हैं योग और ब्रह्म के ज्ञाता हैं उनका प्रेम से दूर दूर का कोई सरोकार नहीं है। जब गोपियाँ व्याकुल होकर उद्धव से कृष्ण के बारे में बात करती हैं और उनके बारे में जानने को उत्सुक होती हैं तो वे निराकार ब्रह्म और योग की बातें करने लगते हैं तो खीजी हुई गोपियाँ उन्हें काले भँवरे की उपमा देती हैं। बस इन्हीं करीब १०० से अधिक पदों का संकलन भ्रमरगीत या उद्धव-संदेश कहलाया जाता है।
 
 
कृष्ण जब गुरु संदीपन के यहाँ ज्ञानाजर्न के लिये गए थे तब उन्हें ब्रज की याद सताती थी। वहाँ उनका एक ही मित्र था उद्धव, वह सदैव रीत-िनीति की, निगुर्ण ब्रह्म और योग की बातें करता था। तो उन्हें चिन्ता हुई कि यह संसार मात्र विरिक्तयुक्त निगुर्ण ब्रह्म से तो चलेगा नहीं, इसके लिये विरह और प्रेम की भी आवश्यकता है। और अपने इस मित्र से वे उकताने लगे थे कि यह सदैव कहता है, कौन माता, कौन पिता, कौन सखा, कौन बंधु। वे सोचते इसका सत्य कितना अपूर्ण और भर्ामक है। भला कहाँ यशोदा और नंद जैसे माता-पिता होने का सुख और राधा के साथ बीते पलों का आनंद। और तीनों लोकों में ब्रज के गोप-गोपियों के साथ मिलकर खेलने जैसा सुख कहाँ? ऐसा नहीं है कि द्वारा उद्धव को ब्रज संदेस लेकर भेजते समय कृष्ण संशय में न थे, वे स्व्यं सोच रहे थे यह कैसे संदेस ले जाएगा जो कि प्रेम का ममर् ही नहीं समझता, कोरा ब्रह्मर्ज्ञान झाड़ता है।
 
तबहि उपंगसुत आई गए।
सखा सखा कछु अंतर नाहिं, भरि भरि अंक लए।।
अति सुन्दर तन स्याम सरीखो, देखत हिर पछताने ।
ऐसे कैं वैसी बुधी होती, ब्रज पठऊं मन आने।।
या आगैं रस कथा प्रकासौं, जोग कथा प्रकटाऊं।
सूर ज्ञान याकौ दृढ़ किरके, जुवतिन्ह पास पठाऊं॥2॥
 
 
 
तभी उपंग के पुत्र उद्धव आ जाते हैं। कृष्ण उन्हें गले लगाते हैं।
 
दोनों सखाआें में खास अन्तर नहीं। उद्धव का रंग-रूप कृष्ण के समान ही है। पर कृष्ण उन्हें देख कर पछताते हैं कि इस मेरे समान रूपवान युवक के पास काश, प्रेमपूर्ण बुद्धि भी होती। तब कृष्ण मन बनाते हैं कि क्यों न उद्धव को ब्रज संदेस लेकर भेजा जाए, संदेस भी पहुँच जाएगा और इसे प्रेम का पाठ गोपियाँ भली भाँत पढ़ा देंगी। तब यह जान सकेगा प्रेम का ममर्।
 
उधर उद्धव सोचते हैं कि वे विरह में जल रही गोपियों को निगुर्ण ब्रह्म के प्रेम की शिक्षा दे कर उन्हें इस सांसारिक प्रेम से की पीड़ा मुक्ति से मुक्ति दिला देंगे। कृष्ण मन ही मन मुस्का कर उन्हें अपना पत्र थमाते हैं कि देखते हैं कि कौन किसे क्या सिखा कर आता है।
 
उद्धव पत्र गोपियों को दे देते हैं और कहते हैं कि कृष्ण ने कहा है कि –
 
सुनौ गोपी हिर कौ संदेस।
किर समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनको उपदेस।।
वै अविगत अविनासी पूरन, सब घट रहे समाई।
तत्वज्ञान बिनु मुक्ति नहीं, वेद पुराननि गाई।।
सगुन रूप तिज निरगुन ध्यावहु, इक चित्त एक मन लाई।
वह उपाई किर बिरह तरौ तुम, मिले ब्रह्म तब आई।।
दुसह संदेस सुन माधौ को, गोपि जन बिलखानी।
सूर बिरह की कौन चलावै, बूड़ितं मनु बिन पानी॥3॥
 
 
 
हे गोपियों, हिर का संदेस सुनो। उनका यही उपदेस है कि समाधि लगा कर अपने मन में निगुर्ण निराकार ब्रह्म का ध्यान करो। यह अज्ञेय, अविनाशी पूर्ण सबके मन में बसा है। वेद पुराण भी यही कहते हैं कि तत्वज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं। इसी उपाय से तुम विरह की पीड़ा से छुटकारा पा सकोगी। अपने कृष्ण के सगुण रूप को छोड़ उनके ब्रह्म निराकार रूप की अराधना करो। उद्धव के मुख से अपने प्रिय का उपदेश सुन प्रेममार्गी गोपियाँ व्यथित हो जाती हैं। अब विरह की क्या बात वे तो बिन पानी पीड़ा के अथाह सागर डूब गईं।
 
तभी एक भ्रमर वहाँ आता है तो बस जली-भुनी गोपियों को मौका मिल जाता है और वह उद्धव पर काला भ्रमर कह कर खूब कटाक्ष करती हैं।
 
रहु रे मधुकर मधु मतवारे।
कौन काज या निरगुन सौं, चिरजीवहू कान्ह हमारे।।
लोटत पीत पराग कीच में, बीच न अंग सम्हारै।
भारम्बार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे।।
तुम जानत हो वैसी ग्वारिनी, जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबहिनी बिरनावत, जैसे आवत कारे।।
सुंदर बदन, कमल-दल लोचन, जसुमति नंद दुलारे।
तन-मन सूर अरिप रहीं स्यामह,ि का पै लेहिं उधारै॥4॥
 
 
 
गोपियाँ भ्रमर के बहाने उद्धव को सुना-सुना कर कहती हैंर् हे भंवरे। तुम अपने मधु पीने में व्यस्त रहो, हमें भी मस्त रहने दो। तुम्हारे इस निरगुण से हमारा क्या लेना-देना। हमारे तो सगुण साकार कान्हा चिरंजीवी रहें। तुम स्वयं तो पराग में लोट लोट कर ऐसे बेसुध हो जाते हो कि अपने शरीर की सुध नहीं रहती और इतना मधुरस पी लेते हो कि सनक कर रस के विरुद्ध ही बातें करने लगते हो। हम तुम्हारे जैसी नहीं हैं कि तुम्हारी तरह फूल-फूल पर बहकें, हमारा तो एक ही है कान्हा जो सुन्दर मुख वाला, नीलकमल से नयन वाला यशोदा का दुलारा है। हमने तो उन्हीं पर तन-मन वार दिया है अब किसी निरगुण पर वारने के लिये तन-मन किससे उधार लें?
 
उधौ जोग सिखावनि आए।
सृंगी भस्म अथारी मुदर्ा, दै ब्रजनाथ पठाए।।
जो पै जोग लिख्यौ गोपिन कौ, कत रस रास खिलाए।
तब ही क्यों न ज्ञान उपदेस्यौ, अधर सुधारस लाए।।
मुरली शब्द सुनत बन गवनिं, सुत पितगृह बिसराए।
सूरदास संग छांिड स्याम कौ, हमहिं भये पछताए॥5॥
 
 
 
गोपियाँ कहती हैंर् हे सखि! आओ, देखो ये श्याम सुन्दर के सखा उद्धव हमें योग सिखाने आए हैं। स्वयं ब्रजनाथ ने इन्हें श्रृंगी, भस्म, अथारी और मुद्रा देकर भेजा है। हमें तो खेद है कि जब श्याम को इन्हें भेजना ही था तो, हमें अदभुत रास का रसमय आनंद क्यों दिया था? जब वे हमें अपने अथरों का रस पिला रहे थे तब ये ज्ञान और योग की बातें कहाँ गईं थीं? तब हम श्री कृष्ण की मुरली के स्वरों में सुधबुध खो कर अपने बच्चों और पित के घर को भुला दिया करती थीं। श्याम का साथ छोड़ना हमारे भाग्य में था ही तो हमने उनसे प्रेम ही क्यों किया अब हम पछताती हैं।
 
मधुबनी लोगि को पितयाई।
मुख औरै अंतरगति औरै, पितयाँ लिख पठवत जु बनाई।।
ज्यौं कोयल सुत काग जियावै, भाव भगति भोजन जु खवाई।
कुहुकि कुहुकि आएं बसंत रितु, अंत मिलै अपने कुल जाई।।
ज्यौं मधुकर अम्बुजरस चाख्यौ, बहुरि न बूझे बातें आई।
सूर जहाँ लगि स्याम गात हैं, तिनसौं कीजै कहा सगाई॥6॥
 
 
 
कोई गोपी उद्धव पर व्यंग्य करती है।मथुरा के लोगों का कौन विश्वास करे? उनके तो मुख में कुछ और मन में कुछ और है। तभी तो एक ओर हमें स्नेहिल पत्र लिख कर बना रहे हैं दूसरी ओर उद्धव को जोग के संदेस लेके भेज रहे हैं। जिस तरह से कोयल के बच्चे को कौआ प्रेमभाव से भोजन करा के पालता है और बसंत रितु आने पर जब कोयलें कूकती हैं तब वह भी अपनी बिरादरी में जा मिलता है और कूकने लगता है। जिस प्रकार भंवरा कमल के पराग को चखने के बाद उसे पूछता तक नहीं। ये सारे काले शरीर वाले एक से हैं, इनसे सम्बंध बनाने से क्या लाभ?
 
निरगुन कौन देस को वासी।
मधुकर किह समुझाई सौंह दै, बूझतिं सांिच न हांसी।।
को है जनक, कौन है जननि, कौन नारि कौन दासी।
कैसे बरन भेष है कैसो, किहं रस मैं अभिलाषी।।
पावैगो पुनि कियौ आपनो, जो रे करेगौ गांसी।
सुनत मौन हवै रहयौ बावरो, सूर सबै मति नासी॥6॥
 
 
 
अब गोपियों ने तकर् कियार् हाँ तो उद्धव यह बताआे कि तुम्हारा यह निगुर्ण किस देश का रहने वाला है? सच सौगंध देकर पूछते हैं, हंसी की बात नहीं है। इसके माता-पिता, नारी-दासी आखिर कौन हैं? कैसा है इस निरगुण का रंग-रूप और भेष? किस रस में उसकी रुिच है? यदि तुमने हमसे छल किया तो तुम पाप और दंड के भागी होगे। सूरदास कहते हैं कि गोपियों के इस तकर् के आगे उद्धव की बुद्धि कुंद हो गई। और वे चुप हो गए। लेकिन गोपियों के व्यंग्य खत्म न हुए वे कहती रहीं –
 
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहे।
मूरि के पातिन के बदलै, कौ मुक्ताहल देहै।।
यह ब्यौपार तुम्हारो उधौ, ऐसे ही धरयौ रेहै।
जिन पें तैं लै आए उधौ, तिनहीं के पेट समैंहै।।
दाख छांिड के कटुक निम्बौरी, कौ अपने मुख देहै।
गुन किर मोहि सूर साँवरे, कौ निरगुन निरवेहै॥8॥
 
 
 
हे उद्धव ये तुम्हारी जोग की ठगविद्या, यहाँ ब्रज में नहीं बिकने की। भला मूली के पत्तों के बदले माणक मोती तुम्हें कौन देगा? यह तुम्हारा व्यापार ऐसे ही धरा रह जाएगा। जहाँ से ये जोग की विद्या लाए हो उन्हें ही वापस सिखा दो, यह उन्हीं के लिये उिचत है। यहाँ तो कोई ऐसा बेवकूफ नहीं कि किशमिश छोड़ कर कड़वी निंबौली खाए! हमने तो कृष्ण पर मोहित होकर प्रेम किया है अब तुम्हारे इस निरगुण का निवार्ह हमारे बस का नहीं।
 
काहे को रोकत मारग सूधो।
सुनहु मधुप निरगुन कंटक तै, राजपंथ क्यौं रूंथौ।।
कै तुम सिखि पठए हो कुब्जा, कहयो स्यामघनहूं धौं।
वेद-पुरान सुमृति सब ढूंढों, जुवतिनी जोग कहूँ धौं।।
ताको कहां परैंखों की जे, जाने छाछ न दूधौ।
सूर मूर अक्रूर गयौ लै, ब्याज निवैरत उधौ॥9॥
 
 
 
गोपियां चिढ़ कर पूछती हैं कि कहीं तुम्हें कुबजा ने तो नहीं भेजा? जो तुम स्नेह का सीधा साधा रास्ता रोक रहे हो। और राजमागर् को निगुर्ण के कांटे से अवरुद्ध कर रहे हो! वेद-पुरान, स्मृति आदि गर्ंथ सब छान मारो क्या कहीं भी युवतियों के जोग लेने की बात कही गई है? तुम जरूर कुब्जा के भेजे हुए हो। अब उसे क्या कहें जिसे दूध और छाछ में ही अंतर न पता हो। सूरदास कहते हैं कि मूल तो अक्रूर जी ले गए अब क्या गोपियों से ब्याज लेने उद्धव आए हैं?
 
उधौ मन ना भए दस बीस।
एक हुतौ सौ गयौ स्याम संग, को आराधे ईस।।
इंदर्ी सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस।
आसा लागि रहित तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस।
सूर हमारै नंद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस॥10॥
 
 
 
अब थक हार कर गोपियाँ व्यंग्य करना बंद कर उद्धव को अपने तन मन की दशा कहती हैं। उद्धव हतप्रभ हैं, भक्ति के इस अदभुत स्वरूप से। हे उद्धव हमारे मन दस बीस तो हैं नहीं, एक था वह भी श्याम के साथ चला गया। अब किस मन से ईश्वर की अराधना करें? उनके बिना हमारी इंिदर्यां शिथिल हैं, शरीर मानो बिना सिर का हो गया है, बस उनके दरशन की क्षीण सी आशा हमें करोड़ों वषर् जीवित रखेगी। तुम तो कान्ह के सखा हो, योग के पूर्ण ज्ञाता हो। तुम कृष्ण के बिना भी योग के सहारे अपना उद्धार कर लोगे। हमारा तो नंद कुमार कृष्ण के सिवा कोई ईश्वर नहीं है।
 
गोपी उद्धव संवाद के ऐसे कई कई पद हैं जो कटाक्षों, विरह दशाआें, राधा के विरह और निरगुण का पिरहास और तकर्-कुतकर् व्यक्त करते हैं। सभी एक से एक उत्तम हैं पर यहाँ सीमा है लेख की।
 
अंततः गोपियाँ राधा के विरह की दशा बताती हैं, ब्रज के हाल बताती हैं। अंततः उद्धव का निरगुण गोपियों के प्रेममय सगुण पर हावी हो जाता है और उद्धव कहते हैं –
 
अब अति चकितवंत मन मेरौ।
आयौ हो निरगुण उपदेसन, भयौ सगुन को चैरौ।।
जो मैं ज्ञान गहयौ गीत को, तुमहिं न परस्यौं नेरौ।
अति अज्ञान कछु कहत न आवै, दूत भयौ हिर कैरौ।।
निज जन जानि-मानि जतननि तुम, कीन्हो नेह घनेरौ।
सूर मधुप उिठ चले मधुपुरी, बोरि जग को बेरौ॥11॥
 
 
 
कृष्ण के प्रति गोपियों के अनन्य प्रेम को देख कर उद्धव भाव विभोर होकर कहते हैंर् मेरा मन आश्चयर्चकित है कि मैं आया तो निगुर्ण ब्रह्म का उपदेश लेकर था और प्रेममय सगुण का उपासक बन कर जा रहा हूँ। मैं तुम्हें गीता का उपदेश देता रहा, जो तुम्हें छू तक न गया। अपनी अज्ञानता पर लज्जित हूँ कि किसे उपदेश देता रहा जो स्वयं लीलामय हैं। अब समझा कि हिर ने मुझे यहाँ मेरी अज्ञानता का अंत करने भेजा था। तुम लोगों ने मुझे जो स्नेह दिया उसका आभारी हूँ। सूरदास कहते हैं कि उद्धव अपने योग के बेड़े को गोपियों के प्रेम सागर में डुबो के, स्वयं प्रेममागर् अपना मथुरा लौट गए।
 
 
इहिं अंतर मधुकर इक आयौ ।
निज स्वभाव अनुसार निकट ह्वै,सुंदर सब्द सुनायौ ॥
पूछन लागीं ताहि गोपिका, कुबिजा तोहिं पठायौ ।
कीधौं सूर स्याम सुंदर कौं, हमै संदेसौ लायौ ॥12॥
 
 
 
(मधुप तुम) कहौ कहाँ तैं आए हौ ।
जानति हौं अनुमान आपनै, तुम जदुनाथ पठाए हौ ॥
वैसेइ बसन, बरन तन सुंदर, वेइ भूषन सजि ल्याए हौ ।
लै सरबसु सँग स्याम सिधारे, अब का पर पहिराए हौ ।
अहो मधुप एकै मन सबकौ, सु तौ उहाँ लै छाए हौ ।
अब यह कौन सयान बहुरि ब्रज, ता कारन उठि धाए हौ ॥
मधुबन की मानिनी मनोहर, तहीं जात जहँ भाये हौ ।
सूर जहाँ लौं स्याम गात हैं , जानि भले करि पाए हौ ॥13॥
 
 
 
रहु रे मधुकर मधु मतवारे ।
कौन काज या निरगुन सौं, चिर जीवहु कान्ह हमारे ॥
लोटत पीत पराग कीच मै, बीच न अंग संम्हारे ।
बारंबार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे ॥
तुम जानत हौ वैसी ग्वारिनि, जैसे कुसुम तिहारे ।
घरी पहर सबहिनि बिरमावत, जेते आवत कारे ॥
सुंदर बदन कमल-दल लोचन, जसुमति नंददुलारे ।
तन मन सूर अरपि रहीं स्यामहिं, का पै लेहिं उघारे ॥14॥
 
 
 
मधुकर हम न होहिं वै बेलि ।
जिन भजि तजि तुम फिरत और रँग, करन कुसुम-रस केलि ॥
बारे तैं बर बारि बनी हैं, अरु पोषी पिय पानि ।
बिनु पिय परस प्रात उठि फूलत, होति सदा हित हानि ॥
ये बेली बिरहीं बृंदावन; उरझी स्याम तमाल ।
प्रेम-पुहुप-रस-बास हमारे, बिलसत मधुप गोपाल ॥
जोग समीर धीर नहिं डोलतिं,रूप डार दृढ़ लागीं ।
सूर पराग न तजहिं हिए तें, श्री गुपाल अनुरागीं ॥15॥



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