Kurukshetra.
AMMA
DHOKA
KALA GHULAB
BADE GHAR KI BETI
SHADI KI RAAT
MERI BETI THODI SE BADI HO GAYI
BITYA
MANSARAVOR 2
MANSORVAR 3
BETHAL PACHEES
ANAND MATH
BACHO KE ROOPAK ( NATAK )
KANKAL
KAMAYNI JAYASHANKAR PRASSAD
EK KAMJOR LADAKIDEVDAS
LAGUKATAYA
BALGEETH
MANASASARAVOR 1 E BOOK
CHANDRAKANTHA E BOOK
NIRMALA E BOOK
GABAN E BOOK
आदिकाल : परिचय
आदिकाल सन 1000 से 1325 तक
हिंदी साहित्य के इस युग को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने वीर-गाथा काल नाम
दिया है। इसका चारण-काल, सिद्ध-सामंत काल और अन्य नाम से भी उल्लेख किया
जाता है। इस समय का साहित्य मुख्यतः चार रूपों में मिलता है :
- सिध्द-साहित्य,
- नाथ-साहित्य,
- जैन साहित्य,
- चारणी-साहित्य,
- प्रकीर्णक साहित्य।
सिद्ध और नाथ साहित्य
यह साहित्य
उस समय लिखा गया जब हिंदी अपभ्रंश से आधुनिक हिंदी की ओर विकसित हो रही थी।
सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी उस समय सिद्ध कहलाते थे। इनकी
संख्या चौरासी मानी गई है। सरहपा (सरोजपाद अथवा सरोजभद्र) प्रथम सिद्ध माने
गए हैं। इसके अतिरिक्त शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा, कुक्कुरिपा आदि
सिद्ध सहित्य के प्रमुख् कवि है|ये कवि अपनी वाणी का प्रचार जन भाषा मे
करते थे| उनकी सहजिया प्रवृत्ति मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति को केंद्र में
रखकर निर्धारित हुई थी। इस प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म
दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय शुरू हुआ। नाथ-साधु हठयोग पर
विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते
थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए
हैं। नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे। आपकी कई रचनाएं
प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ
के प्रमुख कवि है। इस समय की रचनाएं साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त
होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है। परवर्ती संत-साहित्य पर
सिध्दों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है।
जैन साहित्य
अपभ्रंश की
जैन-साहित्य परंपरा हिंदी में भी विकसित हुई है। बड़े-बड़े प्रबंधकाव्यों
के उपरांत लघु खंड-काव्य तथा मुक्तक रचनाएं भी जैन-साहित्य के अंतर्गत आती
हैं। स्वयंभू का पउम-चरिउ वास्तव में राम-कथा ही है। स्वयंभू, पुष्पदंत,
धनपाल आदि उस समय के प्रख्यात कवि हैं। गुजरात के प्रसिध्द जैनाचार्य
हेमचंद्र भी लगभग इसी समय के हैं। जैनों का संबंध राजस्थान तथा गुजरात से
विशेष रहा है, इसीलिए अनेक जैन कवियों की भाषा प्राचीन राजस्थानी रही है,
जिससे अर्वाचीन राजस्थानी एवं गुजराती का विकास हुआ है। सूरियों के लिखे
राम-ग्रंथ भी इसी भाषा में उपलब्ध हैं।
चारणी-साहित्य
इसके अंतर्गत
चारण के उपरांत ब्रह्मभट्ट और अन्य बंदीजन कवि भी आते हैं। सौराष्ट्र,
गुजरात और पश्चिमी राजस्थान में चारणों का, तथा ब्रज-प्रदेश, दिल्ली तथा
पूर्वी राजस्थान में भट्टों का प्राधान्य रहा था। चारणों की भाषा साधारणतः
राजस्थानी रही है और भट्टों की ब्रज। इन भाषाओं को डिंगल और पिंगल नाम भी
मिले हैं। ये कवि प्रायः राजाओं के दरबारों में रहकर उनकी प्रशस्ति किया
करते थे। अपने आश्रयदाता राजाओं की अतिरंजित प्रशंसा करते थे। श्रृंगार और
वीर उनके मुख्य रस थे। इस समय की प्रख्यात रचनाओं में चंदबरदाई कृत
पृथ्वीराज रासो, दलपति कृत खुमाण-रासो, नरपति-नाल्ह कृत बीसलदेव रासो,
जगनिक कृत आल्ह खंड वगैरह मुख्य हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण पृथ्वीराज
रासो है। इन सब ग्रंथों के बारे में आज यह सिद्ध हुआ है कि उनके कई अंश
क्षेपक हैं।
प्रकीर्णक साहित्य
खड़ी बोली का
आदि-कवि अमीर खुसरो इसी समय हो गया है। खुसरो की पहेलियां और मुकरियां
प्रख्यात हैं। मैथिल-कोकिल विद्यापति भी इसी समय के अंतर्गत हुए हैं। आपके
मधुर पदों के कारण आपको ‘अभिनव जयदेव’ भी कहा जाता है। मैथिली और अवहट्ट
में आपकी रचनाएं मिलती हैं। आपकी पदावली का मुख्य रस श्रृंगार माना गया है।
अब्दुल रहमान कृत ‘संदेश रासक’ भी इसी समय की एक सुंदर रचना है। इस छोटे
से प्रेम-संदेश-काव्य की भाषा अपभ्रंश से अत्यधिक प्रभावित होने से कुछ
विद्वान इसको हिंदी की रचना न मानकर अपभ्रंश की रचना मानते हैं।
आश्रयदाताओं
की अतिरंजित प्रशंसाएं, युध्दों का सुंदर वर्णन, श्रृंगार-मिश्रित वीररस का
आलेखन वगैरह इस साहित्य की प्रमुख विशेषताएं हैं। इस्लाम का भारत में
प्रवेश हो चुका था। देशी रजवाड़े परस्पर कलह में व्यस्त थे। सब एक साथ
मिलकर मुसलमानों के साथ लड़ने के लिए तैयार नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि
अलग-अलग सबको हराकर मुसलमान यहीं स्थिर हो गए। दिल्ली की गद्दी उन्होंने
प्राप्त कर ली और क्रमशः उनके राज्य का विस्तार बढ़ने लगा। तत्कालीन कविता
पर इस स्थिति का प्रभाव देखा जा सकता है।
आदिकाल के नामकरण की समस्या
साहित्य के इतिहास के प्रथम काल का नामकरण विद्वानों ने इस प्रकार किया है- | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1. डॉ.ग्रियर्सन – चारणकाल, | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
2. मिश्रबंधुओं – प्रारंभिककाल, | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
3. आचार्य रामचंद्र शुक्ल- वीरगाथा काल, | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
4. राहुल संकृत्यायन – सिद्ध सामंत युग, | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
5. महावीर प्रसाद द्विवेदी – बीजवपन काल, | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
6. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – वीरकाल, | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
7. हजारी प्रसाद द्विवेदी – आदिकाल, | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
8. रामकुमार वर्मा – चारण काल | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
* आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल का नाम वीरगाथा काल रखा है। इस नामकरण का आधार स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं- …आदिकाल की इस दीर्घ परंपरा के बीच प्रथम डेढ़-सौ वर्ष के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता-धर्म, नीति, श्रृंगार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति के उपरांत जब से मुसलमानों की चढाइयों का आरंभ होता है तब से हम हिंदी साहित्य की प्रवृत्ति एक विशेष रूप में बंधती हुई पाते हैं। राजाश्रित कवि अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रमपूर्ण चरितों या गाथाओं का वर्णन करते थे। यही प्रबंध परंपरा रासो के नाम से पायी जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने वीरगाथा काल कहा है। इसके संदर्भ में वे तीन कारण बताते हैं- | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1.इस काल की प्रधान प्रवृत्ति वीरता की थी अर्थात् इस काल में वीरगाथात्मक ग्रंथों की प्रधानता रही है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
2.अन्य जो ग्रंथ प्राप्त होते हैं वे जैन धर्म से संबंध रखते हैं, इसलिए नाम मात्र हैं और | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
3. इस काल के फुटकर दोहे प्राप्त होते हैं, जो साहित्यिक हैं तथा विभिन्न विषयों से संबंधित हैं, किन्तु उसके आधार पर भी इस काल की कोई विशेष प्रवृत्ति निर्धारित नहीं होती है। शुक्ल जी वे इस काल की बारह रचनाओं का उल्लेख किया है- | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1. विजयपाल रासो (नल्लसिंह कृत-सं.1355), 2.हम्मीर रासो (शांगधर कृत-सं.1357), 3. कीर्तिलता (विद्यापति-सं.1460), 4.कीर्तिपताका (विद्यापति-सं.1460), 5. खुमाण रासो (दलपतिविजय-सं.1180), 6.बीसलदेव रासो (नरपति नाल्ह-सं.1212), 7. पृथ्वीराज रासो (चंद बरदाई-सं.1225-1249), 8.जयचंद्र प्रकाश (भट्ट केदार-सं. 1225), 9. जयमयंक जस चंद्रिका (मधुकर कवि-सं.1240), 10.परमाल रासो (जगनिक कवि-सं.1230), 11. खुसरो की पहेलियाँ (अमीर खुसरो-सं.1350), 12.विद्यापति की पदावली (विद्यापति-सं.1460) | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
शुक्ल जी द्वारा किये गये वीरगाथाकाल नामकरण के संबंध में कई विद्वानों ने अपना विरोध व्यक्त किया है। इनमें श्री मोतीलाल मैनारिया, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि मुख्य हैं। आचार्य द्विवेदी का कहना है कि वीरगाथा काल की महत्वपूर्ण रचना पृथ्वीराज रासो की रचना उस काल में नहीं हुई थी और यह एक अर्ध-प्रामाणिक रचना है। यही नहीं शुक्ल ने जिन गंथों के आधार पर इस काल का नामकरण किया है, उनमें से कई रचनाओं का वीरता से कोई संबंध नहीं है। बीसलदेव रासो गीति रचना है। जयचंद्र प्रकाश तथा जयमयंक जस चंद्रिका -इन दोनों का वीरता से कोई संबंध नहीं है। ये ग्रंथ केवल सूचना मात्र हैं। अमीर खुसरो की पहेलियों का भी वीरत्व से कोई संबंध नहीं है। विजयपाल रासो का समय मिश्रबंधुओं ने सं.1355 माना है अतः इसका भी वीरता से कोई संबंध नहीं है। परमाल रासो पृथ्वीराज रासो की तरह अर्ध प्रामाणिक रचना है तथा इस ग्रंथ का मूल रूप प्राप्य नहीं है। कीर्तिलता और कीर्तिपताका- इन दोनों ग्रंथों की रचना विद्यापति ने अपने आश्रयदाता राजा कीर्तिसिंह की कीर्ति के गुणगान के लिए लिखे थे। उनका वीररस से कोई संबंध नहीं है। विद्यापति की पदावली का विषय राधा तथा अन्य गोपियों से कृष्ण की प्रेम-लीला है। इस प्रकार शुक्ल जी ने जिन आधार पर इस काल का नामकरण वीरगाथा काल किया है, वह योग्य नहीं है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
* डॉ.ग्रियर्सन का मत | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
डॉ.ग्रियर्सन ने हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल को चारणकाल नाम दिया है। पर इस नाम के पक्ष में वे कोई ठोस तर्क नहीं दे पाये हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास का प्रारंभ 643 ई. से मानी है किन्तु उस समय की किसी चारण रचना या प्रवृत्ति का उल्लेख उन्होंने नहीं किया है। वस्तुतः इस प्रकार की रचनाएँ 1000 ई.स. तक मिलती ही नहीं हैं। इस लिए डॉ.ग्रियर्सन द्वारा दिया गया नाम योग्य नहीं है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
* मिश्रबंधुओं का मत | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मिश्रबंधुओं ने ई.स. 643 से 1387 तक के काल को प्रारंभिक काल कहा है। यह एक सामान्य नाम है और इसमें किसी प्रवृत्ति को आधार नहीं बनाया गया है। यह नाम भी विद्वानों को स्वीकार्य वहीं है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
* डॉ.रामकुमार वर्मा का मत | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
डॉ.रामकुमार वर्मा- इन्होंने हिंदी साहित्य
के प्रारंभिक काल को चारणकाल नाम दिया है। इस नामकरण के बारे में उनका कहना
है कि इस काल के सभी कवि चारण थे, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता।
क्योंकि सभी कवि राजाओं के दरबार-आश्रय में रहनेवाले, उनके यशोगान करनेवाले
थे। उनके द्वारा रचा गया साहित्य चारणी कहलाता है। किन्तु विद्वानों का
मानना है कि जिन रचनाओं का उल्लेख वर्मा जी ने किया है उनमें अनेक रचनाएँ
संदिग्ध हैं। कुछ तो आधुनिक काल की भी हैं। इस कारण डॉ.वर्मा द्वारा दिया
गया चारणकाल नाम विद्वानों को मान्य नहीं है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिंदी साहित्य के आदिकाल की कालाविधि सं ७५० से १३७५ तक मानकर इसे दो भागों मिह बांटा है. १. संधिकाल (७५० से १००० वि.) तथा २. चरण काल (१००० से १३७५ वि. तक) उन्होंने संधिकाल में जैन, सिद्ध तथा नाथ साहित्य को व चारनकाल में वीरगाथात्मक रचनाओं को समाविष्ट किया है. संधिकाल दो भाषाओं एवं दो धर्मों का संधियुग है, जो वस्तुतः अपभ्रंश साहित्य ही है. चारनकाल तथा वीरगाथा काल की भांति ही दोषपूर्ण है क्योंकि इस सन्दर्भ में गिनाई गयी चारणों की रचनायें अप्रमाणिक एवं परवर्ती है. कुछ आलोचकों का ये कहना है की वीरगाथा काव्यों के रचयिता चारण न होकर भाट थे. |
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* राहुल संकृत्यायन का मत | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
राहुल संकृत्यायन- उन्होंने 8वीं से 13 वीं शताब्दी तक के काल को सिद्ध-सांमत युग की रचनाएँ माना है। उनके मतानुसार उस समय के काव्य में दो प्रवृत्तियों की प्रमुखता मिलती है- 1.सिद्धों की वाणी- इसके अंतर्गत बौद्ध तथा नाथ-सिद्धों की तथा जैनमुनियों की उपदेशमुलक तथा हठयोग की क्रिया का विस्तार से प्रचार करनेवाली रहस्यमूलक रचनाएँ आती हैं। 2.सामंतों की स्तृति- इसके अंतर्गत चारण कवियों के चरित काव्य (रासो ग्रंथ) आते हैं, जिनमें कवियों ने अपने आश्रय दाता राजा एवम् सामंतों की स्तृति के लिए युद्ध, विवाह आदि के प्रसंगों का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है। इन ग्रंथों में वीरत्व का नवीन स्वर मुखरित हुआ है। राहुल जी का यह मत भी विद्वानों द्वारा मान्य नहीं है। क्योंकि इस नामकरण से लौकिक रस का उल्लेख करनेवाली किसी विशेष रचना का प्रमाण नहीं मिलता। नाथपंथी तथा हठयोगी कवियों तथा खुसरो आदि की काव्य-प्रवृत्तियों का इस नाम में समावेश नहीं होता है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
* आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का मत | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी- उन्होंने हिंदी साहित्य के प्रथम काल का नाम बीज-बपन काल रखा। उनका यह नाम योग्य नहीं है क्योंकि साहित्यिक प्रवृत्तियों की दृष्टि से यह काल आदिकाल नहीं है। यह काल तो पूर्ववर्ती परिनिष्ठित अपभ्रंश की साहित्यिक प्रवृत्तियों का विकास है। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
* आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी- इन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक काल को आदिकाल नाम दिया है। विद्वान भी इस नाम को अधिक उपयुक्त मानते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है- वस्तुतः हिंदी का आदि काल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम, मनोभावापन्न, परंपराविनिर्मुक्त, काव्य-रूढि़यों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक वहीं है। यह काल बहुत अधिक परंपरा-प्रेमी, रूढि़ग्रस्त, सजग और सचेत कवियों का काल है। आदिकाल नाम ही अधिक योग्य है क्योंकि साहित्य की दृष्टि से यह काल अपभ्रंश काल का विकास ही है, पर भाषा की दृष्टि से यह परिनिष्ठित अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई भाषा की सूचना देता है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के आदिकाल के लक्षण-निरूपण के लिए निम्नलिखित पुस्तकें आधारभूत बतायी हैं- | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
1.पृथ्वीराज रासो, 2.परमाल रासो, 3.विद्यापति की पदावली, 4.कीर्तिलता, 5.कीर्तिपताका, 6.संदेशरासक (अब्दुल रेहमान), 7.पउमचरिउ (स्वयंभू कृत रामायण), 8.भविषयत्कहा (धनपाल), 9.परमात्म-प्रकाश (जोइन्दु), 10.बौद्ध गान और दोहा (संपादक पं.हरप्रसाद शास्त्री), 11.स्वयंभू छंद और 12.प्राकृत पैंगलम्। | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
* नाम निर्णय | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
इस प्रकार हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम
काल के नामकरण के रूप में आदिकाल नाम ही योग्य व सार्थक है, क्योंकि इस नाम
से उस व्यापक पुष्ठभूमि का बोध होता है, जिस पर परवर्ती साहित्य खड़ा है।
भाषा की दृष्टि से इस काल के साहित्य में हिंदी के प्रारंभिक रूप का पता
चलता है तो भाव की दृष्टि से भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक की सभी प्रमुख
प्रवृत्तियों के आदिम बीज इसमें खोजे जा सकते हैं। इस काल की रचना-शैलियों
के मुख्य रूप इसके बाद के कालों में मिलते हैं। आदिकाल की आध्यात्मिक,
श्रृंगारिक तथा वीरता की प्रवृत्तियों का ही विकसित रूप परवर्ती साहित्य
में मिलता है। इस कारण आदिकाल नाम ही अधिक उपयुक्त तथा व्यापक नाम है।सिद्ध साहित्य
|
तुरासो काव्य : वीरगाथायें
परमाल रासो – इस ग्रन्थ की मूल प्रति कहीं नहीं मिलती। इसके रचयिता के बारे में भी विवाद है। पर इसका रचयिता “”महोबा खण्ड” को सं. १९७६ वि. में डॉ. श्यामसुन्दर दास ने “”परमाल रासो” के नाम से संपादित किया था। डॉ. माता प्रसाद गुप्त के अनुसार यह रचना सोलहवीं शती विक्रमी की हो सकती है। इस रचना के सम्बन्ध में काफी मतभेद है। श्री रामचरण हयारण “”मित्र” ने अपनी कृति “”बुन्देलखण्ड की संस्कृति और साहित्य” मैं “परमाल रासो” को चन्द की स्वतन्त्र रचना माना है। किन्तु भाषा शैली एवं छन्द में -महोवा खण्ड” से यह काफी भिन्न है। उन्होंने टीकामगढ़ राज्य के वयोवृद्ध दरवारी कवि श्री “”अम्बिकेश” से इस रचना के कंठस्थ छन्द लेकर अपनी कृति में उदाहरण स्वरुप दिए हैं। रचना के एक छन्द में समय की सूचना दी गई है जिसके अनुसार इसे १११५ वि. की रचना बताया गया है जो पृथ्वीराज एवं चन्द के समय की तिथियों से मेल नहीं खाती। इस आधार पर इसे चन्द की रचना कैसे माना जा सकता है। यह इसे परमाल चन्देल के दरवारी कवि जगानिक की रचना माने तो जगनिक का रासो कही भी उपलब्ध नहीं होता है। |
स्वर्गीय महेन्द्रपाल सिंह ने अपेन एक लेख में लिखा है कि जगनिक का असली रासो अनुपलब्ध है। इसके कुछ हिस्से दतिया, समथर एवं चरखारी राज्यों में वर्तमान थे, जो अब नष्ट हो चुके हैं। |
पृथ्वीराज रासो – यह कवि चन्द की रचना है। इसमें दिल्लीश्वर पृथ्वीराज के जीवन की घटनाओं का विशद वर्णन है। यह एक विशाल महाकाव्य है। यह तेरहवीं शदी की रचना है। डा. माताप्रसाद गुप्त इसे १४०० वि. के लगभग की रचना मानते हैं। पृथ्वीराज रासो की एतिहासिकता विवादग्रस्त है। |
वीसलदेव रासो – यह रचना पश्चिमी राजस्थान की है। रचना तिथि सं. १४०० वि. के आसपास की है। इसके रचयिता नरपति नाल्ह हैं। रचना वीर गीतों के रुप में उपलब्ध है। इसमें वीसलदेव के जीवन के १२ वर्षों के कालखण्ड का वर्णन किया गया है। |
हम्मीर रासो – इस रचना की कोई मूल प्रति नहीं मिलती है। इसका रचयिता शाङ्र्गधर माना जाता है। प्राकृत पैगलम में इसके कुछ छन्द उदाहरण के रुप में दिए गये है। ग्रन्थ की भाषा हम्मीर के समय के कुछ बाद की लगती है। अतः भाषा के आधार पर इसे हम्मीर के कुछ बाद का माना जा सकता है। |
बुत्रद्ध रासो– इसका रचयिता जल्ह है जिसे पृथ्वीराज रासो का पूरक कवि भी माना गया है। कवि ने रचना में समय नहीं दिया है। इसे पृथ्वीराज रासो के बाद की रचना माना जाता है। |
मुंज रास – यह अपभ्रंश की रचना है। इसमें लेखक का नाम कहीं नहीं दिया गया। रचना काल के विषय में कोई निश्चित मत नहीं मिलता। हेमचन्द्र की यह व्याकरण रचना सं. ११९० की है। मुंज का शासन काल १००० -१०५४ वि. माना जाता है। इसलिए यह रचना १०५४-११९० वि. के बीच कभी लिखी गई होगी। इसमें मुंज के जीवन की एक प्रणय कथा का चित्रण है। कर्नाटक के राजा तैलप के यहाँ बन्दी के रुप में मुंज का प्रेम तैलप की विधवा पुत्री मृणालवती से ही जाता है। मुंज उसको लेकर बन्दीगृह से भागने का प्रस्ताव करता है किन्त मृणालवती अपने प्रेमी को वहीं रखकर अपना प्रणय सम्बन्ध निभाना चाहती थी इसलिए उसने तैलप को भेद दे दिया जिसके परिणामस्वरुप क्रोधी तैलप ने मृणालवती के सामने ही उसके प्रेमी मुंज को हाथी से कुचलवाकर मार डाला। कथा सूत्र को देखते हुए रचना छोटी प्रतीत नहीं होती। |
खम्माण रासो – इसकी रचना कवि दलपति विजय ने की है। इसे खुमाण के समकालीन अर्थातद्य सं. ७९० सं. ८९० वि. माना गया है किन्तु इसकी प्रतियों में राणा संग्राम सिंह द्वितीय के समय १७६०-१७९० के पूर्व की नहीं होनी चाहिए। डॉ. उदयनारायण तिवारी ने श्री अगरचन्द नाहटा के एक लेख के अनुसार इसे सं. १७३०-१७६० के मध्य लिखा बताया गया है। जबकि श्री रामचन्द्र शुक्ल इसे सं. ९६९-सं. ८९९ के बीच की रचना मानते हैं। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इसे सं. १७३०-७९० के मध्य लिखा माना जा सकता है। |
हम्मीर रासो– इसके रचयिता महेश कवि है। यह रचना जोधराज कृत्त हम्मीर रासो के पहले की है। छन्द संख्या लगभग ३०० है इसमें रणथंभौर के राणा हम्मीर का चरित्र वर्णन है। |
विजय पाल रासो – नल्ह सिह भाट कृत इस रचना के केवल ४२ छन्द उपलब्ध है। विजयपाल, विजयगढ़ करौली के यादव राजा थे। इसके आश्रित कवि के रुप में नल्ह सिह का नाम आता है। रचना की भाषा से यह १७ वीं शताब्दी से पूर्व की नहीं हो सकती है। |
सन्देश रासक – यह अपभ्रंश की रचना है। रचियिता अब्दुल रहमान हैं। यह रचना मूल स्थान या मुल्तान के क्षेत्र से सम्बन्धित है। कुल छन्द संख्या २२३ है। यह रचना विप्रलम्भ श्रृंगार की है। इसमें विजय नगर की कोई वियोगिनी अपने पति को संदेश भेजने के लिए व्याकुल है तभ कोई पथिक आ जाता है और वह विरहिणी उसे अपने विरह जनित कष्टों को सुनाते लगती है। जब पथिक उससे पूछता है कि उसका पति कि ॠतु में गया है तो वह उत्तर में ग्रीष्म ॠतु से प्रारम्भ कर विभिन्न ॠतुओं के विरह जनित कष्टों का वर्णन करने लगती है। यह सब सुनकर जब पथिक चलने लगता है, तभी उसका प्रवासी पति आ जाता है। यह रचना सं ११०० वि. के पश्चातद्य की है। |
राणा रासो – दयाल दास द्वारा विरचित इस ग्रन्थ में शीशौदिया वंश के राजाओं के युद्धें एवं जीवन की घटनाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन १३७५-१३८१ के मध्य का हो सकता है। इसमें रतलाम के राजा रतनसिंह का वृत्त वर्णित किया गया है। |
कायम रासो – यह रासो “”न्यामत खाँ जान” द्वारा रचा गया है। इसका रचना काल सं. १६९१ है किन्तु इसमें १७१० वि. की घअना वाला कुछ अंश प्रक्षिप्त है क्योंकि यदि कवि इस समय तक जीवित था तो उसने पूर्व तिथि सूचक क्यों बदला। यह वैसा का वैसा ही लिखा है इसमें राजस्थान के कायमखानी वंश का इतिहास वर्णित है। |
शत्रु साल रासो– रचयिता डूंगरसी कवि। इसका रचना काल सं. १७१० माना गया है। छंद संख्या लगभग ५०० है। इसमें बूंदी के राव शत्रुसाल का वृत्त वर्णित किया गया है। |
आंकण रासो – यह एक प्रकार का हास्य रासो है। इसमें खटमल के जीवन चरित्र का वर्णन किया गया है। इसका रचयिता कीर्तिसुन्दर है। रचना सं. १७५७ वि. की है। इसकी कुल छन्द संख ३९ है। |
सागत सिंह रासो– यह गिरधर चारण द्वारा लिखा गया है। इसमें शक्तिसिंह एवं उनके वंशजों का वृत्त वर्णन किया गया है। श्री अगरचन्द्र श्री अगरचन्द नाहटा इसका रचना काल सं. १७५५ के पश्चात का मानते हैं। इसकी छन्द संख्या ९४३ है। |
राउजैतसी रासो – इस रचना में कवि का नाम नहीं दिया गया है और न रचना तिथि का ही संकेत है। इसमें बीकानेर के शासक राउ जैतसी तथा हुमायूं के भाई कामरांन में हुए एक युद्ध का वर्णन हैं जैतसी का शासन काल सं. १५०३-१५१८ के आसपास रहा है। अत-यह रचना इसके कुछ पश्चात की ही रही होगी। इसकी कुल छन्द संख्या ९० है। इसे नरोत्तम स्वामी ने राजस्थान भारतीय में प्रकाशित कराया है। |
रासा भगवन्तसिंह – सदानन्द द्वारा विरचित है। इसमें भगवन्तसिंह खीची के १७९७ वि. के एक युद्ध का वर्णन है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त के अनुसार यह रचना सं. १७९७ के पश्चात की है। इसमें कुल १०० छन्द है। |
करहिया की रायसौ – यह सं. १९३४ की रचना है। इसके रचयिता कवि गुलाब हैं, जिनके श्वंशज माथुर चतुर्वेदी चतुर्भुज वैद्य आंतरी जिला ग्वालियर में निवास करते थे। श्री चतुर्भुज जी के वंशज श्री रघुनन्दन चतुर्वेदी आज भी आन्तरी ग्वालिया में ही निवास करते हैं, जिनके पास इस ग्ररन्थ की एक प्रति वर्तमान है। इसमें करहिया के पमारों एवं भरतपुराधीश जवाहरसिंह के बीच हुए एक युद्ध का वर्णन है। |
रासो भइया बहादुरसिंह – इस ग्रन्थ की रचना तिथि अनिश्चित है, परन्तु इसमें वर्णित घटना सं. १८५३ के एक युत्र की है, इसी के आधार पर विद्वानों ने इसका रचना काल सं. १८५३ के आसपास बतलाया है। इसके रचयिता शिवनाथ है। |
रायचसा – यह भी शिवनाथ की रचना है। इसमें भी रचना काल नहीं दिया है। उपर्युक्त “”रासा भइया बहादुर सिंह” के आधार पर ही इसे भी सं. १८५३ के आसपास का ही माना जा सकता है, इसमें धारा के जसवंतसिंह और रीवां के अजीतसिंह के मध्य हुए एक युद्ध का वर्णन है। |
कलियंग रासो – इसमें कलियुगका वर्णन है। यह अलि रासिक गोविन्द की रचना हैं। इसकी रचना तिथि सं. १८३५ तथा छन्द संख्या ७० है। |
वलपतिराव रायसा – इसके रचयिता कवि जोगींदास भाण्डेरी हैं। इसमें महाराज दलपतिराव के जीवन काल के विभिन्न युद्धों की घटनाओं का वर्णन किया गया है। कवि ने दलपति राव के अन्तिम युद्ध जाजऊ सं. १७६४ वि. में उसकी वीरगति के पश्चात् रायसा लिखने का संकेत दिया है। इसलिये यह रचना सं. १४६४ की ही मानी जानी चाहिए। रासो के अध्ययन से ऐसा लगता है कि कवि महाराजा दलपतिराव का समकालीन था। इस ग्रन्थ में दलपतिराव के पिता शुभकर्ण का भी वृत्त वर्णित है। अतः यह दो रायसों का सम्मिलित संस्करण है। इसकी कुल छन्द संख्या ३१३ हैं। इसका सम्पादन श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव ने किया है, तथा “कन्हैयालाल मुन्शी, हिन्दी विद्यापीठ, आगरा नसे भारतीय साहित्य के मुन्शी अभिनन्दन अंक में इसे प्रकाशित किया गया है। |
शत्रु जीत रायसा – बुन्देली भाषा के इस दूसरे रायसे के रचयिता किशुनेश भाट है। इसकी छन्द संख्या ४२६ है। इस रचना के छन्द ४२५ वें के अनुसार इसका रचना काल सं. १८५८ वि. ठहरता है। दतिया नरेश शत्रु जीत का समय सं. १८१९ सं. १९४८ वि. तदनुसार सनद्य १७६२ से १८०१ तक रहा है। यह रचना महाराजा शत्रुजीत सिंह के जीवन की एक अन्तिम घटना से सम्बन्धित है। इसमें ग्वालियर के वसन्धिया महाराजा दौलतराय के फ्रान्सीसी सेनापति पीरु और शत्रुजीत सिंह के मध्य सेवढ़ा के निकट हुए एक युद्ध का सविस्तार वर्णन है। इसका संपादन श्री हरि मोहनलाल श्रीवास्तव ने किया, तथा इसे “”भारतीय साहित्य” में कन्हैयालालमुन्शी हिदी विद्यापीठ आगरा द्वारा प्रकाशित किया गया है। |
गढ़ पथैना रासो– रचयिता कवि चतुरानन। इसमें १८३३ वि. के एक युद्ध का वर्णन किया गया है। छन्द संख्या ३१९ है। इसमें वर्णित युद्ध आधुनिक भरतपुर नगर से ३२ मील पूर्व पथैना ग्राम में वहां के वीरों और सहादत अली के मध्य लड़ा गया था। भरतपुर के राजा सुजारनसिंह के अंगरक्षक शार्दूलसिंह के पूत्रों के अदम्य उत्साह एवं वीरता का वर्णन किया गया है। बाबू वृन्दावनदास अभिनन्दन ग्रन्थ में सन् १९७५ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद द्वारा इसका विवरण प्रकाशित किया गया। |
पारीछत रायसा – इसके रचयिता श्रीधर कवि है। रायसो में दतिया के वयोवृद्ध नरेश पारीछत की सेना एवं टीकामगढ़ के राजा विक्रमाजीतसिंह के बाघाट स्थित दीवान गन्धर्वसिंह के मध्य हुए युद्ध का वर्णन है। युद्ध की तिथि सं. १८७३ दी गई है। अतएव यह रचना सं. १८७३ के पश्चात् की ही रही होगी। इसका सम्पादन श्री हरिमोहन लाल श्रीवासतव के द्वारा किया गया तथा भारतीय साहित्य सनद्य १९५९ में कन्हैयालाल मुन्शी, हिन्दी विद्यापीठ आगरा द्वारा इसे प्रकाशित किया गया। |
बाघाट रासो – इसके रचयिता प्रधान आनन्दसिंह कुड़रा है। इसमें ओरछा एवं दतिया राज्यों के सीमा सम्बन्धी तनाव के कारण हुए एक छोटे से युद्ध का वर्णन किया गया है। इस रचना में पद्य के साथ बुन्देली गद्य की भी सुन्दर बानगी मिलती है। बाघाट रासो में बुन्देली बोली का प्रचलित रुप पाया जाता है। कवि द्वारा दिया गया समय बैसाख सुदि १५ संवत् १८७३ विक्रमी अमल संवत १८७२ दिया गया है। इसे श्री हरिमोहनलाल श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित किया गया तथा यह भारतीय साहित्य में मुद्रित है। इसे “”बाघाइट कौ राइसो” के नाम से “”विंध्य शिक्षा” नाम की पत्रिका में भी प्रकाशित किया गया है। |
झाँसी की रायसी
– इसके रचनाकार प्रधान कल्याणिंसह कुड़रा है। इसकी छन्द संख्या लगभग २००
है। उपलब्ध पुस्तक में छन्द गणना के लिए छन्दों पर क्रमांक नहीं डाले गये
हैं। इसमें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई तथा टेहरी ओरछा वाली रानी लिड़ई सरकार
के दीवान नत्थे खां के साथ हुए युद्ध का विस्तृत वर्णन किया गया है। झांसी
की रानी तथा अंग्रेजों के मध्य हुए झांसी कालपी, कौंच तथा ग्वालियर के
युद्धों का भी वर्णन संक्षिप्त रुप में इसमें पाया जाता है। इसका रचना काल
सं. १९२६ तदनुसार १९६९ ई. है। अर्थातद्य सन् १९५७ के जन-आन्दोलन के कुल १२
वर्ष की समयावधि के पश्चात् की रचना है। इसे श्री हरिमोहन लाल श्रीवास्तव
दतिया ने “”वीरांगना लक्ष्मीबाई” रासो और कहानी नाम से सम्पादित कर सहयोगी प्रकाशन मन्दिर लि. दतिया से प्रकाशित कराया है। |
लक्ष्मीबाई रासो – इसके रचयिता पं. मदन मोहन द्विवेदी “”मदनेश” है। कवि की जन्मभूमि झांसी है। इस रचना का संपादन डॉ. भगवानदास माहौर ने किया है। यह रचना प्रयाग साहित्य सम्मेलन की “”साहित्य-महोपाध्याय” की उपाधि के लिए भी सवीकृत हो चुकी है। इस कृति का रचनाकाल डॉ. भगवानदास माहौर ने सं. १९६१ के पूर्व का माना है। इसके एक भाग की समाप्ति पुष्पिका में रचना तिथि सं. १९६१ दी गई है। रचना खण्डित उपलब्ध हुई है, जिसे ज्यों का त्यों प्रकाशित किया गया है। विचित्रता यह है कि इसमें कल्याणसिंह कुड़रा कृत “”झांसी कौ रायसो” के कुछ छन्द ज्यों के त्यों कवि ने रख दिये हैं। कुल उपलब्ध छन्द संख्या ३४९ हैं। आठवें भाग में समाप्ति पुष्पिका नहीं दी गई है, जिससे स्पष्ट है कि रचना अभी पूर्ण नहीं है। इसका शेष हिस्सा उपलब्ध नहीं हो सका है। कल्याण सिंह कुड़रा कृत रासो और इस रासो की कथा लगभग एक सी ही है, पर मदनेश कृत रासो में रानी लक्ष्मीवाई के ऐतिहासिक एवं सामाजिक जीवन का विशद चित्रण मिलता है। |
छछूंदर रायसा – बुन्देली बोली में लिखी गई यह एक छोटी रचना है। छछूंदर रायसे की प्रेरणा का स्रोत एक लोकोक्ति को माना जा सकता है- “”भई गति सांप छछूंदर केरी।” इस रचना में हास्य के नाम पर जातीय द्वेषभाव की झलक देखने को मिलती है। दतिया राजकीय पुस्तकालय में मिली खण्डित प्रति से न तो सही छन्द संख्या ज्ञात हो सकी और न कवि के सम्बन्ध में ही कुछ जानकारी उपलब्ध हो सकीफ रचना की भाषा मंजी हुई बुन्देली है। अवश्य ही ऐसी रचनाएं दरबारी कवियों द्वारा अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करने अथवा कायर क्षत्रियत्व पर व्यंग्य के लिये लिखी गई होगी। |
लसीदास
तुलसीदास | |
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काँच मन्दिर, तुलसी पीठ (चित्रकूट) में प्रतिष्ठित गोस्वामी तुलसीदास की प्रतिमा | |
जन्म | रामबोला १४९७ ई० (संवत १५५४ वि०) राजापुर, उत्तर प्रदेश, भारत |
मृत्यु | १६२३ ई० (संवत १६८० वि०) वाराणसी |
गुरु/शिक्षक | नरहरिदास |
दर्शन | वैष्णव |
खिताब/सम्मान | गोस्वामी, अभिनववाल्मीकि, इत्यादि |
साहित्यिक कार्य | रामचरितमानस, विनयपत्रिका, दोहावली, कवितावली, हनुमान चालीसा, वैराग्य सन्दीपनी, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, इत्यादि |
कथन | सीयराममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥ (रामचरितमानस १.८.२) |
गोस्वामी तुलसीदास [१४९७ - १६२३] एक महान कवि थे। उनका जन्म राजापुर गाँव (वर्तमान बाँदा जिला) उत्तर प्रदेश में हुआ था। अपने जीवनकाल में उन्होंने १२ ग्रन्थ लिखे। उन्हें संस्कृत विद्वान होने के साथ ही हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। उनको मूल आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है। श्रीरामचरितमानसवाल्मीकि रामायण का प्रकारान्तर से ऐसा अवधी भाषान्तर है जिसमें अन्य भी कई कृतियों से महत्वपूर्ण सामग्री समाहित की गयी थी। रामचरितमानस को समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है। त्रेता युग के ऐतिहासिकराम-रावण युद्ध पर आधारित उनके प्रबन्ध काव्य रामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया।[1]
अनुक्रम
[छुपाएँ]जन्म
अधिकांश विद्वान तुलसीदास का जन्म स्थान राजापुर को मानने के पक्ष में हैं। यद्यपि कुछ इसे सोरो भी मानते हैं। राजापुर उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिला के अंतर्गत स्थित एक गाँव है। वहाँ आत्माराम दुबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था। संवत् १५५४ के श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं दम्पति के यहाँ तुलसीदास का जन्म हुआ। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक माँ के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में दाँत दिखायी दे रहे थे। जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया जिससे उसका नाम रामबोला पड़ गया। उनके जन्म के दूसरे ही दिन माँ का निधन हो गया। पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिये बालक को चुनियाँ नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। जब रामबोला साढे पाँच वर्ष का हुआ तो चुनियाँ भी नहीं रही। वह गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन जीने को विवश हो गया।
बचपन
भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस रामबोला के नाम से बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूँढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा। तदुपरान्त वे उसे अयोध्या (उत्तर प्रदेश) ले गये और वहाँ संवत् १५६१ माघ शुक्ला पञ्चमी (शुक्रवार) को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया। संस्कार के समय भी बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का स्पष्ठ उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि बाबा ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। वह एक ही बार में गुरु-मुख से जो सुन लेता, उसे वह कंठस्थ हो जाता। वहाँ से कुछ काल के बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ नरहरि बाबा ने बालक को राम-कथा सुनायी किन्तु वह उसे भली-भाँति समझ न आयी।
ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी, गुरुवार, संवत् १५८३ को २९ वर्ष की आयु में राजापुर से थोडी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव की अति सुन्दरी भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। चूँकि गौना नहीं हुआ था अत: कुछ समय के लिये वे काशी चले गये और वहाँ शेषसनातन जी के पास रहकर वेद-वेदांग के अध्ययन में जुट गये। वहाँ रहते हुए अचानक एक दिन उन्हें अपनी पत्नी की याद आयी और वे व्याकुल होने लगे। जब नहीं रहा गया तो गुरूजी से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि राजापुर लौट आये। पत्नी रत्नावली चूँकि मायके में ही थी क्योंकि तब तक उनका गौना नहीं हुआ था अत: तुलसीराम ने भयंकर अँधेरी रात में उफनती यमुना नदी तैरकर पार की और सीधे अपनी पत्नी के शयन-कक्ष में जा पहुँचे। रत्नावली इतनी रात गये अपने पति को अकेले आया देख कर आश्चर्यचकित हो गयी। उसने लोक-लज्जा के भय से जब उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस अप्रत्याशित जिद से खीझकर रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से जो शिक्षा उन्हें दी उसने ही तुलसीराम को तुलसीदास बना दिया। रत्नावली ने जो दोहा कहा था वह इस प्रकार है:
यह दोहा सुनते ही उन्होंने उसी समय पत्नी को वहीं उसके पिता के घर छोड दिया और वापस अपने गाँव राजापुर लौट गये। राजापुर में अपने घर जाकर जब उन्हें यह पता चला कि उनकी अनुपस्थिति में उनके पिता भी नहीं रहे और पूरा घर नष्ट हो चुका है तो उन्हें और भी अधिक कष्ट हुआ। उन्होंने विधि-विधान पूर्वक अपने पिता जी का श्राद्ध किया और गाँव में ही रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।
श्रीराम से भेंट
कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बतलाया। हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान्जी ने कहा- "तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथजी दर्शन होंगें।" इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।
चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान्जी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान्जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।
संवत् १६०७ की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्रीराम पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?" हनुमान जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:
तुलसीदास श्रीराम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।
संस्कृत में पद्य-रचना
संवत् १६२८ में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये। पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ। भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद उचट गयी। वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- "तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी।" इतना कहकर गौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। तुलसीदास जी उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से सीधे अयोध्या चले गये।
रामचरितमानस की रचना
संवत् १६३१ का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।
इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा कोश्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया-सत्यं शिवं सुन्दरम् जिसके नीचे भगवान् शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने "सत्यं शिवं सुन्दरम्" की आवाज भी कानों से सुनी।
इधर काशी के पण्डितों को जब यह बात पता चली तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बनाकर तुलसीदास जी की निन्दा और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भी भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। दोनों युवक बड़े ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भगवान के भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान् को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया और पुस्तक अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहाँ रखवा दी। इसके बाद उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की गयीं और पुस्तक का प्रचार दिनों-दिन बढ़ने लगा।
इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस पुस्तक को देखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की। मधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी-
इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है-"काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात् चलता-फिरता तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मञ्जरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भँवरा सदा मँडराता रहता है।"
पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया। काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान् विश्वनाथके सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब तो सभी पण्डित बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा माँगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।
मृत्यु
तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया।
संवत् १६८० में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।
तुलसी-स्तवन
तुलसीदास जी की हस्तलिपि अत्यधिक सुन्दर थी लगता है जैसे उस युग में उन्होंने कैलोग्राफी की कला आती थी। उनके जन्म-स्थान राजापुर के एक मन्दिर मेंश्रीरामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड की एक प्रति सुरक्षित रखी हुई है। उसी प्रति के साथ रखे हुए एक कवि मदनलाल वर्मा 'क्रान्त' की हस्तलिपि में तुलसी के व्यक्तित्व व कृतित्व को रेखांकित करते हुए निम्नलिखित दो छन्द भी उल्लेखनीय हैं जिन्हें हिन्दी अकादमी दिल्ली की पत्रिका इन्द्रप्रस्थ भारती ने सर्वप्रथम प्रकाशित किया था। इनमें पहला छन्द सिंहावलोकन है जिसकी विशेषता यह है कि प्रत्येक चरण जिस शब्द से समाप्त होता है उससे आगे का उसी से प्रारन्भ होता है। प्रथम व अन्तिम शब्द भी एक ही रहता है। काव्यशास्त्र में इसे अद्भुत छन्द कहा गया है। यही छन्द एक अन्य पत्रिका साहित्यपरिक्रमा के तुलसी जयन्ती विशेषांक में भी प्रकाशित हुए थे वहीं से उद्धृत किये गये हैं
तुलसीदास की रचनाएँ
अपने १२६ वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएँ कीं -
- रामललानहछू, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, जानकी-मंगल, रामचरितमानस, सतसई, पार्वती-मंगल, गीतावली, विनय-पत्रिका, कृष्ण-गीतावली, बरवै रामायण, दोहावली और कवितावली।
इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में किसी कवि की यह आर्षवाणी सटीक प्रतीत होती है - पश्य देवस्य काव्यं, न मृणोति न जीर्यति। अर्थात देवपुरुषों का काव्य देखिये जो न मरता न पुराना होता है।
लगभग चार सौ वर्ष पूर्व तुलसीदास जी ने अपनी कृतियों की रचना की थी। आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुँच चुका था। यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानस जैसे वृहद् ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे।
रामचरितमानस तुलसीदास जी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। उन्होंने अपनी रचनाओं के सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है, इसलिए प्रामाणिक रचनाओं के सम्बन्ध में अन्त:साक्ष्य का अभाव दिखायी देता है। नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ इस प्रकार हैं :
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'एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स' में ग्रियर्सन ने भी उपरोक्त प्रथम बारह ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
कुछ ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण
रामललानहछू
यह संस्कार गीत है। इस गीत में कतिपय उल्लेख राम-विवाह की कथा से भिन्न हैं।
- गोद लिहैं कौशल्या बैठि रामहिं वर हो।
- सोभित दूलह राम सीस, पर आंचर हो।।
वैराग्य संदीपनी
वैराग्य संदीपनी को माताप्रसाद गुप्त ने अप्रामाणिक माना है, पर आचार्य चंद्रवली पांडे इसे प्रामाणिक और तुलसी की आरंभिक रचना मानते हैं। कुछ और प्राचीन प्रतियों के उपलब्ध होने से ठोस प्रमाण मिल सकते हैं। संत महिमा वर्णन का पहला सोरठा पेश है -
- को बरनै मुख एक, तुलसी महिमा संत।
- जिन्हके विमल विवेक, सेष महेस न कहि सकत।।
बरवै रामायण
विद्वानों ने इसे तुलसी की रचना घोषित किया है। शैली की दृष्टि से यह तुलसीदास की प्रामाणिक रचना है। इसकी खंडित प्रति ही ग्रंथावली में संपादित है।
पार्वती-मंगल
यह तुलसी की प्रामाणिक रचना प्रतीत होती है। इसकी काव्यात्मक प्रौढ़ता तुलसी सिद्धांत के अनुकूल है। कविता सरल, सुबोध रोचक और सरस है। ""जगत मातु पितु संभु भवानी"" की श्रृंगारिक चेष्टाओं का तनिक भी पुट नहीं है। लोक रीति इतनी यथास्थिति से चित्रित हुई है। कि यह संस्कृत के शिव काव्य से कम प्रभावित है और तुलसी की मति की भक्त्यात्मक भूमिका पर विरचित कथा काव्य है। व्यवहारों की सुष्ठुता, प्रेम की अनन्यता और वैवाहिक कार्यक्रम की सरसता को बड़ी सावधानी से कवि ने अंकित किया है। तुलसीदास अपनी इस रचना से अत्यन्त संतुष्ट थे, इसीलिए इस अनासक्त भक्त ने केवल एक बार अपनी मति की सराहना की है -
- प्रेम पाट पटडोरि गौरि-हर-गुन मनि।
- मंगल हार रचेउ कवि मति मृगलोचनि।।
जानकी-मंगल
विद्वानों ने इसे तुलसीदास की प्रामाणिक रचनाओं में स्थान दिया है। पर इसमें भी क्षेपक है।
- पंथ मिले भृगुनाथ हाथ फरसा लिए।
- डाँटहि आँखि देखाइ कोप दारुन किए।।
- राम कीन्ह परितोष रोस रिस परिहरि।
- चले सौंपि सारंग सुफल लोचन करि।।
- रघुबर भुजबल देख उछाह बरातिन्ह।
- मुदित राउ लखि सन्मुख विधि सब भाँतिन्ह।।
तुलसी के मानस के पूर्व वाल्मीकीय रामायण की कथा ही लोक प्रचलित थी। काशी के पंडितों से मानस को लेकर तुलसीदास का मतभेद और मानस की प्रति पर विश्वनाथ का हस्ताक्षर संबंधी जनश्रुति प्रसिद्ध है।
रामाज्ञा प्रश्न
यह ज्योतिष शास्त्रीय पद्धति का ग्रंथ है। दोहों, सप्तकों और सर्गों में विभक्त यह ग्रंथ रामकथा के विविध मंगल एवं अमंगलमय प्रसंगों की मिश्रित रचना है। काव्य की दृष्टि से इस ग्रंथ का महत्त्व नगण्य है। सभी इसे तुलसीकृत मानते हैं। इसमें कथा-श्रृंखला का अभाव है और वाल्मीकीय रामायण के प्रसंगों का अनुवाद अनेक दोहों में है।
दोहावली
दोहावली में अधिकांश दोहे मानस के हैं। कवि ने चातक के व्याज से दोहों की एक लंबी श्रृंखला लिखकर भक्ति और प्रेम की व्याख्या की है। दोहावली दोहा संकलन है। मानस के भी कुछ कथा निरपेक्ष दोहों को इसमें स्थान है। संभव है कुछ दोहे इसमें भी प्रक्षिप्त हों, पर रचना की अप्रामाणिकता असंदिग्ध है।
कवितावली
कवितावली तुलसीदास की रचना है, पर सभा संस्करण अथवा अन्य संस्करणों में प्रकाशित यह रचना पूरी नहीं प्रतीत होती है। कवितावली एक प्रबंध रचना है। कथानक में अप्रासंगिकता एवं शिथिलता तुलसी की कला का कलंक कहा जायेगा।
गीतावली
गीतावली में गीतों का आधार विविध कांड का रामचरित ही रहा है। यह ग्रंथ रामचरितमानस की तरह व्यापक जनसम्पर्क में कम गया प्रतीत होता है। इसलिए इन गीतों में परिवर्तन-परिवर्द्धन दृष्टिगत नहीं होता है। गीतावली में गीतों के कथा - संदर्भ तुलसी की मति के अनुरूप हैं। इस दृष्टि से गीतावली का एक गीत लिया जा सकता है -
- कैकेयी जौ लौं जियत रही।
- तौ लौं बात मातु सों मुह भरि भरत न भूलि कही।।
- मानी राम अधिक जननी ते जननिहु गँसन गही।
- सीय लखन रिपुदवन राम-रुख लखि सबकी निबही।।
- लोक-बेद-मरजाद दोष गुन गति चित चखन चही।
- तुलसी भरत समुझि सुनि राखी राम सनेह सही।।
इसमें भरत और राम के शील का उत्कर्ष तुलसीदास ने व्यक्त किया है। गीतावली के उत्तरकांड में मानस की कथा से अधिक विस्तार है। इसमें सीता का वाल्मीकि आश्रम में भेजा जाना वर्णित है। इस परित्याग का औचित्य निर्देश इन पंक्तियों में मिलता है -
- भोग पुनि पितु-आयु को, सोउ किए बनै बनाउ।
- परिहरे बिनु जानकी नहीं और अनघ उपाउ।।
- पालिबे असिधार-ब्रत प्रिय प्रेम-पाल सुभाउ।
- होइ हित केहि भांति, नित सुविचारु नहिं चित चाउ।।
श्रीकृष्ण गीतावली
श्रीकृष्ण गीतावली भी गोस्वामीजी की रचना है। श्रीकृष्ण-कथा के कतिपय प्रकरण गीतों के विषय हैं।
हनुमानबाहुक
यह गोस्वामी जी की हनुमत-भक्ति संबंधी रचना है। पर यह एक स्वतंत्र रचना है। इसके सभी अंश प्रामाणिक प्रतीत होते हैं।
तुलसीदास को राम प्यारे थे, राम की कथा प्यारी थी, राम का रूप प्यारा था और राम का स्वरूप प्यारा था। उनकी बुद्धि, राग, कल्पना और भावुकता पर राम की मर्यादा और लीला का आधिपत्य था। उनक आंखों में राम की छवि बसती थी। सब कुछ राम की पावन लीला में व्यक्त हुआ है जो रामकाव्य की परम्परा की उच्चतम उपलब्धि है। निर्दिष्ट ग्रंथों में इसका एक रस प्रतिबिंब है।
हनुमान चालीसा अवधी में लिखी एक काव्यात्मक कृति है, जिसमें प्रभु श्री राम के महान भक्त हनुमान जी के गुणों एवं कार्यों का चालीस चौपाइयों में वर्णन है।
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