सूना
भगवतशरण उपाध्याय
सूना, भयानक सूना, जैसे विश्व सिमटकर इन चट्टानों की सीमाओं में आ गया हो, और उनमें मैं अकेला हूँ। जैसे अँधेरा होता है, घुप अँधेरा, वैसा ही यह सूना है। एक पत्ता नहीं, जो हिले, खड़खड़ाये, और गति का, जीवन का बोध हो। प्रकृति सूने में व्यभिचार नहीं उत्पन्न करना चाहती, इससे गोलाम्बर के नीचे , क्षितिज तक सूना है। एक परिन्दा नहीं, चिड़िया का पूत नहीं, शायद हवा तक नहीं।
सालों, दशकों के सपने सही करने आया था। मित्र ने समान मित्र से कहा था,''बस, आपका काम उन्हें गिरफ्तार कर लाना है, मेरा उन्हें कैद में डाल देना।'' और मेरे उस प्यारे दोस्त ने मुझे उस खुली कैद में डाल ही दिया। काम बन्द, इस बड़े नगर में अनजाने देश में दोस्तों के अभाव में मिलना बन्द। गेस्ट-हाउस के ये लगातार चले गये ठोस-बड़े-गहरे-ऊँचे कमरे, जिनकी फर्श पत्थर की पट्टियों से ढकी, छत पत्थर की पट्टियों से ढकी, जोगिया रंग से रँगी मोटी दीवारें प्रभावत: जैसे जैसे पत्थर की पट्टियों से ढकी।
और ये कमरे, कुर्सियों, आराम-कुर्सियों, मेजों, छपरखटों, पलंगों, दरियों, गलीचों-गद्दियों से भरे, छतों से झाड़-फानूस लटकाये, और इन सब में अकेला मैं , फकत मैं, इन सारे कमरों में मैं अकेला। वसन्त निपट गया। पतझड़ आया। मार्च अप्रैल में खोया, पर अप्रैल एक डग न सरके, जैसे अभिशप्त मन्त्रजड़ सर्प।
सूने से दिन में डर लगने लगा। हाँ, लग सकता है डर दिन के सूने में भी, लगता है, लगने लगा था। लगता जैसे कुर्सियों पर कोई बैठ उठेगा, जैसे उनकी जड़ता सचेत हो उठेगी। और यह पलंग जिस पर सोता हूँ, दिन में पड़ा रहता हूँ, बेबस। और चुपचाप इसके ऊँचे सिरहाने-पैताने पर नजर डालता हूँ, बेचैनी में कभी पैताने सिर करता हूँ, कभी सिरहाने। पर वह डर जैसे घेरे-घेरे रहता है। ऊँचाई दोनों ओर की बराबर है, काले आबनूस की चिकनाहट स्याही के साथ अपना डरावना साया डाल देती है। लगता है, पलंग पर नहीं, ताबूत में सोया हूँ। आबनूसी ठोस सपाट सिरहाना-पैताना ताबूत का ही असर पैदा करते हैं। तूतनखामन जैसे जिन्दा पड़ा है, जिन्दा दरगोर , इस स्याही-पुते पलंग की गहरी चहारदीवारी में कैद, जिसकी ऊँची छत को आबनूस के ही खम्भे उठाये हुए हैं। काहिरा के अजायब घर की सहसा याद आ जाती है, उस ठोस सोने, ठोस लकड़ी के कमरानुमा ताबूत की, और तूतनखामन की 'ममी ' पर उसकी सोलह साल की प्यारी सुन्दर बीबी के छोड़े हार की, जिसके फूल कुम्हला गये थे। और यहाँ भी तो सामने उस तसवीर पर एक गजरा पड़ा है, जिसके फूल कुम्हला गये हैं, विवर्ण हो गये हैं।
और ये झाड़-फानूस, बेशकीमती झाड़-फानूस, जो एक गुजरी हुई दुनिया की याद दिलाते हैं। उस दुनिया के अँधेरे को इनकी हजार-हजार शमाएँ भी दूर न कर पाती थीं। पर जिन पर परिन्दे टूटते थे, शेर-गजलें-रुबाइयाँ पढ़ते थे। पर आज ये झाड़-फानूस भी जैसे मजार के सिंगार हो गये हैं , बुझे चिराग की लौ, अपनी बेबसी के शिकार। काश, उनके पैर होते! फिर इन कमरों के जंगल, कुर्सियों फूलदार मेजों के जाले भी उन्हें नहीं रोक पाते। झमझम करते उन्हें तोड़ते, खुद टूटते, चले जाते, इस कैद से दूर, जहाँ उन्हें कोई नहीं जानता, कोई न समझ पाता, उनके असमय की लँगड़ी रौनक पर जहाँ कोई मुसकराता नहीं।
और उन्हीं की तरह मैं भी कहीं नहीं जा पाता। इन्हीं कमरों की कतार में, जिस पर मैं भी जैसे बेबस टँक गया हूँ, छपरखट के ताबूत की गहराइयों में, और लगता है, उसी में दबा रहूँगा, कयामत तक। फिर यह कयामत भी कुछ आज नहीं आने वाली है! कोई शोख अँगड़ा भी नहीं पड़ता कि जिस्म की सारी रगें खिंच जायँ, कि ताबूतों में सदियों से पड़े तूतनखामन करवट ले लें, कि कब्रों की उभरी छाती दरक जाय।
दिन का साया साँझ के धुँधलके में खो जाता है। फिर साँय-साँय करती रात आती है, रात, चोर और चाँद लिये। चाँद कम ही आता है , चोर अधिक। रग-रग की सीवन में अँगड़ा कर सीवन जैसे तोड़ देता है, घाव हरे हो आते हैं। यादें बिसूरने लगती हैं। रात कटती नही। उल्लू पुकार उठता है। कुर्सियाँ, मेजें, पलंग जैसे जी उठते हैं। लगता है, उनमें कोई बैठा है , हर-एक में छायाएँ जैसे चलने लगती हैं। ताबूतों से भरा पिरामिड विकराल स्वर से रो उठता है।
बत्ती जलाता हूँ, सभी आधार बदस्तूर हैं, कुर्सी, पलंग खाली, सूने। बत्ती बुझा लेता हूँ , दिल को हाथोंमें भर करकोई मसल देता है। जिस्म का रोआँ-रोआँ खड़ा है। अपनी ही साँस तूफान भर लेती है। अकेली साँस, हवा का साजिश-भरा फितूर, ग्यारहों प्रान लिए फुस-फुसाती है। आँखें बन्द कर लेता हूँ, गोया अँधेरे में कुछ दीखता था, जो अब न दिखेगा।
और बेरौनक दिन निकल आता है, दिन, जिसकी सुबह तक जलाती है, जिस सुबह की किरन चमकते तीर की तरह आँखों को चीरती चली जाती है। जलती दुपहरी,यद्यपि इतनी नहीं जितनी हिंदुस्तान की। यह दकन है, हैदराबाद, जिसकी आसफज
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